कुल पृष्ठ दर्शन : 54

You are currently viewing सफलता हाथ लगते ही ठंडे बस्ते में डाल दिया हिंदी-उर्दू को

सफलता हाथ लगते ही ठंडे बस्ते में डाल दिया हिंदी-उर्दू को

प्रो. देवराज
इम्फाल
**********************************

हाल-ए-बंगाल…

कलकत्ता विवि के पूर्व प्रोफेसर डॉ. अमरनाथ ने पश्चिम बंगाल शासन द्वारा जारी डब्ल्यू बी.सी. एस. परीक्षा से हिंदी और उर्दू को बाहर निकाल कर, यह परीक्षा केवल बांग्ला और नेपाली भाषाओं में आयोजित करवाने संबंधी अधिसूचना का जो मुद्दा उठाया है, वह सभी भारतीय भाषाप्रेमियों को चिंतित करने वाला है। राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने चुनाव-रणनीति के तहत हिंदी और उर्दू को लेकर जो घोषणा की, उसे चुनावी सफलता हाथ लगते ही ठंडे बस्ते में डाल दिया, अथवा राज्य-शासन में कुछ ऐसे संकुचित दृष्टि के अधिकारी प्रभावशाली हैं, जो मुख्यमंत्री तक को हाशिए पर धकेल कर राज्य में अशांति पैदा करने में लगे हुए हैं, यह सोचने का विषय है। इस मुद्दे पर सांसद शत्रुघ्न सिन्हा के आश्चर्य में अनेक संकेत छिपे हुए हैं, जिन्हें समझा जाना चाहिए। अच्छा हो कि वे मात्र आश्चर्य ही प्रकट करके न रह जाएँ, बल्कि ममता बनर्जी को अपनी गलती सुधारने के लिए तैयार करने और भविष्य के लिए सावधान करने की ज़िम्मेदारी भी निभाएँ। बांग्ला और नेपाली के साथ हिंदी और उर्दू को उक्त परीक्षा सहित सभी प्रतियोगी परीक्षाओं का माध्यम बने रहना चाहिए।
यह बंगाल में ५७ लाख से अधिक हिंदी भाषियों एवं शेष २० लाख से अधिक उर्दू भाषियों के ही पक्ष में नहीं है, बल्कि इससे बंगाल राज्य के व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक हित भी जुड़े हुए हैं। बंगाल हमेशा से ही एक जातिय और धार्मिक समावेशी प्रांत माना जाता है। बांग्ला और हिंदी के बीच सदा ही गहरा अपनापन रहा है। बंगाल का हिंदी के इतिहास में अति महत्वपूर्ण स्थान है, तो बांग्ला साहित्य को अखिल भारतीय पहचान दिलाने में हिंदी की बड़ी भूमिका है। बंगाल और बंगाल के बाहर हिंदीभाषी समाज के हृदय में बांग्ला भाषा और साहित्य के प्रति अगाध स्नेह है। हिंदी-उर्दू भाषी समुदाय को भारतीय नागरिक के रूप में बंगाल में आजीविका के अवसर मिलते हैं, तो वह बंगाल के आर्थिक विकास में निर्णायक भूमिका भी निभाता है। यह उतना ही सच है, जितना बंगाल के बाहर भारत के अन्य प्रांतों में बंगाली समाज की भूमिका के बारे में है। पश्चिम बंगाल के शासन में बैठे अथवा वहाँ की राजनीति को प्रभावित करने वाले जो लोग इस सच को स्वीकार नहीं करना चाहते, वे न तो पूरे बंगाली समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं और न उसके वास्तविक हितों के रक्षक हैं। अगर मुख्यमंत्री ऐसे ही तत्वों के प्रभाव में निर्णय कर रही हैं, तो उन्हें सोचना चाहिए कि क्या राज्य की परीक्षाओं को हिंदी और उर्दू से काट कर बंगाल को सामाजिक और आर्थिक विकास के रास्ते पर बढ़ाया जाना संभव है ? क्या उनके अथवा उनके नाम पर मुट्ठी भर निहित स्वार्थ लोगों के भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करने वाले ऐसे निर्णय बंगाल के उस सामाजिक सौहार्द्र को पलीता नहीं लगाएँगे, जिसका उदाहरण देकर सब कहीं वैसा ही सामाजिक सौहार्द्र बनाए रखने की वकालत की जाती है ? अगर इस अविवेकपूर्ण निर्णय से सामाजिक अशांति पैदा होती है, तो क्या इसका प्रभाव बांग्ला-हिंदी-उर्दू समाज के साथ ही स्वयं ममता बनर्जी पर नहीं पड़ेगा ? ममता बनर्जी ने अपनी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर अन्याय के प्रतिरोध की प्रतीक के रूप में बनाई थी। क्या वे अपनी इस पहचान से पल्ला झाड़ कर भाषाई और सामाजिक विरोध-भाव के मार्ग पर चलना चाहती हैं ? आखिर भविष्य के बंगाल को वे किस रास्ते पर ले जाना चाहती हैं ? समस्त भाषा भाषियों, जाति-समूहों और वर्गों के सम्मिलित प्रयासों से आर्थिक और सामाजिक विकास के रास्ते पर अथवा भाषा के नाम पर भावनात्मक-कार्ड खेल कर सामाजिक-भाईचारे को हानि पहुँचाने वाले रास्ते पर ?
बंगाल के बाहर, भाषा-प्रेमियों के मन में ऐसे ही कुछ सवाल सीपीएम, भाजपा और छोटे-बड़े अन्य राजनीतिक दलों के संबंध में भी हैं। क्या वे बंगाल में हिंदी और उर्दू के प्रति वर्तमान राज्य-शासन द्वारा किए गए इस उपेक्षापूर्ण निर्णय को एक अवसर के रूप में लेकर अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने की नीति पर चलेंगे अथवा बंगाल के गौरवशाली सामाजिक सौहार्द्र की रक्षा करने वाले रास्ते पर कदम बढ़ाएँगे ? और, बंगाल के सामाजिक संगठनों से क्या कहा जाए! क्या उन्हें इस निर्णय को हिंदी-उर्दू भाषी समुदाय के आर्थिक हितों पर हमला भर मान कर चुप रहना चाहिए अथवा इसे समग्र बंगाल के समाज को प्रभावित करने वाला मान कर सक्रिय होना चाहिए?
मैं प्रो. अमरनाथ की सजगता और निर्भीकता के लिए उनकी प्रशंसा करता हूँ और बंगाल की मुख्यमंत्री से मांग करता हूँ कि वे अपने इस निर्णय को वापस लेकर दूरदर्शी होने का उदाहरण बनें।
एक मांग वैश्विक हिंदी सम्मेलन से भी है। वह यह कि हिंदी को बंगाल राज्य की आधिकारिक राज्य भाषा बनवाने के लिए एक सटीक कार्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए। क्या ही अच्छा हो कि प्रो. अमरनाथ ही इस योजना का नेतृत्व करें। मुझे आशा है कि इस विषय में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का रुख सकारात्मक ही रहेगा।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)