लालित्य ललित
दिल्ली
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कहते हैं जैसे मौसम करवट बदलता है, वैसे ही पांडेय जी भी रंग बदलते हैं। बरसों पहले एक हिंदी के विद्वान ने यह कहा था कि पांडेय जी के जीवन में जितने भी रंग आएंगे, तो यह मान कर चलिएगा कि उतनी ही प्रेमिका उनके जीवन में उतने ही काव्य संग्रह ले आएंगी। बात तो विचार करने की है, अब पांडेय जी प्रेमिकाओं की गिनती काउंट करें या उस विद्वान की आप-बीती को सच मानें!
बहरहाल, पांडेय जी को अपने कॉलेज का समय याद आ गया…, मोरिस नगर के बगल में आर्ट्स फैकल्टी और वहाँ उनके चाय का अड्डा जय जवान और जय किसान।
पांडेय जी को वहीं बगल में सीढ़ियों पर बैठना पसंद था, जहाँ चाय ले जा कर पीते और क्रिएटिव हो जाते। ऐसे ही एक दिन रचनात्मक हो गए, आप भी देखिए, कि किस तरह के भाव उनके भीतर काले इतराते बादलों की तरह घुमड़ते रहे-
एक अदद चुस्की और तुम्हारी याद,
तुम
खास हो
उस एक अदद याद के लिए,
वह न भूलने वाली चुस्की
जिसे हमने एक साथ पीया था,
कितने ही प्याले आते चले गए
यह मोहब्बत,
और ये सुरमई आशिकी की कसम
जब इश्क होना हो
यादों से,
चुस्की से
और तुम,
एक बेहतरीन चुस्की और वह खोखा
यूनिवर्सिटी के पास वाला,
जहाँ भीड़ लगी रहती थी
क्या चाय बनाता था,
लोग खिंचे चले आते थे वहाँ
चाय के साथ उसकी लच्छेदार बातें,
जिसे सुनाकर लोगों का दिल जीत लेता था
फिर जब अपनी बारी आती थी,
तो लगता था
कि भोले के पास बैठे रहो और उसकी दिलकश बातों का जायका लेते रहो,
कुछ इंसान होते हैं और कुछ फरिश्ते
भोला भी कुछ कुछ ऐसा रहा होगा,
तभी तो सबके दिल में बस गया था
आते-जाते लोगों का हाल चाल, पूछता और अपना काम भी
बड़ी मुस्तैदी से करता रहता
एक बार पूछ लिया-
भोला एक बात बताओ,
यदि तुम्हारा यह काम नहीं होता
तो क्या होता!
उसने मुस्कराते हुए बड़े प्यार से कहा-
बाबू जी मैं आपसे फिर कहाँ मिल पाता!
मेरी किस्मत में आपसे मिलना था, सो ऊपर वाले ने मिला दिया
अब जब भी मैं उधर से जाता तो,
ऐसा होता ही नहीं था
कि भोला से न मिलूं,
बल्कि हमारे बीच एक अनजाना- सा रिश्ता बन गया था
समय बदल रहा था लेकिन भोला नहीं बदला,
कई साल बीत गए
मैं डेपुटेशन पर बाहर के मुल्क भी हो आया,
करीब इस बात को पाँच साल हो गए
फिर वहाँ से गुजरा तो गाड़ी में ब्रेक लगनी थी,
रुका और भोला ने उसी आत्मीयता से स्वागत किया,
जैसे मानो मैं उसी के घर, गाँव का हूँ
जो बड़े दिनों बाद मिला हो,
आजकल ऐसा प्यार कहाँ दिखता है भला!
मैं भोला के लिए जैकेट ले गया था,
कहा-भोला यह तुम्हारे लिए
उसकी आँखों से आँसू दुलक आए,
कहने लगा-बाबू जी मेरे लिए!
उसकी आँखें ऐसी चमकी, जिसकी खुशी मैं बता नहीं सकता
उस दिन
पहली बार मैं जान पाया कि खुशी किस पक्षी का नाम है,
और वह आपको कैसे मिल जाती है
भोला ने अपनी जैकेट सबको दिखाई,
कि मेरे बाबू जी लाए हैं बाहर मुल्क से
मैं बहुत देर बैठा रहा भोला के पास,
फिर तो कितनी बातें तैरने लगीं हम दोनों के बीच
बहुत समृद्ध हो कर लौट आया मैं,
सोचने लगा
प्यार एक दुआ है बल्कि एक अदद चुस्की है,
जिसे जितना बांटो
उतना कम है
और साहब प्यार बांटने से कभी कम नहीं होता,
आज भी मेरी यादों में भोला है
और उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा
सोचता हूँ
जब भी उधर जाऊंगा तो भोला के लिए कुछ कर पाऊं!
उतना कम है
कुछ चेहरे आपके अपने हो जाते हैं,
और आपको पता भी नहीं लगता
अब देखो न,
मेरी पूंजी इतनी समृद्ध हो चुकी है
जिसके भीतर केवल और केवल प्यार है,
उसके सिवाय कुछ भी तो नहीं
सुनो!
एक प्याला चाय मिलेगी
उसने कहा-वही भोला वाली
और मैं मुस्करा दिया
मेरी जीवन साथी भी कुछ-कुछ मेरी ही तरह है
कसम से,
चाय ने दो दिलों को कैसे मिला दिया था
उस टपरी पर
जो भोला की थी और हमारी, पहली मुलाकात भी तो वही हुई थी
कसम से,
कुछ बातें आपकी स्थाई पूंजी होती है
जैसे यादें
जैसे भोला और जैसे तुम,
और तुम्हारी एक अदा
जिसे देख कसम खा ली थी
कि तुम्हारे साथ आगे की यात्रा में सहयात्री बनना है…।
कहते हैं कि ऊपर वाला सबकी जोड़ियाँ बना कर नीचे धरती पर भेजता है, वहाँ प्यार-मोहब्बत होती है, टिक गई तो आपकी लाइफ स्मूथली चलती है, अन्यथा भांडे बजते हैं और पूरा मुहल्ला लाइव सेशन का आनंद लेता है, वह भी बिना टिकटों के, समझ आई बात।
अब पिछले दिनों की बात है, किसी के निधन में दयाल बाबू को भी पांडेय जी के साथ जाना पड़ा।पांडेय जी ने अपने परिचित लोगों से कहा कि मनुष्य के सुख-दु:ख में अवश्य शामिल होना चाहिए। बात भी सही थी, लेकिन दयाल बाबू की पत्नी ने कहा-सुनिए जी, आपके घर की लोकेशन से मात्र ५ मिनट की दूरी है, बस फिर क्या था, दयाल बाबू ठहरे पत्नी भगत।कह दिया कि हम आ जाएंगे, तुम चिंता मत करो।
उधर, दयाल बाबू ने कहा-पांडेय जी, हमारा लंच किसी को कह दीजिएगा कि खा ले, हम दफ्तर नहीं जा पाएंगे। पांडेय जी ने कहा- कह देते हैं कि गुप्ता जी दाह संस्कार के बाद चले गए। आस- पास के लोगों ने भी सुना और कहा पांडेय जी का कह रहे हो! ऐसा कहिए कि गुप्ता जी दाह संस्कार के बाद घर की दिशा में प्रस्थान कर गए। बात तो सही है, पता नहीं लोग क्या सोच लेते!
ऐसा ही एक किस्सा हुआ, किसी लेखिका की पुस्तक का लोकार्पण था विश्वविद्यालय के किसी प्रोफेसर के बंगले में बने बगीचे में। वहां पांडेय जी ने कह दिया कि आज का दिन बड़ा महत्वपूर्ण है कि इनका लोकार्पण फलाने श्री के कर कमलों से हो रहा है। तत्काल लेखिका ने गौर से मगर प्रेमिल गुस्से के अंदाज से कहा हौले से,-कहो तो सही, मेरी पुस्तक का लोकार्पण हो रहा है न कि मेरा!!
समझ आने पर पांडे जी ने कहा- बड़ा पवित्र दिन है आज, इनके द्वारा रची गई सुंदर और सशक्त कविताओं की पुस्तक का लोकार्पण वरिष्ठ विद्वान फलाने श्री द्वारा किया जा रहा है। बात उलझते-उलझते सुलझ गई। ऐसे हैं हमारे विलायती दाम पांडेय जी।
उनका लोकार्पण हो गया, विद्वानों को विदा किया और लेखिका हिसाब लगाती रह गई, खाया, पिया बाराना….
पांडेय जी ने कहा-देवी जी, हिसाब लगाना छोड़िए, ये देखिए आपकी काव्य पुस्तक का लोकार्पण हुआ। देखो कितने नामचीन लेखक आए और कितना सुंदर वक्तव्य दिया।
अगले दिन समाचार प्रकाशित हुआ-
“उदयीमान रचनाकार के लेखन में भारतीय चेतना का उद्घोष: विलायती राम पांडेय
जीवन में यही सब है, जिसे शब्दों से प्रेम है वह हमेशा पुस्तकों से प्रेम करता है, जिसे नहीं तो वह कबाड़ी को काम की पुस्तकें तक बेचने से बाज़ नहीं आता।”
छुट्टी का दिन और वह भी संडे! रामप्यारी ने पहले ही पांडेय जी को हड़का कर रखा था। मजाल क्या कि वे अपनी इकलौती धर्मपत्नी की नींद में खलल डाल दें। बेचारे पति और वह भी पांडेय जी, डरते हैं जैसे आप सभी।
और जो यह कहता है कि वे अपनी पत्नी से डरते नहीं, उनका नाम बता दें। मजाल है कि ऐसा कोई माई का लाल निकल कर आ जाए, अगले घंटे में ही उसकी पत्नी, उसका टेंटुआ न दबा देती, इसलिए आजकल पति, पत्नी से सतर्क रहता है। क्या पता! सोते-सोते ही साँस उखाड़ देने का प्रयास सक्रिय न हो जाए।