डोली शाह
हैलाकंदी (असम)
**************************************
अंग्रेजी लिबास, गोरा बदन, वो गुलाबी गाल, आँखों पर काला चश्मा, हाथों में बड़ा-सा मोबाइल देखते ही शहरों की चकाचौध का एहसास दिलाता ।
बचपन से ही माता-पिता की लाड़ली सोनू की एक इच्छा पर सब कुछ उपलब्ध हो जाता। चाहे वह एक पौधे की बात कहे, या खाने-पीने तथा उसकी जरूरत की वस्तुएं…, लेकिन हाँ, वह बचपन से ही प्रकृति प्रेमी रही। अपना छोड़ दूसरों की कद्र करना उसके शरीर में रक्त की तरह दौड़ता था। एक छोटे-से पौधे के पास भी वह खड़ी हो जाती, तो घंटों सवालों में उलझी रहती। पके पत्तों से लेकर गमले तक को भी इस कदर चमका कर रखती, मानो सेज सजा रही हो।
अचानक सोनू की नानी लीला देवी की कुछ तबीयत बिगड़ने की सूचना माँ को मिली। सोनू का ग्रीष्मावकाश देख दोनों वहाँ चल दिए। चारों ओर से बाँस की झाड़ियों के बीच छुक-छुक करती रेलगाड़ी, इक्का-दुक्का बाँस-फूस की झोपड़ियाँ, पर्वतों की ऊँची-ऊँची चोटियाँ, वह बड़े-बड़े तालाब कि, पूरे रास्ते का नजारा देखते ही बन रहा था। सोनू पूरी तरह उसी में रम गई थी।
घर पहुँच कर नानी की परी सोनू हर चीज का लुफ्त उठाती। वह प्रकृति के सवालों में उलझ कर रह जाती। हर किसी के साथ उसका अपनेपन का व्यवहार बड़ा ही सुखद अनुभव देता।
अगले दिन सोनू प्रातः भ्रमण हेतु प्रकृति का आनंद उठाने निकली। लंबी-लंबी झाड़ियों के बीच बिल्कुल सन्नाटा, कोहरे की वह धुंध, दूर-दूर तक लहलहाते धान के खेत, पहरा देता वह पुतला तो आँख-मिचौनी खेलता आग का गोला, पूरी प्रकृति मानो अपने-आप से हॅंसी-ठहाके कर रही हो। उसमें पक्षियों का कलरव, क्या अद्भुत दृश्य बनता है। इतने में सोनू की नजर तालाब के किनारे दूर खड़े एक युवा पर पड़ी। समीप आने वह पल भर यूँ ही निहारती रही। फिर बोली-“आप यहाँ खड़े होकर इस बाँस के सहारे क्या कर रहे हैं ?”
दो पल युवक मौन रहा। सोनू निहारती रही। इतने में धागे के सहारे एक मछली उड़ कर निकली। सोनू अवाक हो बोली-“वाह मछली!”
“हाँ मछली, कभी देखी नहीं क्या!”
“देखी है मंडियों में!”
“अच्छा, कहाँ रहती हो, इससे पहले कभी देखा नहीं तुम्हें ?”
“हाँ, मेरा नाम सोनू है। मैं कल ही मामा के घर आई हूँ।”
“कहाँ रहती हो, कौन है तुम्हारे मामा ?”
“शिवमंगल शर्मा नाम है उनका।”
“अच्छा!”
“आपका नाम ?”
“सूरज।”
“वाह उगता हुआ सूरज, लेकिन आप इतनी सुबह-सुबह मछलियां क्यों पकड़ रहे हैं ?”
सूरज मौन रहा।
“आपको ठंड नहीं लग रही! आपने तो गर्म कपड़े भी नहीं पहने!”
“नहीं, वो सुबह से काम के चक्कर में यूँ ही निकल आया।”
इतने में एक और मछली देख वह…
“आप कैसे पकड़ते हैं, मुझे भी सिखा दीजिए।”
सूरज दंग हो कर बोला- “अच्छा फिर कभी!”
इतना सुन सोनू भी चल पड़ी। घर आकर वह माँ से प्रकृति की सुंदरता की तारीफ करते ना थकी।
अगली सुबह वह बड़े चाव से प्रातः भ्रमण के लिए पुन: निकली।चलते-चलते उसकी नजर सूरज पर पड़ते ही खुशी से फूले नहीं समाई। वह जोश भरे शब्दों में बोली,-“गुड मॉर्निंग।”
“वेरी गुड मॉर्निंग।
“कब आए आप ?”
“जस्ट अभी-अभी ही आया हूँ।”
“अच्छा! आज तो मुझे सिखा ही दीजिए।”
“ओके, तुम डोर के अंतिम सिरे पर नज़रें लगा कर रखना।”
“जी-जी” सोनू भी देखती रही। इतने में उसने पूछा-“आप “हर रोज मछली पकड़ने आते हैं ?
“हाँ, वो दरअसल मेरी माँ को ब्लड कैंसर है। डॉक्टर ने उन्हें सिर्फ यही मछली उबाल करके खाने को बोला है।”
” अच्छा,घर पर और कौन-कौन है आपके ?”
“कोई नहीं, सिर्फ इकलौता बस मैं हूँ। पिता रहे नहीं, सारी जिम्मेदारी सिर्फ मेरी ही है।”
“फिर तो सारा काम आप ही को करना पड़ता होगा!”
“हाँ, घर की परिस्थितियों देख मैं दफ्तर से हाजिरी लगाकर ही आ जाता हूँ, बाकी सारे काम घर से ही निपटाता हूँ।” धीरे-धीरे दोनों एक दूसरे से इधर-उधर की बातें करते रहे, जिससे सोनू अब हर दिन प्रात: भ्रमण करने के बहाने ही घंटों सूरज के साथ समय बिताने लगी। दोनों में अपनत्व का एक रिश्ता-सा पनपने लगा।
इतने में एक दिन सोनू ने सूरज की माँ को देखने की इच्छा जाहिर की। सूरज सुनकर अवाक रह गया, लेकिन फिर वह उसे अपने साथ ले गया।
माँ से मिलने वाले आशीर्वचनों ने दोनों को आबाद कर दिया। सोनू के कानों में उनकी बातें कुछ इस तरह गूंज रही थी कि, दोनों के बीच कुछ ना होते हुए भी होने का एहसास दिला रहा था। जैसे रिश्तो में मधुरता ही डल गई हो।
सूरज कुछ बोलने को ही था, कि माँ बोली-“कुछ मत बोलो! मेरे बाल ऐसे ही नहीं सफेद हुए।”
सोनू ने इशारे से सूरज को समझाया-” माँ की खुशी यदि इन कल्पनाओं में ही है तो, उन्हें कष्ट मत दीजिए। हर माँ की पल-पल की खुशी बच्चों के लिए बहुत मायने रखती है।” यह बात सूरज के मन -मस्तिष्क में घर कर गई । इतनी कद्र इतनी परवाह…वह माँ से घंटों बैठ बातें करती रही। बिस्तर पर लेटे इंसान को प्यार के दो बोल बोलने वाला मिल जाए तो इससे बड़ी खुशकिस्मती क्या हो सकती है। दोनों के हॅंसी-ठहाके देख सूरज भी कल्पनाओं की दुनिया में गोते लगाने लगा। इतने में जलपान कर सोनू घर से निकलने ही लगी थी कि, सूरज ने आभार व्यक्त करते हुए कहा,”माँ की बातों का बुरा मत मानिएगा। वह दिमाग से कुछ कमजोर हो गई है। कैंसर की वजह से उनकी स्मरण शक्ति भी बहुत कम हो गई है, लेकिन ,हाँ अभी भी उनका आत्मविश्वास ही उनकी ताकत है जो उन्हें हमेशा खुश रखता है।”
“हाँ, यदि मन खुश हो तो शारीरिक कष्ट इतने महसूस नहीं होते। मैं चली अब।”
अब सूरज की रातों की नींद उड़ने लगी। वह मन ही मन सोचता, काश माँ की बातें सच हो जाए। उधर, सोनू भी कल्पनाओं की दुनिया में माँ के साथ बिताए पलों को अक्सर स्मरण करती।
करीब सप्ताह-१० दिन बीत गए। सोनू हर दिन मछली पकड़ने देखने के बहाने घंटों सूरज से बातें करती। वक्त के साथ ही मछलियों के मरने से कुछ ज्यादा ही जल्दी सुइयों का चक्र चलने लगने लगा। दोनों के बीच प्यार की परछाइयाँ कुछ ज्यादा ही बढ़ने लगी। दोनों अक्सर यादों में खोए रहते, लेकिन सोनू का अवकाश खत्म होते ही वह वापस चकाचौंध की दुनिया में आ गई। सोनू का हर पल सूरज की यादों की चादर ओढ़ अपने तक ही सिमटी रहना माँ को बड़ा अटपटा-सा लगता। वह मन ही मन उसका घर बसाने की सोचती, लेकिन सोनू अपनी इच्छाओं पर अड़ी रही।bवह इंतजार करती रही सही वक्त का…..।
तभी एक दिन सूरज की तबीयत कुछ बिगड़ी। हालात कुछ गंभीर हो गए। जाँच कराने पर सूरज के शरीर में भी कैंसर के कुछ अंश पाए ग। यह सुन कर सूरज बिल्कुल टूट,-सा गया। तन्हाइयों के आँगन में उसके सारे सपने बिखर कर रह गए।
उसकी अपनी जिंदगी भी बोझ लगने लगी। उसके सोने के बाद भी डॉक्टर की कही बातें उसके कानों में गूंजती। सूरज सोनू के फोन की पहली रिंग पर ही उत्तर देने वाला, वही अब लंबे इंतजार के बाद भी कुछ बोलने में जबान लड़खड़ाने लगी। सूरज का बदलता व्यवहार देख सोनू खुद को रोक न पाई और उसने सूरज के मन की गहराइयों में जाने की कोशिश की, लेकिन सूरज आँख-मिचौनी की चादर लिए कुछ भी बताने से इनकार करता रहा।
वक्त के साथ बातें करते हुए सोनू ने सूरज की सारी सच्चाई जान ली। यह सुनते ही वह एक तरफ जहाँ दुखी हुई, वहीं उसकी बातें सुन अवाक रह गई। सूरज कहने लगा कि- “हमारे बीच लगाव जरूर था, लेकिन वह इतना भी नहीं था कि रिश्ता विवाह तक पहुँच सके।”
यह सुन सोनू खुद का रोक न सकी और उसने कड़क स्वर में कहा-“आज मेरी जिंदगी का अंतिम दिन है, यदि मैं तुम्हारी ना हो सकी तो मैं किसी की नहीं होना चाहूंगी। फैसला तुम्हारे हाथों में है।
“यह सुन सूरज खुद को रोक न सका और समझाते हुए बोला,-“सोनू ज़िद मत करो। ? मैं कैंसर का मरीज हूँ। मैं किसी से शादी नहीं कर सकता।”
“क्या, किसने कहा तुम्हें!”
“यही सच है, मैं इसके छोटे-छोटे लक्षणों से वाकिफ हूँ। मुझे एहसास हुआ तो जाँच करने पर पता चला कि मुझे भी…।”
सोनू खुद से लड़ती हुई बोली,-“तो क्या हमारा प्यार इतना हल्का है कि, एक छोटी-सी बीमारी उसे शून्य में बदल दे।”
“सोनू! यह छोटी-सी बीमारी नहीं है। न जाने हर वर्ष इससे कितनों की ही जान जाती है। मेरी माँ को ही देखो।”
“सूरज मैं समझ सकती हूँ तुम्हारी हालत…। तुम अपनी तुलना माँ से क्यों कर रहे हो! माँ की उम्र हो चुकी है, उनका शरीर जर्जर हो चुका है। तुम्हारी तो अभी प्राइमरी स्टेज है। तुम पूरी तरह ठीक हो जाओगे और हम २१वीं सदी में जी रहे हैं। यहाँ सब कुछ संभव है। मैं बड़े से बड़े डॉक्टर से तुम्हारी जाँच करवाऊंगी। तुम उसकी टेंशन मत लो।भूल जाओ तुम्हें कुछ हुआ भी है। अब सब कुछ मेरी जिम्मेदारी, पर मुझे अपने-आपसे अलग करने की सोचना भी मत! मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ।” यह कहते हुए उसने अपने दर्द को समेट कर फोन रख दिया।
सोनू ने यह बात अपने पिता से साझा की और एक अच्छे डॉक्टर से जाँच करवाई, जिससे पता चला कि लंबे वक्त तक दवाइयों के सेवन से वह बिल्कुल ठीक हो जाएगा। यह सुन सोनू की खुशी का ठिकाना ना रहा, वहीं सूरज को भी आशा की किरण दिखाइ दी। अगले ही दिन सूरज अपनी माँ को लेकर वहाँ पहुँचा, लेकिन लंबे समय से बीमार होने के कारण दवाइयों के बाद भी पूरा ठीक होने की कोई गारंटी नहीं मिली, पर हाँ सूरज की यह बातें सुन माँ को एक तरफ भयानक बीमारी से लड़ने की शक्ति मिली। अब दोनों का रिश्ता कुतुब मीनार की ऊँचाई छू रहा था, पर सूरज अक्सर बात को टाल देता। देखते ही देखते सूरज की जाँच बिल्कुल सामान्य हो गई, जिससे दोनों के बीच सम्मानजनक रिश्ते की डोर और भी मजबूत हो गई। एक तरफ जहाँ सोनू के माता-पिता को एक असहाय की मदद करने का सुख मिला, वहीं सूरज की माँ को अपनी पहाड़ जैसी बीमारी भी बालू के कण जैसे लगने लगी।
परिस्थिति को देख सोनू ने पिता से सूरज के साथ विवाह की इच्छा जाहिर की। माता-पिता के लंबे वक्त से चल रहे अंदेशे को सोनू ने सही कर दिखाया, लेकिन इकलौती बेटी की खुशी देख वह विवाह के लिए राजी हो गए और सूरज की माँ का बोला हुआ आशीर्वचन पुरोहित के सामने पूरा हो गया। दोनों का विवाह बड़े ही साधारण एवं सम्मानजनक ढंग से हो गया। प्रकृति की गोद में हिलोरे लगाता दोनों का रिश्ता गुलाब की तरह महकता रहा और सब कुछ देख माँ की आयु और लंबी होती गई, जिससे छोटा-सा परिवार सदा खुश रहने लगा।