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घड़ियाली आँसुओं की वर्षा…

डॉ. रवि शर्मा ‘मधुप’
रानी बाग(दिल्ली)
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वर्षा फिर आ गई। हर साल आती है। हज़ारों सालों से आती है। कुछ को हँसाती है,तो कुछ को रुलाती है। वक्त-वक्त की बात है। २ साल पहले तक देश कृषि प्रधान था। वर्षा आती थी,साथ में खुशी लाती थी। खेत सोना उगलते थे। बारिश के ४ महीने यानी चौमासा। न कहीं आना,न कहीं जाना,न किसी से मिल-जुल पाना। नायक यदि परदेश में है,तो नायिका अपने घर में बैठी आहें भरती रहती। नायक भी वियोग में तड़पता रहता। इसीलिए गंधर्व ने मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रियतमा के पास भेजा। यह एक प्राचीनकालीन कथा है। आधुनिक काल में बारिश आती है। नायक-नायिका अपने-अपने घर में बैठे हैं,मगर फिर भी वियोग महसूस नहीं होता। मोबाइल ने प्रेमी-प्रेमिकाओं के बीच विरह-वियोग की संभावनाएँ ही समाप्त कर दी हैं,उनकी तड़पन-विरहाग्नि की भ्रूण हत्या कर दी है। अब तो श्रंगार रस का केवल संयोग पक्ष ही रह जाएगा,वियोग पक्ष तो रहेगा ही नहीं। जब भी प्रिय की याद सताए,मोबाइल उठाओ,तुरंत नम्बर मिलाओ,मन की सारी बातें बताओ। यदि प्रियतम-प्रियतमा फोन न उठाए,तो भी कोई बात नहीं,एसएमएस तो है। अब संदेश भेजने के लिए,मेघ या पवन को दूत बनाने की आवश्यकता नहीं है। मोबाइल दूत जो हाज़िर है हर समय सेवा में। यानि मोबाइल बाबा की कृपा से बारिश में ‘न रहे विरह,ना रचे विरह काव्य’।
यह तो था वर्षा का प्रेमीजन पर आधुनिक कालीन प्रभाव। वर्षा का यह प्रभाव हमारे देश में आज़ादी के बाद के सर्वाधिक चर्चित जीव अर्थात राजनेताओं पर भी खूब पड़ा। वर्षा में बादल पानी बरसाते हैं,हमारे देश में नेता,वायदे-आश्वासन बरसाते हैं। खासकर तब,जबकि कोई चुनाव निकट आने वाला हो। ५ साल से सोई सरकार एवं नेता,चुनावी वर्ष आते ही कुंभकर्णी नींद से सहसा जाग जाते हैं। अब वे अचानक वायदे आश्वासनों की झड़ी लगा देते हैं। प्रतिदिन शिलान्यास, उद्घाटन,लोकार्पण,सम्मान-समारोह और लोक-लुभावनी घोषणाओं की तो जैसे बाढ़ ही आ जाती है। टूटी सड़कों की मरम्मत होने लगती है। पार्कों में हरियाली छाने लगती है। नाले-नालियाँ अपने भाग्य पर इतराने लगते हैं। गलियों के भी दिन फिर जाते हैं। फाईलों में दबी पड़ी योजनाएँ अंगड़ाई लेकर उठने लगती है। ऐसा लगता है मानो विकास कार्यों का बादल फट पड़ा हो। ऐसे में आम आदमी के साथ-साथ गलियाँ,सड़कें,नाले-नालियाँ,पार्क,फाइलें भी मन-ही-मन प्रभु से कामना करने लगते हैं- ‘काश! चुनाव हर साल आएँ।‘
यह तो था चुनावी वर्ष में राजनेताओं द्वारा वर्षा के बादलों से सीख लेकर गरजना तथा बरसना। बाकी सालों में भी वर्षा के आगमन से राजनेताओं और उच्च अधिकारियों का हृदय-कमल खिल उठता है। दरअसल होता यूँ है कि सालाना बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च होने के लिए,वर्षा के रहम-ओ-करम पर टिका होता है। यदि वर्षा बिलकुल ना हुई,तो ‘सूखा राहत कोष’ और यदि खूब जमकर बरसी तो ‘बाढ़ राहत कोष।’
वर्षा आते ही एकाएक नालियों,गलियों की साफ-सफाई तथा मरम्मत का कार्य पूरी धूम-धाम से शुरू होता है। १०० का काम ५०० में करवाया जाता है और बजट का एक बड़ा हिस्सा ठिकाने लगाया जाता है। राजनेताओं और उच्च अधिकारियों के घर धन वर्षा होने लगती है। सालभर से पड़ा सूखा मिटने लगता है। इंजीनियर-ठेकेदार का मन-मयूर भी नाच उठता है। वर्षा आ जाती है। काम चलता रहता है। सड़कें समुद्र का और नालियाँ नदियों का रूप धारण कर लेती हैं। जगह-जगह जाम लग जाता है। लोग घंटों सड़कों पर अपनी कारों में बैठे मुँह बनाते रहते हैं,झुंझलाते रहते हैं,गुस्से में भुनभुनाते रहते हैं।
वर्षा आते ही सरकारी वन-विभाग की भी बाँछें खिल जाती हैं। उसकी बीसों अंगुलियाँ घी में तथा सिर कढ़ाई में। मंत्री महोदय वृक्षारोपण करते हुए तस्वीर खिंचवाते हैं। हँसते-मुस्कुराते हैं। मजेदार बात यह है कि अनेक वर्षों से वृक्षारोपण का स्थान एक ही है। मंत्री जी जैसे वर्षों से अपना चुनाव क्षेत्र नहीं बदलते,उसी प्रकार वृक्षारोपण का स्थान भी नहीं बदलते। हर साल लाखों पेड़ लगाए जाते हैं। उनके रख-रखाव पर भी लंबा-चौड़ा खर्च होता है। संबंधित अधिकारियों एवं कर्मचारियों के घर की हरियाली निरंतर बढ़ती रहती है। वे स्वयं भी सदा हरे-भरे तथा फूलते-फलते रहते हैं।
वर्षा का आना मलेरिया विभाग के लिए भी मानो सुख-समृद्धि का संदेश लेकर आता है। वर्षा के साथ-साथ मलेरिया,डेंगू जैसी घातक बीमारियाँ ‘मान न मान,मैं तेरा मेहमान’ की तर्ज पर खिंची चली आती हैं। इन बीमारियों की रोक-थाम के लिए मलेरिया उन्मूलन अभियान चलाया जाता है। घर घर जाकर कूलरों की जाँच करना,मच्छर-मार धुआँ छोड़ना,नालियों में मच्छर-मार तेल डालना,कुनैन की गोलियाँ बाँटना;न जाने कितने काम करने पड़ते हैं – बेचारे मलेरिया विभाग को। काम करेंगे तभी तो सरकारी पैसा खर्च होगा। सरकारी पैसा खर्च होगा, तभी तो खर्चे-पानी का जुगाड़ होगा।
राजनेताओं,उच्च अधिकारियों और अमीरों के लिए वर्षा मौज-मस्ती और सुख-समृद्धि का संदेश लाती है,तो दिहाड़ी मजदूरों,रेहड़ी,ठेले,पटरी पर सामान बेचने वालों, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों,सड़क किनारे खाना पकाने वालों तथा ऐसे ही लाखों बेघर-बदनसीबों के लिए वर्षा विनाश,विपत्ति, बर्बादी तथा भुखमरी का पैगाम लाती है। उनके घरों के चूल्हे की आग ठंडी हो जाती है। अरमान घुट-घुटकर दम तोड़ देते हैं। सपने चकनाचूर हो जाते हैं। सरकार उनके लिए राहत की घोषणाएँ करती है। ‘बाढ़ राहत कोष’ के नाम पर लोगों से पैसा, सामान आदि एकत्र किया जाता है। वायदे-आश्वासनों की मरहम लगाई जाती है। घड़ियाली आँसू बहाए जाते हैं। धीरे-धीरे वर्षा समाप्त हो जाती है। बाढ़ उतर जाती है। लोगों के आँसू सूख जाते हैं। वे फिर से जुट जाते हैं ज़िंदगी की गाड़ी को पटरी पर लाने में। तंत्र लंबी तान कर सो जाता है-अगली वर्षा आने तक।

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