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एक लम्हा आज भी…

संदीप धीमान 
चमोली (उत्तराखंड)
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एक लम्हा आज भी झंझोड़ देता है,
मेरी आँखों से पानी निचोड़ देता है।

प्रथम प्रसव पीड़ा का वो दृश्य,
धर्मपत्नी को दिल से जोड़ देता है।

था कारण उस पीड़ा का मैं ही,
मन मस्तिष्क ग्लानि छोड़ देता है।

सहनशक्ति से परे तड़प उसकी
अय्याश मुजरिम-सा बोध देता है।

बाप बनने की चाहत थी मेरी भी,
उससे पहले,कटघरे में छोड़ देता है।

थी मुस्कान संग आँसुओं के मेरी,
वो लम्हा आज भी झंझोड़ देता है।

समझ से परे है वो पसंद मेरी ही,
इस क़दर कौन अपनों को दर्द देता है!!

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