कुल पृष्ठ दर्शन : 354

चातुर्मास है आत्मावलोकन पर्व

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
*****************************************************
बिना कारण के कोई कार्य उत्पन्न नहीं होता,कोई भी कार्य निरर्थक नहीं होताl बहुत पहले समाज विखरित थाl उस समय आवागमन के साधन शून्य,कच्चे मार्ग,बैलगाड़ी,घोड़ों की सवारी ही मुख्य साधन होते थेl अधिकतर निवास गांव में होते थेl व्यापार शून्य,खेती- किसानी से निवृत्ति और आवागमन का साधन न होने से जीवन अवरुद्ध- सा हो जाताl उस समय समय की उपयोगिता हेतु अधिकतर धार्मिक आयोजन किये जाते थे,जिससे समय के साथ जीवन की यथार्थता का दर्शन होता थाl हमें क्या करना चाहिए,और हम क्या कर रहे हैं,इससे जीवन की दशा और दिशा समझ में आती थी और हैं भीl
कच्ची सड़कें,हरियाली अधिक,वर्षा की आधिक्यता से और आवागमन सीमित होने से धार्मिक-सामाजिक आयोजन किये जाते थेl जीव हिंसा का डर,हरी साग-सब्जी में रोगों का संक्रमण होने से उसका भी त्याग और उस समय इतनी प्रकार की सब्जियां भी नहीं मिलती थी तो सादा भोजन,जीवन और उच्च विचार का परिपालन करते थेl
यह चातुर्मास सब समाज में और दर्शन में मनाते हैं और इस आयोजन का कुछ सार्थक उद्देश्य होता था और हैl इसमें मुख्यतः जीव हिंसा का बचाव और धार्मिक भावना का उदघाटन करना,इसके लिए कहीं भागवत गीता,रामायण आदि का परायण होता हैl इससे आत्म कल्याण की भावना बलवती होती हैl
जैन समाज में आज से पचास-साठ पहले जैन आचार्यों-मुनियों की इतनी अधिक संख्या नहीं रहती थी,और न सब जगह मुनि वर्ग पहुंच पाते थेl उस समय आर्थिक संघर्ष भी आज की अपेक्षा अधिक थाl उस समय आवागमन के साधन तैयार होने लगे थे,और समाज भी गांव से शहरों की ओर आने लगे-चाहे व्यापार के लिए,नौकरी के लिए या शिक्षा के लिए,या फिर विकास के लिएl
पचास-साठ साल पहले कुछ पंडित जी,कुछ विद्वान ही पर्यूषण पर्व में बुलाये जाते थेl उसी समय धरम का रसास्वादन मिल जाता थाl आचार्य श्री के प्रादुर्भाव से और उस समय अन्य आचार्यों के कारण अनेक मुनि-आचार्य,आर्यिकायें दीक्षित हुए और अब इस समय चातुर्मास स्थापना ने एक महोत्सव का रूप ले लिया हैl इतनी भव्यता होती है कि भव्यता में भी प्रतिस्पर्धा होने लगी है,यह शुभ लक्षण हैl इससे समाज में मुनि संघों,आचार्य संघों,आर्यिका संघों और ऐलक,क्षुल्लक ,ब्रह्मचारी आदि के माध्यम से ज्ञान की अमृत वर्षा होती है,और प्रभावना का बोध होता हैl
आजकल उच्च श्रेणी के श्रावक-श्राविका होते जा रहे हैंl वर्तमान में आचार्यों के कारण उनके शिष्य भी बेजोड़ ज्ञानी,ध्यानी ज्ञाता हो गए हैंl उन्होंने लगातार अध्ययन कर अपने-आपमें श्रेष्ठता हासिल की हैl उनकी प्रभावना हमारे ऊपर अधिक क्यों पड़ती है ? उसका कारण उनकी त्याग,तपस्या,साधना,विवेक,ज्ञान और उनके द्वारा कुछ समाज,देश के कल्याण के हित की बात करना हैl वे मात्र स्व पर कल्याण में रत होते हुए समाज को बहुत देते हैंl संसार की अनित्य दशा से छूटकर आत्मिक कल्याण में लगे हैंl आचार्य-मुनि-श्राविका समाज से आहार लेते हैं,जिसके कारण आहारदाता अपने को बड़ा भाग्यशाली मानता हैl बड़े पुण्य से मुनि-महाराज आदि जिससे आहार लेते हैं,उसके उत्साह का ठिकाना दाता को होता हैl उसके बदले आचार्य-मुनि-आर्यिकायें स्वकल्याण-आत्मसाधना करती-करते हैं और समाज को ज्ञान दान ,चरित्र निर्माण में सहयोग देती हैं,प्रेरणा देती हैं,तथा प्रेरक बनते हैंl
आज-कल साधन,सुविधाएं,व्यापार,नौकरी के कारण सम्पन्नता आने से समय की कमी होती जा रही हैl हम कम वक़्त (कमबख्त) वाले होते जा रहे हैंl वर्तमान में आर्थिक,भौतिक चकाचौंध के कारण और बहुत सुशिक्षित होने के कारण विदेशों में जाना सामान्य होता जा रहा हैl महानगरों में भी व्यापार-नौकरी के कारण जाने से आहार-भोजन की जो रात्रिकालीन त्याग की परम्परा थी,वह पूर्णत: समाप्त हो गयी हैl अब अंतरजातीय विवाह या प्रेम विवाह होने के कारण वे लोग समाज से जुड़ना नहीं चाहते,और धनवान लोग अपने अपने द्वीप में रहकर पूर्ण स्वच्छंदता से रहकर पर उपदेश देते हैंl
नगर निगम अशुद्ध पानी प्रदाय करती है,पर हम अपना लोटे का पानी छान कर साफ़ रखते हैंl वैसे धरम व्यक्तिप्रधान होता है,तथा भाव प्रधान हैl भावना से ही बड़े या छोटे होते हैंl हम समाज सुधारक नहीं हैंl समाज को सुधारना बहुत कठिन है,जब वह सम्पन्न,शिक्षित हो और उसमें समाज का कोई नियंत्रण न होl कारण कि समाज इतना फैला है कि कौन-कहाँ क्या कर रहा है,किसी को नहीं मालूमl पहले विजातीय शादी या नियम विरुद्ध कृत्य करते थे,तो उन्हें समाज से बहिष्कृत किया जाता थाl अब उन्हें ही श्रेष्ठीजन के रूप में मान्यता मिलती हैl आजकल अनैतिक ढंग से आय होने या करने के कारण समाज में सब सामान्य होता जा रहा हैl इससे उनके चरित्र का प्रभाव समाज पर नहीं पड़ता क्या ?
हमारे लिए यह बहुत शुभ घड़ी है कि इस समय चातुर्मास स्थापना से बहुसंख्य समाज मुनि,आचार्य,आर्यिकाओं आदि की उपस्थिति से लाभान्वित होंl उन्हें भी साधना करने का अनुकूल स्थान मिलेगा और अज्ञानी,अबोध,धरम से दूर रहने वालों को जुड़ने और ज्ञान से वे भी अपना कल्याण कर सकेंगेl कल्याण न हो तो कोई बात नहीं, सदमार्ग पर चलना सीख जाएं,यही सच्चा चातुर्मास होगाl वास्तव में यह पर्व अपने सहित पर कल्याण और आत्मावलोकन का हैl

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

Leave a Reply