रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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जीवन के इस लंबे सफर में,
कैसे-कैसे लोग मिले
जब स्कूल में गई मैं पढ़ने,
पेंसिल चुराते दोस्त मिले
झूठी बातों को लेकर,
शिकायत करते साथी मिले।
कैसे-कैसे…
सच जो कभी कहना चाहा,
आदर्श की बातें सुनाने को मिले
झगड़ा करना बुरी बात,
हरदम यही सीख मिले।
इसी सीख को जीवन का
ध्येय बनाकर मैं जो चली
पग-पग पर ठोकर मैंने खाई,
ऐसी ही प्रतिफल मुझे मिले।
कैसे-कैसे…
जब ज्यों बड़ी हुई मैं भी,
परिहास करती सहेली मिले
आधुनिक रंग में ढल न सकी तो,
हँसी उड़ाते सभी मिले।
कैसे-कैसे…
पार्टी-शार्टी से दूर रही तो,
बैक डेटेड पदवी मिले
प्रतिकार करना चाहा,
तो यही सीख घर से मिली-
यही औरत का है धर्म,
खोखले सब आदर्श मिले।
कैसे-कैसे…
दुल्हन बनकर जब गई,
ससुराल में जो जेठानी मिले
ईर्ष्या भाव इस कदर देखा,
कि सच्चा न कोई साथी मिले
शिकायत जो ज़रा पति से की,
उनसे ही फिर डाँट मिले।
कैसे-कैसे…
बड़ों को कुछ न कहो,
यही सीख बढ़-चढ़ कर मिले
अपना कोई वजूद न देखा,
न अपनी कोई पहचान मिले।
कैसे-कैसे…
अब सब कुछ अपने हाथों है,
फिर भी न वह अधिकार मिले
बेटे की शादी करा दी तो,
बहू के और ही ढंग मिले।
कैसे-कैसे…
अब तो इस बुढ़ापे में,
देख रही हूँ मै दुनिया
बेटा-बहू न कोई किसी का,
सब अपने-अपने ढंग चले
मैं ही नासमझ थी जो समझा,
हम परिवार के संग चले।
कैसे-कैसे…
किसी को न किसी की ख़बर है,
न कोई यहाँ संग चले
मतलब की दुनिया है प्यारे,
सभी यहाँ मतलब से चले।
कैसे-कैसे…
खोखले आदर्शों के पीछे,
भागती रही हूँ अब तक
अब समझ मुझको आया,
बुढ़ापा बहुत ही कष्टदायक
जीने का यही सलीका है,
‘गिरगिट’ की तरह रंग बदलो
ढोल की तरह शोर करो,
चैन से यदि जीना है तो
अपना हाथ मजबूत करो,
दबंग बन जाओ तुम जग जैसा
जीने का फलसफा ऐसा।
तभी तो मुझे ऐसे लोग मिले,
कैसे-कैसे लोग मिले…॥