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अन्दर-अन्दर सब मरे पड़े

डॉ. कुमारी कुन्दन
पटना(बिहार)
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हमें गर्व है धर्म सनातन पर,
अफ़सोस कि उसको भूल रहे
पश्चिमी सभ्यता हुई है हावी,
अपने संस्कार दम तोड़ रहे।

अहंकार, अभिमान बढ़ा है,
मान-मर्यादा सब भूल रहे
सहनशक्ति सबने है खोई,
क्षमाशीलता से भी दूर रहे।

भूल गए अभिवादन करना,
बात बुजुर्गों की सुनना
बदले हैं लिबास, रिवाज भी,
भूल गए सब ढंग से जीना।

अंधे बनकर दौड़ रहे सब,
सपनों को जैसे पंख लगे
मंजिल चाहे मिल भी जाए,
लगते हैं फिर भी ठगे-ठगे।

बड़ी-बड़ी डिग्री की हासिल,
शिक्षा सबने बेशक पा ली
झांका अन्दर, मनन किया,
तो संस्कार से दामन खाली।

एकाकी परिवार है भाता,
माता-पिता को छोड़ रहे
मतलब के सब रिश्ते-नाते,
अपने संस्कार दम तोड़ रहे।

सुख में होते सब साथ-साथ,
दु:ख में अपना मुँह मोड़ रहे
दुनिया वाले अपने होकर,
अपनों का दिल तोड़ रहे।

काम, क्रोध, लालच में सारे,
लाज शर्म अब बची नहीं
धन-दौलत है सब पर भारी,
सच की कीमत रही नहीं।

बाहर से मुस्कान है दिखती,
अन्दर-अन्दर सब मरे पड़े।
अमृत से घट भरा है दिखता,
पर उसमें भी विष घुले पड़े॥