डॉ. रचना पांडे
भिलाई(छत्तीसगढ़)
***********************************************
जिस घर में मेरी किलकारियां गूंजती थी,
जिस छत के नीचे मैं खेली-बड़ी हुई
उसी आँगगन की यादें मुझमें बसती है
कमरे के कोने में शीशा-बिंदी अभी भी सजी हुई हैं।
अग्नि के सात फेरे से बिछड़ गई मैं,
बाबा जबसे तुमसे विदा हुई हूँ
तुम्हारी यादों के सहारे जिंदा हूँ,
आज भी मैं अपनी चमक तुम्हारी आँखों में देखती हूँ।
घमंड करती हूँ तुम्हारे दिए संस्कार पर,
इठलाती हूँ अपने पालन-पोषण पर
तुम्हारी दी रोशनी से जगमग है मेरा संसार,
अब समाज सजाती हूँ,परिवार दुलारती हूँ।
तुमने ही इस पंछी के पर लगाए,
उड़ना सिखाया
तुम्हारे लिए हौंसलों से नई उड़ान भर रही हूँ,
अब पूरा आसमां मेरा है जिसमें तुम भी रहते हो॥