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गले मिल गला काटने वाला नापाक चीनी मांझा…!

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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जिस पतंग को उमंगों का प्रतीक माना जाता रहा हो,आज उसी उन्मुक्त उड़ने वाली पतंग की डोर जानलेवा होती जा रही है। संक्रांति पर स्कूटी पर जा रही एक युवती की जान ऐसी ही एक पतंग के चीनी मांझे ने ले ली। उस बदनसीब की जिंदगी की पतंग उड़ने से पहले ही कट गई। जिसने भी सुना, कटती पतंग की तरह भीतर से दहल गया। हालांकि,चीनी मांझा बेचने वालों को सबक सिखाने की नीयत से प्रशासन ने उनकी दुकानें ढहा दीं, लेकिन इससे कोई खास फर्क शायद ही पड़े। चीनी मांझे की वजह से जानलेवा हादसे की यह घटना पहली नहीं है। पहले भी कई लोग चीनी डोर के इस अप्रत्याशित ‘हमले’ से लहूलुहान हो चुके हैं,या फिर गले की नस कटने से प्राण भी गंवा चुके हैं। पिछले साल चीनी मांझे की वजह से ३६ पक्षियों ने अपनी जान गंवा दीं। मजबूत चीनी मांझे में उलझे ये मूक प्राणी अपना दर्द किसी से कह भी नहीं सके। अब आलम यह है कि किसी जमाने में आकाश में उड़ती जिन रंग-बिरंगी पतंगों को देखकर मन भी रंगारंग हो जाता था,उसी पतंग को देखकर अब डर-सा लगने लगा है कि, कहीं उस पतंग की जालिम डोर आपके गले की फांस न बन जाए।
खुशनुमा पंतगों की दुनिया ‘खूनी’ बने बहुत ज्यादा वक्त नहीं हुआ। पहले भी कटी पतंग को लूटने के चक्कर में यदा-कदा हादसे हो जाया करते थे। लड़ाई झगड़े भी होते थे,लेकिन पतंग को बांधे रखने वाली डोर ही आपकी जिंदगी की डोर काट दे,ऐसा शायद ही सुना गया। चीनी माल के बहिष्कार के तमाम सतही दावे और राजनीतिक मुहिम के बाद भी आलम यह है कि भारत में चीन से निर्यात बढ़ता जा रहा है। यूँ भारत में कई जगह चीनी मांझा उसकी घातकता के कारण प्रतिबंधित है,लेकिन ये हर कहीं उपलब्ध है।
यहां सवाल यह कि ये चीनी मांझा है क्या ? जब कई राज्यों में इस पर प्रतिबंध है तो आ कहां से रहा है ? और यह भी कि जानलेवा होने के बावजूद पतंगबाजों में इसकी दीवानगी क्यों है ? हमारे देश में पतंगबाजी का इतिहास बहुत पुराना है। यूँ तो यह अरमानों को आकाश में उड़ाने का खेल है, लेकिन बात जब प्रतिस्पर्द्धा की आती है तो पतंग उड़ाने के साथ प्रतिस्पर्द्धी की पतंग काटना और फिर कटी पतंग को लूटना भी नाक का सवाल बन जाता है। कुछ साल पहले तक मांझे (डोर) के रूप में देशी मांझे का ही इस्तेमाल होता था। देश में पंतग उद्योग का प्रमुख केन्द्र उत्तर प्रदेश का बरेली है (यह बात अलग है कि फिल्म वालों ने उसेझुमके वाले शहर के रूप में ख्यात कर दिया है)। बरेली में बड़े पैमाने पर तरह-तरह की पतंगें बनती हैं,साथ ही इसका मांझा भी तैयार होता है। देसी मांझा सूत के धागे और सरस आदि से मलकर बनता है। ये मांझा अलग-अलग तार यानी कई धागों से मिलकर बनता है। सबसे मजबूत १२ तार का मांझा माना जाता है, लेकिन यह घातक नहीं होता।
९ साल पहले इस देश में दूसरे चीनी सामान की तरह चीनी मांझे ने भी दस्तक दी। चीनी मांझा
नायलाॅन का बना होता है और इसे ज्यादा मजबूती देने के लिए कांच की परत चढ़ाई जाती है। ऐसे में यह धागा बहुत मुश्किल से टूटता है और धारदार भी हो जाता है। पंतगबाजों में इसकी मांग इसलिए है कि,यह देशी मांझे की तुलना में बहुत सस्ता और कई गुना मजबूत है। पतंगबाजी की भाषा में कहें तो इस मांझे से पतंग कटना बहुत ही मुश्किल है। लिहाजा,चीनी मांझे में ‘अजेयता’ का आग्रह भी छुपा है,वो भी बेहद सस्ती कीमत में।
मानना है कि इस मांझे का नाम भले चीनी हो, लेकिन देश में बढ़ती मांग के चलते भारतीय कारीगर भी इसे यहीं बनाने लगे हैं। ऐसे में आयात न भी हो तो भी यह उपलब्ध है। इस बारे में मांझा बनाने वाला तर्क है कि यह उनकी रोजी का सवाल है। जो बिकेगा,वही तो बनाएंगे न।
चीनी मांझे से पतंग की अकड़ भले कायम रहती हो,लेकिन वो इंसानों और पक्षियों का गला बेरहमी से काट रहा है,इसमें शक नहीं। पंतगबाजी के खेल में दूसरी तरफ जो इंसान इस तरह उड़ती-गिरती पतंग की डोर का शिकार होता है,उसने सपने में भी
नहीं सोचा होता है कि कोई मांझा सरे राह उसके लिए मौत का फंदा बन जाएगा।
इस जानलेवा खतरनाक मांझे के खिलाफ आवाजें उठती रही हैं। यह मामला नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल में भी गया। ट्रिब्युनल ने २०१६ में अपने एक फैसले में चीनी मांझे पर पूरी तरह रोक लगाने तथा इसे बेचने या इस्तेमाल करने वालों को ५ साल की जेल
और १ लाख रू. जुर्माना करने का आदेश दिया
था,लेकिन पांच साल बाद भी ऐसा कोई कानून नहीं बन पाया है,और चीनी मांझा हमारे गले काटे जा रहा है।
दुनिया का सबसे बड़ा पतंग उत्सव चीन के शानदोंग प्रांत के वेईफेंग शहर में अप्रैल के महीने में होता है। वेईफेंग को दुनिया की ‘पतंग राजधानी’ माना जाता है,क्योंकि चीनी मानते हैं कि पतंग का
जन्म वेईफेंग में ही हुआ था। चीनी लोग बहुत
सुंदर और अनोखी पतंगें बनाने में माहिर हैं,इसमें शक नहीं। अलबत्ता भारत में ‘चीनी’ अपने-आपमें एक नकारात्मक मुहावरा बन गया है,जिसका भावार्थ,सस्ता,चलताऊ और घातक होने से भी है।
पतंगबाजी एक अनूठी कला,उन्मुक्तता का प्रतीक और मीठी मार-काट भी है,पर संक्रांति पर यही मीठी मार-काट गहरा दर्द दे गई है। अगर पतंगों को इसी तरह चीनी मांझे से उड़ान मिलती रही तो आगे हमें और कई हादसों का सामना करना पड़ सकता
है। वो मांझा,जो अपने में चाकू की धार और प्राणघातक वार की फितरत लिए हुए है,उस पर तो सख्ती से रोक लगनी ही चाहिए। कम से कम इस शेर की आबरू रखने के लिए तो लगनी ही चाहिए कि- ‘मुझे मालूम है उड़ती पतंगों की रिवायत,
गले मिलकर गला काटूं मैं वो मांझा तो नहीं।’

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