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काकी

ममता तिवारी ‘ममता’
जांजगीर-चाम्पा(छत्तीसगढ़)
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१८ वर्षीय मंदाकिनी, मंदाकिनी-सी ही छलकती, उछलती चारु चँचल चाँद-सी चमकती, ससुराल की ड्योढ़ी में आटे की चौक ऊपर रखे पाटे में पीली साड़ी, लाल चुनरी महावर मेहँदी सिर से पाँव तक चमकते गहनों से लदी, अंचरे में नारियल पैसे और अन्य सगुन समान रखे खड़ी है। बगल में उसके नाक से सिर पीछे तक सात तोले सिंदूर से मांग भर कर क्या, पीली सिंदूर में नहला कर लाया वैसा ही सुंदर सजीला वर खड़ा है। सामने मंगल कलश थाल और शुभ सुहाग गाती महिलाओं की भीड़, दोनों की बारी-बारी आरती कर नजरें उतार रही है। २ बच्चे महिलाओं के बीच घुस कर नीचे बैठ-बैठ कर लंबे घूँघट के भीतर वधू का मुख देखने का भरकस प्रयत्न, और आरती सगुन में विघ्न उत्पन्न कर रहे हैं। बच्चे की माँ झिड़कते हुए प्यार से बोली- ‘तुम्हारी यह काकी है, अभी चलो घर भीतर, बाद में दिन भर काकी के साथ बैठे रहना, और देखते रहना।
‘काकी…! ये हमारी काकी है अम्मा!’
‘हाँ, हाँ, काकी है, अब चलो यहाँ से…।’
बच्चे कूदते-नाचते भागे। काकी आई, काकी आई, हमारे बड़े काकू, काकी लाए हैं।
मेहमानों की विदाई घर को यथावत करने में १-२ दिन लग गए। आज नई वधू चौका शुरू करेगी। माधुरी बिट्टू बिट्टी को पुकारती है, चलो अब मंदाकिनी को कक्ष से बाहर निकालो, वो भोजन पकाएगी- आओ मंदाकिनी।
बच्चे चिल्लाते हैं, अम्मा यह तो ‘काकी’ है, ‘काकी’ बोलो,
बच्चों को समझाने में असमर्थ और हठ के आगे माधुरी कहती है ‘आओ काकी…।’
दादा-दादी बिट्टो को पुकारते हैं-‘जाओ देख कर आओ, मंदाकिनी से भोजन पका या बाकी है!’
‘नहीं दादा-दादी, वो काकी है। काकी बोलोगे, तब पूछेंगे।’
‘अरे बेटा, वो तुम्हारी काकी है हमारी बहू है।’
‘नहींईईईईईईई, काकी है’ कहते हुए नीचे लोट कर रोने- चिल्लाने लगा।
‘अरे, अरे हँ काकी है’, उठो।
समय सरकता रहा, और काकी सास-ससुर, जेठ- जेठानी, पड़ोसियों, बच्चों में मित्र के साथ मंदाकिनी को चिढ़ाने का मन होता, तो छोटे बड़े दोनों काकू की भी काकी हो जाती है, और काकी बहुत चिढ़ती है….।
अब तो ताऊ के बच्चों के साथ काकी के बच्चे भी काकी कहते हैं, भांजे-भांजी भी काकी कहते हैं।
छोटे काकू की भी अब तक काकी आ गई, पर वो सिर्फ दोनों बच्चों की काकी है, लेकिन काकी उसके बच्चों की भी ‘ताई’ नहीं ‘काकी’ ही है। काकी ने अपने लिए सम्बोधन में हर मुख से मात्र काकी ही सुना है।
समय के साथ बिट्टो-बिट्टी बड़े हो गए, ब्याहे गए, काकी के बच्चे भी ब्याहे गए। बिट्टो- बिट्टी के बच्चे और घर में सभी बच्चों के बच्चे माधुरी और नई काकी को ‘दादी’ और ‘काकी’ को ‘काकी’ कहते है।
समय दशकों आगे बढ़ चुका है, गाँव में कोई रहता नहीं, काकी के बच्चे भी शहर में रहते हैं। काकू-काकी को बुलाते हुए लोग परलोक गमन कर चुके हैं। काकी बीमार है, बच्चे गाँव जा कर काकी को शहर ले आए हैं बड़े अस्पताल में…।
‘माता जी क्या लिखें फॉर्म में…?’
‘काकी…।’
‘नाम पूछ रहे हैं।’
‘…काकी ही नाम है…।’
बच्चे बाकी बात सम्हालते हैं…।
नर्स तीमारदारी करती हुई कहती है-माता जी शरीर थोड़ा उठाइए, चादर बदलती हूँ।’
‘मैं माता जी नहीं, काकी हूँ।’
महीनों हो गए, वृद्धावस्था ऊपर से बीमारी, अस्पताल में काकी और ज्यादा कमजोर- बीमार होती जा रही है। काकी हॉस्पिटल स्टॉफ, चिकित्सक, नर्स हर किसी की ‘काकी’ हो गई है।
काकी को साँस लेने में कष्ट हो रहा है, परिजन, चिकित्सक और नर्स पास खड़े हैं। धीमी घुटी बहुत दम लगा कर अटक-अटक कर काकी कहती है,-
‘तुम्हारे पापा…बुला रहे हैं, मुझे अब जाना है, देखो काकी-काकी कह रहे हैं…।’
‘लेकिन काकी पापा तो…, काकी आपका नाम बताओ तो’, सिर सहलाते हुए बेटा पूछता है…
‘का…क…की….’ कहते हुए जगत काकी अंतिम सफर के लिए निकल गई।

परिचय–ममता तिवारी का जन्म १अक्टूबर १९६८ को हुआ है। वर्तमान में आप छत्तीसगढ़ स्थित बी.डी. महन्त उपनगर (जिला जांजगीर-चाम्पा)में निवासरत हैं। हिन्दी भाषा का ज्ञान रखने वाली श्रीमती तिवारी एम.ए. तक शिक्षित होकर समाज में जिलाध्यक्ष हैं। इनकी लेखन विधा-काव्य(कविता ,छंद,ग़ज़ल) है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित हैं। पुरस्कार की बात की जाए तो प्रांतीय समाज सम्मेलन में सम्मान,ऑनलाइन स्पर्धाओं में प्रशस्ति-पत्र आदि हासिल किए हैं। ममता तिवारी की लेखनी का उद्देश्य अपने समय का सदुपयोग और लेखन शौक को पूरा करना है।