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जमीन

डोली शाह
हैलाकंदी (असम)
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गंगा प्रसाद बचपन से ही एक रईस दबंग खानदान से ताल्लुक रखता था। वह पुरखों की बनाई हुई चाय बागान की ही थोड़ी बहुत देखभाल करता और इधर-उधर करके अपना जीवन व्यतीत करता। वह कम पैसों में ही बंजर पड़ी जमीन को जरूरतमंदों को समझा देता, लेकिन कहा जाता है कि ‘बिना कुछ किए तो सोने की खदान भी खाली हो जाती है’ वैसा ही हुआ। उसका बेटा लक्ष्मी लाल भी उन्हीं के नक्शे-कदम पर चलता रहा। सोचता किसी न किसी तरह आखिर पेट तो भर ही जाएगा। देखते-देखते परिवार बढ़ा और लोगों की जरूरत भी। अब बच्चों की पढ़ाई, घर की जरूरतें, राशन- पानी, सारी आवश्यकताओं को पूरा करना संभव नहीं हो पाता। तभी उसने एक छोटी सी पंक्ति खोली, लेकिन वहाँ भी खरीददार से ज्यादा टाइम पास करने वालों का ही तांता लगा रहता। एक दिन बेटा टिंकू अपने दोस्तों के साथ चाय बागान पहुंचा। चलते-चलते वह बागान के अंतिम छोर तक पहुंचने ही वाला था कि, टिंकू ने कहा-‘यार! मैं तो थक गया और चलना मेरे बस में नहीं!’

अन्य दोस्त ने कहा-‘इतनी जल्दी!’
‘हाँ’
‘फिर तो यदि पूरा बागान होता, तो कभी जा ही ना पाते।’
‘क्या ?’
‘हाँ, वह तो लोगों के बसने के कारण जगह इतनी छोटी हो गई है। यह सारी जो दाढ़ी वालों की बस्ती है, पहले लक्ष्मी अंकल की ही ज़मीन थी।’
‘सचमुच।’
‘हाँ, कभी अपने पापा से पूछ कर देखना, पहले जितनी जमीन अभी होती तो तुम लोगों को शायद पैसे रखने की भी जगह ना होती। वह तो दूसरों को देने के कारण खेती की जमीन छोटी हो गई और उर्वरता कम होकर दिन- प्रतिदिन फसलें भी कम होती जा रही हैं।’
टिंकू ने घर पहुंचते ही पूछा,-‘पापा हमारे बागान के उत्तर की तरफ जो मकान है, क्या वह हमारी जमीन थी ?’
‘हाँ बेटा, तुम्हारे दादाजी बहुत दयालु थे, जब भी कोई उनसे अपना दुखड़ा कहता, वह उसे सही मान लेते और ऐसा करके ही उन्होंने पूरी जमीन का आधा हिस्सा औरों में ही बांट दिया है।’
‘पापा, फिर आपने कुछ कभी कहा नहीं ?’
‘क्या कहूं उन दाढ़ी वालों को ? किसी से कहने भी जाओ तो कहते हैं हमें गंगा प्रसाद जी ने दिया है।’
‘तो क्या उन्होंने कागजी दस्तावेजों पर भी अपना हाथ साध लिया है ?’
‘हाँ,अपनी तरफ से उन्होंने थोड़ा-बहुत जुगाड़ तो कर ही लिया है।’
इतने में एक कर्मचारी पूरे दिन का हिसाब-किताब लेकर लक्ष्मी लाल जी के पास पहुंचा। बातों-ही-बातों में उसने बताया, ‘इरफान के घर के आगे २-३ दिनों से एक पक्के मकान की नींव दी जा रही है। आज पूछा तो पता चला कि, वहां एक मस्जिद के निर्माण की तैयारी चल रही है।’
‘क्या ?’
‘हाँ साहब’।
‘उनकी मंशा तो बढ़ती ही जा रही है। इन्हें रोकना होगा लेकिन ठंडे दिमाग से! वह सैकड़ों वर्षों से रहते हैं, मैंने कुछ नहीं कहा, लेकिन आज उन्हें रोकना होगा।’
अगले दिन प्रातःकाल लक्ष्मी लाल वहां पहुंचा।
‘अरे! साहब, आप अचानक यहाँ कैसे!’
‘नहीं, बस यूँ ही, बहुत दिन हो गए थे तो देखने आ गए।’
‘लेकिन इरफान तुम यह यहाँ क्या बनवा रहे हो ? पहले कच्चे मकान की जगह पक्के मकान तक तो कोई बात नहीं, लेकिन अब हम किसी धर्म स्थान की इजाजत नहीं देंगे।’
‘क्यों ? यह हमारी जमीन है, हम चाहे जो भी करें।’
‘इरफान, यह तुम भी बखूबी जानते हो और मैं भी…, देखो मैं कोई झगड़ा-झंझट नहीं चाहता, लेकिन मैं यहाँ कोई साम्प्रदायिक भवन बनने नहीं दूंगा! ना कोई मंदिर, ना कोई मस्जिद, चाहे कुछ भी हो जाए।’
‘लेकिन क्यों ?’
‘किसी और की जमीन पर रहने से वह अपनी नहीं हो जाती।’
‘देखते हैं, हमें कौन रोकता है बनवाने से…?’ इरफान ने गुस्से में लाल -पीला होकर कहा।
टिंकू ने जाकर पुलिस में प्रकरण दर्ज करा दिया, जिससे मामला काफी गंभीर हो गया। नामौजदूगी की वजह से प्रकरण न्यायालय तक पहुंच गया। तारीख-पर- तारीख करते-करते काफी वक्त गुजर गया।
पिता की उम्र देख अब टिंकू ही हर दिन पढ़ाई से बचे समय में चाय बागान देखने जाता। इरफान की बेटी फराह भी इस बागान में पत्ती तोड़ने आती। उसका पतला, लंबा, छरहरा बदन, रूप-रंग मानो देखते ही बनता था। टिंकू भी उसे बड़े ध्यान से देखता। वह उससे बातें करने का प्रयास भी करता, लेकिन वक्त ने कभी साथ नहीं दिया। एक तरफ मालिक, तो दूसरी तरफ कर्मचारी…!
एक दिन टिंकू कर्मचारियों को वेतन दे ही रहा था कि, फराह कुछ देर से पहुंची। टिंकू ने मौका देख उससे पूछा,-‘आज इतनी देर से तुम ?’
‘हाँ, घर का कुछ काम करने लगी थी।’
‘कोई बात नहीं…।’
पूरे दफ्तर में सन्नाटा हो चुका था।
‘इस सप्ताह कितने दिन काम किया था ?’
‘पूरे ६ दिन साहब।’
‘लेकिन फराह, तुम्हें थोड़ा इंतजार करना होगा।’
‘क्यों साहब ?’
‘मैंने भांगीलाल को छुट्टे लाने भेजा है। आता ही होगा!’
फराह की चुप्पी देख वह खुद को रोक नहीं पाया। बोला,- ‘क्या बात है ? इतनी चुप्पी!
कुछ तो बोलो, अकेले हैं हम…।’
‘क्या बोलूं ?’
‘कितनी पढ़ाई की है तुमने ?’
‘दसवीं तक, फिर छोड़ दिया।पढ़ने का मन नहीं करता साहब!’
‘तुम चाय बागान में काम मत किया करो!’
‘क्यों ?’
‘ऐसे ही।’
‘अच्छा नहीं लगता तुम्हें काम करते देखकर…।’
‘लेकिन साहब, केवल अब्बू की कमाई से भोजन-पानी, पढ़ाई का खर्च चलाना मुश्किल हो जाता है, जिससे मुझे भी काम करना पड़ता है।’
टिंकू उसे टकटकी लगाए देखता रहा। फराह नजर झुकाए बैठी थी।
‘लेकिन क्यों ?, १२वीं तक की पढ़ाई के सारे खर्चे तो सरकार मुफ्त ही दे रही है। सिर्फ विद्यार्थियों का मन होना चाहिए। …तुम कहो तो अब्बू से बात करूं ?’
‘करिए…, लेकिन लगता नहीं कि अब्बू मानेंगे !’
इतने में भांगीलाल छुट्टे लेकर पहुंचा। टिंकू ने फराह को १२०० ₹ थमाए। मन ना होते हुए भी उसे जाना पड़ा। टिंकू मन ही मन चिंतित हुआ कि, कुछ दिन पहले ही झगड़ा और फिर मैं यह सब क्या सोच रहा हूँ ! कैसे बोलूंगा ?’
फिर एक दिन वह कुछ दोस्तों के साथ फराह के घर पहुंचा। अब्बू अवाक होकर बोले,-‘अब यहाँ तुम! क्यों आए हो ?’
‘यूँ ही बस। चाचा जी, केरल सरकार ने चाय जनजाति की बालिकाओं को नई योजना में १२वीं तक की शिक्षा के लिए बिल्कुल मुफ्त शिक्षा नीति प्रारंभ की है। यहाँ तक कि रहने-खाने की सुविधा भी उपलब्ध कराई जाएगी और यदि अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुए तो मुफ्त स्कूटी तक प्रदान की जाएगी। सचमुच यदि हमारे गाँव की लड़कियों को स्कूटी की सुविधा मिल गई तो कितना गौरव बढ़ेगा।’
‘फराह ने तो दसवीं तक पढ़ाई कर छोड़ ही दी।’
‘अब भी कुछ देर नहीं हुई, मन हो तो वह पढ़ सकती है।’
‘हाँ, बात तो तुम सही कह रहे हों। पता करके योजना की सारी जानकारी मुझे दो।’
‘जी जरूर।’
इसके बाद उसने उसका ११वीं में दाखिला भी करा दिया। अब टिंकू रोज प्रातः चाय बागान से होकर ही महाविद्यालय जाता, जिससे दोनों को एक-दूसरे की आदत -सी पड़ गई।
इधर, अदालत में कार्रवाई के लिए तारीख पर तारीख। उधर, दोनों के बीच रिश्ते को आगे बढ़ाने का वादा। अब टिंकू को इमरान के खिलाफ न्यायालय में गवाही केलिए खड़े होने में बड़ा अटपटा-सा लगता। तभी एक दिन बातों ही बातों में फराह ने टिंकू से कहा,-‘हमारे गाँव में ऐसी कोई जगह नहीं, जहाँ थोड़ी देर अकेले बैठकर समय व्यतीत किया जा सके।’
‘अरे! फराह, समय है किसके पास!’
‘फिर भी, मन तो होता है , कभी कुछ वक्त अपने साथ, प्रकृति के साथ बिताने का।’
‘है तो अपना चाय बागान।’
‘अरे दोस्त, वहाँ भी तो हर समय कर्मचारी ही रहते हैं।’
बात तो तुम्हारी सही ही है।’
टिंकू मन ही मन सोचता रहा। इतने में फराह बोली-‘क्यों ना हमारे अब्बू ने जहाँ मस्जिद के लिए निर्माण कार्य शुरू किया था, वहीं उनकी गुजारिश से एक ओर बगीचे (पार्क) का निर्माण कराया जाए।’
‘हाँ, सचमुच।’
‘लेकिन टिंकू, इस बात को तुम पहले अब्बू को बोलना!’
टिंकू ने अगले दिन ही इरफान के पास जाकर अपनी इच्छा प्रकट की,-‘चाचा जी, अब बाबूजी अक्सर अस्वस्थ ही रहते हैं और अकेले मुझसे प्रकरण-फौजदारी होगा नहीं।’
‘तो क्या कहना चाहते हो ?’
‘चाचा जी, क्यों ना हम उसी जमीन पर एक छोटे से बगीचे का निर्माण कराएं, जिससे कुछ देर तो इंसान प्रकृति के बीच रह सके, अपने-आपसे बातें कर सके; और जगह जमीन लेकर क्या लड़ना- झगड़ना ! सबको तो खाली हाथ ही जाना होगा।’
इतने में फराह चाय लेकर पहुंची- ‘अब्बू चाय।’
चाय पीकर उठते हुए टिंकू ने कहा,-‘चाचा जी मैं चलता हूँ, लेकिन मेरी बातों पर विचार जरूर कीजिएगा, क्योंकि गाँव में यदि एक बगीचा हो जाए तो पूरे गाँव का विकास भी होगा।’
यह बात ज्यों ही इरफ़ान ने घर पर बताई, फराह फौरन बोली, -‘अब्बू यह बहुत अच्छा विचार है, बगीचा होगा तो बाहर से लोगों का आना-जाना भी होगा। संस्कृति का आदान-प्रदान भी होगा। अब्बू ना मत करो! प्लीज। यह तो सुनहरा अवसर है अब्बू अपनी स्मृति बनाने के लिए…। सोचिए ना, मस्जिद बनती तो सिर्फ वहाँ हमारे ही धर्म के लोग आते, लेकिन बगीचे में तो हर धर्म-समुदाय के लोग आएंगे। सबके बीच आपकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी।’
इरफान बेटी की बातों को ना नहीं कर सका। बोला,- अच्छा तुम लोगों की मर्जी…।’
फराह ने फौरन यह सूचना टिंकू को दी, तो टिंकू ने भी अपने घर पर सारी बातें बताई।
अगले दिन ही प्रातः काल बागान पहुंच टिंकू ने पूछा, ‘इरफान साहब! क्या सोचा मेरी बातों पर ?’
‘चलो ठीक है, लेकिन मैंने तो मस्जिद के लिए इस जमीन पर एनओसी ली थी। अब अदालत की कागजी कार्रवाई सिर्फ तुम्हें ही करनी होगी।’
‘आप हाँ तो कीजिए, बाकी सब हम देख लेंगे।’
‘लेकिन एक शर्त है, क्या इसमें मेरा भी नाम रहेगा!’
‘अच्छा चलिए, वह भी मान ली।’ टिंकू हँस कर वहाँ से चल दिया। वह घर आकर ही फौरन महाविद्यालय पहुंचा। फराह से मिलकर बोला,- ‘हमारी मेहनत रंग ले आई…। तुम्हारे अब्बू ने मुझे बगीचे के लिए कागजी कार्रवाई तैयार करने को बोला है।’
यह सुन दोनों के चेहरे पर सांत्वना की खुशी की एक लहर दौड़ गई।
‘सचमुच कभी सोचा नहीं था कि, अब्बू मान जाएंगे। इसलिए, तो कहा जाता है ‘प्रयास ही सफलता की पूंजी है। सच्ची अब हमारे रिश्ते भी प्रयास की बदौलत ही सफल होंगे।’
‘हाँ।’…इतना कह के दोनों जोर से हँस पड़े।