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सटीक अभिव्यक्ति है ‘सदी की सबसे बड़ी तालाबंदी’

रश्मि लहर
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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पुस्तक समीक्षा…

१ वर्ष पहले मुझे अविस्मरणीय पुस्तक मिली ‘सदी की सबसे बड़ी तालाबंदी।’ लेखक अवधेश सिंह (गाजियाबाद) की इस पुस्तक पढ़ने के मध्य कई बार अश्रुपूरित नेत्रों ने व्यवधान डाला। कई बार फूट-फूट कर रोई भी। बहुत सोचा कि, इस पुस्तक पर अपने विचार लिखूॅं, पर खोए हुए अपनों की स्मृतियों के कारण मन सदैव हिम्मत हारता रहा। आज अपने को संयत कर विचार व्यक्त कर रही हूॅं।
यदि हम ‘सदी की सबसे बड़ी तालाबंदी’ की बात करें तो यह पुस्तक कई मायनों में विशिष्ट है। इसमें प्रयुक्त आँकड़े, उस समय की पारिवारिक स्थितियाॅं, समाज में फैलते स्वार्थ की कटुताऍं तथा व्यक्तिगत हित के भाव की सटीक अभिव्यक्ति इसको अन्य पुस्तकों से एकदम अलग कर देती है। मजे की बात यह है कि, लेखक की शैली इतनी रोचक, तथ्यात्मक रूप से परिपक्व तथा सहज है कि, पाठक पूरी पुस्तक तन्मयता से पढ़ता चला जाता है।


लेखक ने संपूर्ण विषय को १८ भागों में बाॅंट कर लिखा है। महामारी के दौर का आरंभ, चरम सीमा तथा भविष्य में उपजने वाले विभिन्न दुष्परिणामों से निपटने के प्रयासों की सार्थक पहल का भली प्रकार वर्णन किया है। यह पुस्तक विषय-विभाजन के कारण बहुत व्यवस्थित ढंग से पाठकों के मन-मस्तिष्क को छू पाने तथा प्रभावित कर पाने में पूर्णतया समर्थ रही है। एक उदाहरण देखिए-
‘कोरोना’ के असली योद्धा विषय (९) के अंतर्गत जब पाठक यह पढ़ता है कि,-
“तमाम सुरक्षा कवच से लैस एम्स में अभी तक ४८९ से अधिक स्वास्थ्यकर्मी ‘कोरोना’ वायरस की चपेट मे आ गए हैं, जिनमें ३ की मौत डराने वाली है.. कमोबेश यही स्थिति पूरे देश की है, न तो ‘कोरोना’ वायरस का कहर थमता दिख रहा है, और न कोरोना योद्धाओं का साहस।” यह पढ़कर मन उस विचित्र समय की याद करके चिंतित हो जाता है। लेखक ने जीवन तथा समाज के हर रूप को चित्रित करने का सफल प्रयास किया है।
यहाॅं पर मैं बनार्ड शॉ के इस कथन को उद्धृत करना चाहूॅंगी-“विचारों के युद्ध में किताबें ही अस्त्र होती हैं।” इस पुस्तक को पढ़ते समय मुझे यह पंक्तियाँ एकदम सही प्रतीत हुईं। लगा कि, दहशत भरे उस समय को जब भविष्य में कोई पढ़ना चाहेगा तो मददगारों के विभिन्न रूपों से भी रूबरू होगा, मानवीय सरोकारों के नकारात्मक एवं सकारात्मक पक्षों को भी समझेगा तथा उनसे भविष्य को सुरक्षित करने का विलक्षण ढंग सीखेगा।
किताब भले ही महामारी से जुड़ी है, परन्तु उसमें सिमटे मनोभाव पीढ़ियों को प्रभावित करने की अक्षुण्ण क्षमता रखते हैं। पुस्तक पढ़ते समय मुझे अब्राहिम लिंकन की यह पंक्तियाॅं याद आ गईं-“मैं यही कहूॅंगा कि, वही मेरा सबसे अच्छा दोस्त है, जो मुझे ऐसी किताब दे जो आज तक मैंने न पढ़ी हो।”
इसमें महामारी के समय संपूर्ण विश्व के क्रमानुसार आँकड़ों का यथार्थवादी आकलन किया गया है। मानवीय चेतना को झकझोरने वाले अनुभवों के साथ संदेश देने वाले कुछ वाक्य मन से विलग नहीं होते हैं।
पुस्तक में पृष्ठ संख्या ४८ पर ‘कोविड हाहाकार..’ में लिखित पंक्तियाॅं पढ़कर मन उद्वेलन से भर गया-राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि कोविड-१९ महामारी के दौरान १ लाख से अधिक बच्चों ने अपने माता-पिता में से एक या दोनों को खो दिया है। न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने राज्यों से सक्रिय कदम उठाने को कहा। अदालत ने कहा, “उन बच्चों की पहचान करें, जिन्होंने दोनों या एक माता या पिता को खो दिया है, संकटग्रस्त बच्चों की जरूरतों का पता लगाने के लिए यह एक जरूरी प्रारंभिक बिंदु है।”
ऐसी तमाम बातें आम आदमी को पता ही नहीं हैं। पुस्तक पढ़कर यह भी स्पष्ट होता है कि, सरकार किसी भी समस्या से निपटने की तैयारी भी करती है तथा हर ओर अपनी पैनी नज़र रखती है। भविष्य में आम जनता- छात्र-छात्राओं के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी सिद्ध होगी, क्योंकि लेखक की खोजी दृष्टि से सरकार द्वारा किए कोई कार्य बच नहीं पाए हैं।
पुस्तक के अंत में सिख गुरुद्वारा कमेटी, अरदास केन्द्रों तथा छोटी- बड़ी व्यक्तिगत संस्थाओं द्वारा की गई मदद की चर्चा समाज के लिए बहुत उपयोगी है। मन यह सोचकर शांत हुआ कि, इंसानियत अभी जिंदा है और आगे भी ज़िदा रहेगी। समाज इतना बुरा नहीं हुआ है, जितनी बुराई होती है। मानव मानव की पीड़ा समझे तथा बाॅंटे, यह किसी भी समाज के उत्थान का संकेत है।
लेखक को धन्यवाद देना चाहूॅंगी कि, उनके सफल प्रयासों के कारण एक सार्थक पुस्तक हम सबके समक्ष है। यदि बात त्रुटियों की करें, तो मुझे पुस्तक में न तो कुछ अतिरिक्त लगा, न फर्जी लगा। वर्तनी का भी पूरा ध्यान रखा गया है। भविष्य में भी ऐसी पुस्तकें पढ़ने को मिलेंगी, ऐसा विश्वास है।
सफदर हाशमी की इन पंक्तियों के साथ विचारों को विराम देती हूॅं-
“किताबें करती हैं बातें
बीते ज़मानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की, कल की
एक-एक पल की
ख़ुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं।
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं॥”