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अग्रसर भारत का बचपन आर्थिक कारणों से घायल

ललित गर्ग

दिल्ली
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देश की राजधानी दिल्ली में तमाम जांच एजेंसियों की नाक के नीचे नवजात बच्चों की खरीद-फरोख्त की मंडी चल रही थी। दिल्ली की ‘बच्चा मंडी’ के शर्मनाक एवं खौफनाक घटनाक्रम का पर्दाफाश होना, अमानवीयता एवं संवेदनहीनता की चरम पराकाष्ठा है, जिसने अनेक ज्वलंत सवालों को खड़ा किया है। आखिर मनुष्य क्यों बन रहा है इतना क्रूर, अनैतिक एवं अमानवीय ? सचमुच पैसे का नशा जब, जहां, जिसके भी सिर चढ़ता है, वह इंसान शैतान बन जाता है। न केवल दिल्ली वालों के लिए, बल्कि देशवासियों के लिए यह खबर चिंता पैदा करने वाली ही नहीं है, बल्कि खौफ पैदा करने वाली भी है।

दिल दहलाने देने वाली इस घटना में सीबीआई की अब तक की जांच से पता चला है कि आरोपी विज्ञापन के माध्यम से बच्चे गोद लेने के इच्छुक नि:संतान दंपतियों से जुड़ते थे। आरोपी कथित तौर पर वास्तविक माता-पिता के साथ-साथ सेरोगेट माताओं से भी नवजात बच्चे खरीदते थे। इन नवजात बच्चों को ४ से ६ लाख रुपए में बेच दिया जाता था। जांच से गिरफ्त में आए इस गिरोह के तार कहां-कहां हैं, इसकी भी कड़ियाँ जोड़ी जा रही है।
बच्चों की खरीद-फरोख्त और बच्चों की तस्करी एक ऐसी समस्या है, जिस पर तभी ध्यान जाता है जब कोई सनसनीखेज खबर सामने आती है।
अर्थ की अंधी दौड़ में इंसान कितनी क्रूर एवं अमानवीय घटनाओं को अंजाम देने लगा है कि, चेहरे ही नहीं चरित्र तक अपनी पहचान खोने लगे हैं। मानवीयता एवं नैतिकता की नींव कमजोर होने लगी है। आदमी इतना खुदगर्ज बन जाता है कि, उसकी सारी संवेदनाएं सूख जाती है। बाल तस्करी के खिलाफ कई सख्त कानूनी प्रावधानों के बावजूद भारत में यह समस्या नासूर बनती जा रही है। गिरोह के पर्दाफाश से फिर यह तथ्य उभरा है कि, बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करने वालों में कानून का कोई खौफ नहीं है। बच्चों की तस्करी पर भारी जुर्माने के साथ उम्रकैद तक का प्रावधान होने के बावजूद कड़वी हकीकत है कि, ऐसे १० फीसदी से भी कम मामले दोषियों को सजा तक पहुंच पाते हैं। मुकदमों की पैरवी सही तरीके से नहीं होने के कारण अपराधी बच निकलते हैं और वे फिर बाल तस्करी में लिप्त हो जाते हैं।
बाल तस्करी के अनेक कारण हैं। गरीबी, अशिक्षा, आर्थिक विषमता, सुविधावादी जीवन-शैली, भौतिकवाद, बच्चों की अधिक संख्या व बेरोजगारी भी बड़ा कारण है। पैसे की अपसंस्कृति ने अपराधों को अनियंत्रित किया है। पैसे कमाने के लिए कई लोग गरीब लोगों को बहकाकर और उनके बच्चों को काम दिलवाने का झांसा देकर शहर ले जाते हैं। फिर शहर में उन बच्चों को बेचा जाता है, फिर शुरू होता है बच्चों के शोषण का अंतहीन सिलसिला। लड़कियों को देह व्यापार के लिए विवश किया जाता है। इन सब कारणों से देश का बचपन कराह रहा है।
देश में युवाओं के एक वर्ग की सोच में बदलाव भी परोक्ष रूप से बाल-तस्करी को बढ़ावा दे रहा है। एक सर्वे में खुलासा हुआ था कि, भारत के ९ फीसदी युवा शादी तो करना चाहते हैं, लेकिन बच्चे नहीं पैदा करना चाहते। संतान सुख के लिए उन्हें बच्चे खरीदने से परहेज नहीं है। हैरत की बात यह है कि, देश के ढाई करोड़ से ज्यादा अनाथ बच्चों में से किसी को गोद लेने का विकल्प होने के बावजूद ऐसे युवा कई बार बाल तस्करी करने वालों से संपर्क तक साध लेते हैं।
यह केवल भारत की ही नहीं, दुनिया की बड़ी समस्या है। पिछले साल एक एनजीओ की रिपोर्ट में बताया गया था कि, २०१६ से २२ के बीच बाल तस्करी के सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए, जबकि आंध्र प्रदेश और बिहार क्रमशः दूसरे, तीसरे क्रम पर थे। इस अवधि में मध्यप्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल, ओडिशा व तेलंगाना में भी कई मामले दर्ज हुए। कोरोना काल के बाद दिल्ली में बाल तस्करी के मामलों में ६८ फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई।
पिछले साल संसद में पेश राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक देश में २०२१ में हर दिन औसतन ८ बच्चों की तस्करी हुई।
बचपन अगर बाल तस्करी के बीच फंसकर रह जाए तो बच्चा अपने बचपन, क्षमता और मानवीय गरिमा के साथ-साथ शारीरिक और मानसिक विकास से भी वंचित रह जाता है। बच्चों के घरेलू काम, विभिन्न क्षेत्रों में बाल श्रम, भीख मांगना, अंग तस्करी और व्यावसायिक यौनकर्म जैसी अवैध गतिविधियां बाल तस्करी की कोख से ही जन्म लेती हैं। सरकार और समाज को इससे मिलकर निपटना होगा। इस समस्या की जड़ में गरीबी भी है। इसे ध्यान में रखते हुए ऐसी व्यावहारिक और ठोस नीति बनाई जानी चाहिए कि, बाल तस्करी के समूल उन्मूलन की जमीन तैयार हो सके।
इसे देश की विडंबना कहें या दुर्भाग्य कि, आज बहुत से अजन्मे मासूम तो गर्भ में आते ही जीवन-मृत्यु से जूझने लगते हैं। जन्म लेने के बाद इस देश में बच्चों को बेच दिया जाता है या ऐसे बच्चों का एक बहुत बड़ा वर्ग चौराहों, रेलवे स्टेशन, गली-मोहल्ले में भीख मांगता मिल जाएगा। यों भी कह सकते हैं कि उनका जीवन आज अंधेरे में कट रहा है।
दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत का बचपन आर्थिक कारणों से घायल है। बच्चे को बेचे और खरीदे जाने में जितने लोग, जिस तरह शामिल होते थे, वह नए बनते भारत के भाल पर एक बदनुमा दाग हैं। क्यों कानून का डर ऐसे अपराधियों को नहीं होता ? क्यों सरकारी एजेंसियों की सख्ती भी काम नहीं आ रही है और लगातार ऐसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। प्रश्न कार्रवाई का नहीं है, प्रश्न है कि ऐसी विकृत एवं अमानवीय सोच क्यों पनप रही है ?