डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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बचपन में याद है हम सभी एक खेल खेला करते थे, ‘लंगड़ी टांग’ का खेल। बहुत मजेदार खेल था। खेल में शामिल लोगों को जितना मज़ा नहीं आता था, उतना मज़ा दर्शकों को आता था, जो २ पैरों पर खड़े होकर यह खेल देखते थे। हम गिरते-पड़ते, दौड़ते-भागते, लड़खड़ाते हुए जब मैदान में धराशायी होते, तो दर्शकों की तालियों से वातावरण गूँज उठता। इस खेल में अंत में एक जीतता भी था, लेकिन कौन जीता ? इससे दर्शकों को कोई सरोकार नहीं होता था। उन्हें तो बस मज़ा आना चाहिए था, जो पहले ही मिल जाता था। बचपन तो चला गया, लेकिन यह लंगड़ी टांग का खेल अभी भी जारी है।
यह खेल अब हर क्षेत्र में चल रहा है-चाहे वह शिक्षा हो, राजनीति हो, सरकारी या गैर-सरकारी संस्थाओं में हो, ब्यूरोक्रेसी में हो, साहित्य जगत में हो या खेल जगत में हो। बस इस खेल के मायने बदल गए हैं, इसके मोहरे बदल गए हैं और दर्शकों की दीर्घा जो इस खेल को देख रही है, वह खुद इस खेल से अपने-आपको बचाए हुए है। इस खेल में खिलाड़ियों की जीत-हार नहीं होती, सिर्फ खिलाड़ियों की लंगड़ी टांग की दौड़ देखने का मज़ा है। खेल में जीतता वही है, जो खेल मैदान के घेरे के बाहर सुरक्षित अपनी २ साबुत टांगों के इस्तेमाल से ये खेल खिला रहा है!
तो इस खेल को थोड़ा समझें! इस खेल में सबसे पहले भाग लेने वाले खिलाड़ी को १ टांग से लंगड़ा किया जाता है। अब यहाँ खिलाड़ी को कहें कि, तुम अपनी एक टांग मोड़ कर बांध लो और लंगड़े हो जाओ तो वह कदापि नहीं करेगा और वह खिलाने वाले की मंशा भांप जाएगा। इसलिए दूसरा तरीका अपनाया जाता है-टांग खिंचाई का। देखिए, आदमी लंगड़ा २ तरीके से हो सकता है: या तो एक टांग छोटी कर दी जाए या एक टांग लंबी। अब चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर-परिणाम तो एक ही होगा ना। तो बस, यही खेल है। एक टांग खींच कर उसे लंबा किया जाता है! हो गया लंगड़ा, अब उसको दौड़ाया जाता है, उसके लड़खड़ाने, गिरने-पड़ने पर तालियाँ बजती हैं। धीरे-धीरे वह खेल के मैदान से आउट होता है, फिर कोई दूसरा खिलाड़ी एंटर होता है। और बस यह खेल-चक्र चलता रहता है !
अब राजनीति में देखिए, जैसे ही कोई नया नेता अपने पैर जमाने लगता है, अपनी ईमानदारी और जनसेवा की लगन से जी-तोड़ मेहनत करके पार्टी में जान फूंक देना चाहता है, जनता की पसंद का नेता बनने लगता है, और इधर, पार्टी के कमानदारों के हलक सूख जाते हैं। उन्हें अपनी हथियाई हुई कुर्सी हिलती हुई नजर आती है। बस फिर क्या टांग खिंचाई शुरू, उसके पिछले कर्मों का लेखा-जोखा खंगाला जाता है, ट्विटर-फेसबुक के खाते में उसकी कोई पुरानी हरकत ढूंढी जाती है जो उसकी एक टांग को लंबी कर सके। बस फिर क्या, उसकी लम्बी टांग सोशल मीडिया पर प्रसारित (वायरल) हो जाती है। वह अपनी लंगड़ी टांग को लेकर राजनीति के खेल के मैदान से रिटायर्ड हर्ट हुए खिलाड़ी की तरह पवेलियन में लौट आता है, दौड़ का मोह छूट जाता है और अपने मौलिक कार्य दरी बिछाने और रैली में भीड़ जुटाने में लग जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में देखो, जो असल में काबिलियत रखते हैं, वो अपने प्रमाण पत्रों और डिग्रियों को लेकर ऑफिस-दर-ऑफिस चक्कर लगा रहे हैं। कभी-कभार कोई सिरफिरा जिसे अभी भाई-भतीजावाद की लत और उपरी कमाई की मलाई का चस्का नहीं लगा, वो इनको मौका दे भी देता है, लेकिन ये आते ही धुँआदार बैटिंग करना चाहते हैं। भूल जाते हैं कि, खेल के असली शतरंज के खिलाड़ियों पर क्या गुजर रही है! पिछले दरवाजे से आए, विधायक या संसद कोटे से पदवी पाए वो जुगाड़ी लोग, जिन्हें शिक्षा में अपने विषय के अलावा सब कुछ आता है, उन्हें ये भी आता है कि, इन २ पैरों पर दौड़ने वालों को कैसे लंगड़ा किया जाए, तो वो नियोक्ताओं के कान भरना शुरू करते हैं। बस लंबी टांग की, और ये वापस हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं। किसी निर्जन- सी जगह पर अपनी मास्टरी को झाड़ते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। साहित्य के क्षेत्र में तो ये खेल बड़ा ही मनोरंजक होता है, यहाँ बड़े-बड़े साहित्यकार की पदवी प्राप्त किए झाड़-जुगाड़ से अकादमियों पर काबिज हो जाते हैं। अपने नाम और रसूख के तमगे से अलंकृत ४-५ किताबें छपवा देते हैं, कुछ के अतिथि सम्पादक बन जाते हैं, और फिर एक सर्वमान्य आलोचक, इनका काम फिर बस नए रचनाकारों की २ टांगों के बैलेंस को बिगाड़ना ही रहता है। इनका काम सिर्फ आलोचना करना है। दरअसल, समीक्षा का मतलब ये आलोचना ही समझते हैं, और ये नवोदित साहित्यकार अचंभित से भौंचक्के से इस खेल को समझ नहीं पाते, लेकिन लेखन की खुजली तो है ही, इसलिए अपने सोशल मीडिया पर ही २-४ फॉलोवर्स को अपनी रचनाएँ सुनाकर अपनी खुजली शांत किए रहते हैं। यही खेल चल रहा है समाज की संस्थाओं में। यहाँ पहले से पदों पर चिपके पदाधिकारियों को मंच-माला-माइक से इतना लगाव हो जाता है कि, जैसे ही कोई समाजसेवी के बुखार से पीड़ित इनकी संस्था में घुसता है, इनका सिंहासन डोलने लगता है। और फिर क्या, अपने लॉबिंग के अनुभवी जाल में उसकी टांग ऐसे फंसाते हैं कि, बेचारा दौड़ना तो क्या ठीक से चल भी नहीं पाए! समाजसेवा का बुखार उतरता तो नहीं है, इसलिए संस्था की मीटिंग अपने घर पर बुलाकर नाश्ते-पानी की सेवा को ही समाज की सेवा मान लेते हैं। वैसे भी कहा जाता है ना ‘चैरिटी बिगिंस एट होम।‘ खेल हर जगह खेला जा रहा है। खेल जगत में भी, खिलाड़ी जो खेलना जानते हैं, उसका काम सिर्फ खेलना है, बाकी जो खेला करते हैं वो ऊँची पहुँच वाले भाई भतीजावाद के प्रसाद से फलित धुरंधर इन मोहरों की चाल को नियंत्रण करने वाले ही करते हैं, जिन्हें खेल की एबीसीडी पता नहीं लेकिन इन्हें पता है कि, कब-किस मोहरे की टांग लंबी करके उसे लंगड़ा बनाकर घर बिठा दिया जाए।
यह लंगड़ी टांग का खेल यूँ ही चलता रहेगा, दर्शक बदलते रहेंगे, मोहरे बदलते रहेंगे, लोकतंत्र के छप्पन भोग का असली मजा वो ही लूट सकता है, जो दूसरों की लम्बी टांग करके उन्हें इस छप्पन भोग को लूटने से वंचित कर सके। किसी के खेल में टांग अड़ाएंगे या नाक घुसाएंगे तो साफ़ पकडे जाएंगे, बस टांग खिंचाई कीजिए, किसी को कानों-कान खबर नहीं होगी, आप भी मजे लूटिए और जनता को भी मजे लूटने दीजिए!