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नई शिक्षा नीति:नए पंख,नया आसमान

मंजू भारद्वाज
हैदराबाद(तेलंगाना)
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भारतवर्ष का पौराणिक इतिहास इतना गौरवपूर्ण रहा है कि इसके जिस क्षेत्र की चर्चा की जाए,वही दुनिया में सर्वश्रेष्ठ और उत्कृष्ट व्यवस्था मानी जाती रही है । जो इतिहास का सत्य भी है। भारतवर्ष में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था १९७८ तक भारत वर्ष में शिक्षा का बहुत ही सीमित दायरा था- सिविल, मैकेनिक,इलेक्ट्रिकल,मैकेनिकल और इलेक्ट्रोनिकल। भारतवर्ष बहुत दिनों तक अंग्रेजों का गुलाम था और यहां मैकाले की शिक्षा पद्धति पर ही देश में शिक्षा का प्रसार किया गया था। मैकाले ने कहा था ” एक यूरोपियन देश की किसी पुस्तकालय की एक आलमारी में जितनी जानकारी है । उतना यदि पूरे भारत की जानकारी को इकट्ठा कर लिया जाए तो वह बराबर नहीं होगी।” मैकाले ने एक सिद्धांत दिया,इसका नाम अधोगामी समीकरण है। मैकाले की इस युक्ति से तथा उसके पूरे प्रतिवेदन के परायण से यह स्पष्ट होता है कि जिस मैकाले को अंग्रेजी हुकूमत ने सर्वश्रेष्ठ शिक्षाविद कहा और भारतवर्ष में अंग्रेजों की शिक्षा नीति को लागू करने का प्रमुख नियुक्त किया था,वह कितना अल्पज्ञ था और भारत की शिक्षा व्यवस्था से कितना अनजान था। उस वक्त भारत वर्ष में ४५ से ५० विषयों की पढ़ाई होती थी।
अग्नि विद्या (धातुकर्म),वायु विद्या (पवन),जल विद्या (जल),अंतरिक्ष विद्या (अंतरिक्ष विज्ञान),पृथ्वी विद्या (पर्यावरण),सूर्य विद्या (सौर अध्ययन),चंद्र और लोक विद्या (चंद्र अध्ययन),मेघ विद्या (मौसम पूर्वानुमान) एवं धातु ऊर्जा विद्या (बैटरी ऊर्जा)एवं दिन और रात विद्या,सृष्टि,वन विद्या (वानिकी) एवं सहयोगी आदि हैं।
अंग्रेजों के भारतवर्ष में आने के पूर्व इस देश के विद्यालयों में जितने विषयों की पढ़ाई होती थी,उतने की जानकारी अंग्रेज को तो क्या दुनिया के किसी देश को नहीं थी मगर अंग्रेजी हुकूमत आने के साथ ही भारत वर्ष के हजारों हजार विद्यालय समाप्त कर दिए गए। उसके साथ ही इन तमाम विधाओं की पढ़ाई भी समाप्त हो गई। अंग्रेजों को चाहिए था भारतवर्ष का खनिज पदार्थ,यहां के मजदूर, नौजवान सैनिक और उनके दफ्तर में काम करने वाले किरानी। अंग्रेजी हुकूमत ने नहीं चाहा था कि भारत में उच्च शिक्षा की व्यवस्था की जाए। भारत की संस्कृति और इतिहास की रक्षा की जाए। असल में विजयी राष्ट्र चाहता है कि विजित राष्ट्र का इतिहास,उसका साहित्य समाप्त कर दिया जाए। उसका स्वाबलंबी जीवन मटियामेट कर दिया जाए,शिक्षा पद्धति समाप्त कर दी जाए। अंग्रेजों ने विश्व विख्यात नालंदा विश्वविद्यालय में आग लगा दी,जो आज भी भारत के इतिहास के आँसू है। भारत वर्ष १९४७ में आजाद हुआ। महात्मा गांधी ने मैकाले शिक्षा पद्धति की जगह बुनियादी शिक्षा पद्धति का प्रस्ताव आजाद भारत सरकार के समक्ष रखा,मगर सरकार ने गांधी की शिक्षा नीति को लागू ही नहीं किया और उसी पुरानी नीति को कायम रखा,जिस शिक्षा नीति के तहत अंग्रेजों ने भारत वर्ष को गुलाम बनाए रखा था। आजादी के बाद समय-समय पर नई शिक्षा नीति की घोषणा हुई। भारत सरकार द्वारा २९ जुलाई २०२० को जिस नई शिक्षा नीति की घोषणा की गई। वह अपने-आप में अनमोल है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति २०२० के तहत वर्ष २०३० तक सकल नामांकन अनुपात को १०० प्रतिशत लाने का लक्ष्य रखा गया। शिक्षा के प्रति इस नए दृष्टिकोण को समाविष्ट किया गया। इस नई शिक्षा पद्धति में बाल चित्रण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई तथा बाल शिक्षा को सहज सार्थक बनाने का आयोजन किया गया। यही तो शिक्षा की नींव है। सहज शिक्षा का अर्थ होता है जिसके लिए विशेष शिक्षण की आवश्यकता नहीं है,जैसे बंदर का बच्चा पैदा होने पर अपने माता-पिता की तरह पेड़ पर स्वयं चढ़ जाता है। जैसे मछली का बच्चा बिना सिखाए पानी में तैरने लगता है। यह गुण और सामर्थ वह सहज रूप में अपने माता-पिता से ग्रहण कर लेता है। इसलिए कहा जाता है बच्चों की प्रथम पाठशाला माँ की गोद है। बच्चों के पैदा होते ही माता-पिता को अपने बच्चों को समर्थ और समझदार बनाने के लिए जो जरूरी कदम है उठाने होंगे। नई शिक्षा नीति में बच्चों के बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम तैयार किया गया है। पहले के पाठ्यक्रम में लिखने पढ़ने की सामग्री थी परीक्षा उत्तीर्ण करने का दायित्व था। बच्चे इस बोझ से हिचकिचाते थे। सरकार ने नई नीति में ५+३+३+४ की पद्धति निकाली है। इसके अनुसार बच्चों के अंदर पढ़ाई के प्रति जो कुंठा पैदा हो गई है,वो दूर हो सके। बचपन में बच्चों के हाथों कलम-कागज पेन की जगह उनके हाथों में मनमाना खेल खेलने के साधन होंगे। शाला में मिट्टी के घर बनाए या कागज की नाव या लकड़ी के पुल बनाए या रेत की इमारत वह अपनी कल्पनाओं को मन चाहा आकार दें। जो मन है वह करें और उनके भीतर की रचनात्मक प्रवृत्तियों को पर्याप्त अवसर दिया जाए,ताकि उनके अंदर स्वाबलंबन की भावना पैदा हो-मैंने यह रचना की है,मैंने इसका निर्माण किया है। उन पर किसी तरह के जोर जबरदस्ती नहीं होगी जिससे उन्हें शिक्षा के प्रति एक लगाव,एक प्रेम पैदा होगा। शिक्षा के प्रति अपनापन का भाव बढ़ेगा। बच्चों के साथ खेलकूद में सम्मिलित होकर पढ़ाई होगी और बच्चों को पता ही नहीं चलेगा कि कब उन्हें शिक्षा से प्यार हो जाएगा। उसके ऊपर परीक्षा का कोई प्रतिबंध नहीं होगा। ५ वर्षों तक बच्चों की नींव मजबूत की जाएगी। उनके व्यक्तित्व की इमारत को मजबूती प्रदान करने के लिए संस्कार की ईंट-गारे की जरूरत पड़ेगी। यहां से ही उज्जवल भारत की कल्पना साकार करने की पहल शुरू होगी। वक्त के दरमियान पाठशाला के कई रूप रंग बदले,उनके समीकरण बदले,उनकी रुपरेखा बदली, उनकी शैली बदली,और जो नहीं बदला वह है ज्ञान की महत्ता। हर युग में ज्ञान की महत्ता थी और रहेगी पर नए दौर में २ साल के मासूम पर भी शिक्षा का दबाव डालकर हम अनजाने में ही उनसे उनका शिक्षा का दबाव डालकर हम अनजाने में ही उनसे उनका बचपन छीन कर उनके नन्हें से मस्तिष्क को कुंठित कर रहे हैं। आज शिक्षा पद्धति में हुए सुधार से आशा की एक नई किरण जगी है। बच्चों के मासूम बचपन को संवारने और उन्हें निखारने की उनमें लगन जगाने का यह प्रयास बहुत ही सराहनीय है।
यह बहुत बड़ी समस्या है शालेय पाठ्यक्रम अधिकांशत राज्यों की चिंता का विषय बना हुआ है। क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी भाषा के बीच की कशमकश में मातृभाषा हिंदी को व्यापक रूप प्रदान करना भी एक बहुत ही जटिल कार्य होगा। आज आधुनिकता में जहां मेक इन इंडिया,डिजिटल इंडिया आदि का बोलबाला है वहां सबसे ज्यादा अनदेखी प्राथमिक शिक्षा की की गई है। शालेय इमारतों की हालत खस्ता है। ६५ प्रतिशत शालाओं में खेलने का मैदान नहीं है। बिजली की सुविधा नहीं है। सबसे हैरानी की बात यह है कि मात्र २६ प्रतिशत में कम्प्यूटर की सुविधाएं है। नए कानून को कागज से जमीन पर उतारने की जद्दोजहद पूरी तरह से सबको मिलकर करनी होगी। प्राथमिक शिक्षा पद्धति के लिए शिक्षकों को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। इस तरह उसे भविष्य के आसमान में उड़ने के लिए मजबूत पंख मिल जाएंगे और सामने खुला विशाल आसमान होगा। इस तरह भारत की नई शिक्षा पद्धति के माध्यम से बच्चों की शिक्षा की नींव मजबूत होगी। उनके जीवन में स्वावलंबन की भावना बढ़ेगी और वह मात्र नौकरी के लिए पढ़ाई नहीं करेंगे। अपनी चाहत को पूरा कर अपने जीवन में नया मुकाम हासिल करेंगे। उनके अंदर आत्मविश्वास होगा।
नई शिक्षा नीति भारत के स्वरूप को बदलने में पूरी तरह से सक्षम है। जरूरत है सबके साथ की।

परिचय-मंजू भारद्वाज की जन्म तारीख १७ दिसम्बर १९६५ व स्थान बिहार है। वर्तमान में आपका बसेरा जिला हैदराबाद(तेलंगाना)में है। हिंदी सहित बंगला,इंग्लिश व भोजपुरी भाषा जानने वाली मंजू भारद्वाज ने स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है। कार्यक्षेत्र में आप नृत्य कला केन्द्र की संस्थापक हैं,जबकि सामाजिक गतिविधि के अन्तर्गत कल्याण आश्रम में सेवा देने सहित गरीब बच्चों को शिक्षित करने,सामाजिक कुरीतियों को नृत्य नाटिका के माध्यम से पेश कर जागृति फैलाई है। इनकी लेखन विधा-कविता,लेख,ग़ज़ल,नाटक एवं कहानियां है। प्रकाशन के क्रम में ‘चक्रव्यूह रिश्तों का'(उपन्यास), अनन्या,भारत भूमि(काव्य संग्रह)व ‘जिंदगी से एक मुलाकात'(कहानी संग्रह) आपके खाते में दर्ज है। कुछ पुस्तक प्रकाशन प्रक्रिया में है। कई लेख-कविताएं बहुत से समाचार पत्र-पत्रिका में प्रकाशित होते रहे हैं। विभिन्न मंचों एवं साहित्यक समूहों से जुड़ी श्रीमती भारद्वाज की रचनाएँ ऑनलाइन भी प्रकाशित होती रहती हैं। प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो आपको श्रेष्ठ वक्ता(जमशेदपुर) शील्ड, तुलसीदास जयंती भाषण प्रतियोगिता में प्रथम स्थान,श्रेष्ठ अभिनेत्री,श्रेष्ठ लेखक,कविता स्पर्धा में तीसरा स्थान,नृत्य प्रतियोगिता में प्रथम,जमशेदपुर कहानी प्रतियोगिता में प्रथम सहित विविध विषयों पर भाषण प्रतियोगिता में २० बार प्रथम पुरस्कार का सम्मान मिला है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-देश-समाज में फैली कुरीतियों को लेखनी के माध्यम से समाज के सामने प्रस्तुत करके दूर करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-दुष्यंत,महादेवी वर्मा, लक्ष्मीनिधि,प्रेमचंद हैं,तो प्रेरणापुंज-पापा लक्ष्मी निधि हैं। आपकी विशेषज्ञता-कला के क्षेत्र में महारत एवं प्रेरणादायक वक्ता होना है। इनके अनुसार जीवन लक्ष्य-साहित्यिक जगत में अपनी पहचान बनाना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-‘हिंदी भाषा साँसों की तरह हममें समाई है। उसके बिना हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है। हमारी आन बान शान हिंदी है।’

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