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न घर के रहेंगे,न घाट के…

संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश) 
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“मृत्यु जीवन का शाश्वत सत्य है,जीवन मिट्टी से मिट्टी तक की यात्रा है। अर्थी से पहले जीवन का अर्थ जान लें।“ ये बोध वाक्य हर बार उस समय याद आते हैं,जब हम किसी को श्मशान में छोड़ने जाते हैं और शोकसभा के कक्ष की दीवारों पर अपनी दृष्टि डालते हैं,जहाँ पर कुछ अटल सत्य बातें हमारे हृदय को परिवर्तित करने के उद्देश्य से लिखी रहती है। हम श्मशान में जाते हैं,कईं लोगों को राख होते देखते हैं,लेकिन हम अपना मनोबल हमेशा मजबूत रखते हैं कि हम तो दृष्टा हैं कर्ता नहीं। करता तो वो ऊपर वाला है। हम सब उसके हाथों की कठपुतली हैं।

कुल मिलाकर बात यह है कि हमें न तो इन अटल सत्य वाक्यों से कोई पिघला सकता है,और न ही हमारे संसार के प्रति स्थापित मनोबल को कोई गिरा सकता है। हम जब श्मशान में अपनी और से पंच लकड़ी देकर घर की तरफ प्रस्थान करते हैं तो सारे उपदेश और सत्य चर्चा वहीं छोड़कर स्कूटर से घर की तरफ भाग लेते हैं,वह भी इतनी तेजी में कि कोई हमको पकड़ कर दीवारों पर लिखा सारा ज्ञान हमारे हृदय में उड़ेलने न लग जाए।

वैसे हम कोई मूर्ख थोड़े ही हैं जो एक-दो पंक्ति पढ़कर और कुछ देर श्मशान में बैठ कर वैरागी हो जाएं। श्मशानिया वैराग्य हमें भी होता है पर जैसे ही याद आता है,हमारा भी घर है,परिवार है,प्यार करने वाली एक बीबी है,बच्चे हैं,उन बेचारों का क्या होगा ? हमारी अंतर आत्मा बोल उठती है- सत्य चर्चा के लायक होता है,सत्य पर चलना वीरों का काम है। घर-गृहस्थी को तो सब करना पड़ता है।

श्मशान में जाओ तो ऐसे निर्लिप्त होकर जाओ,जैसे कोई पिक्चर देखने जाते हैं। तरह-तरह के दृश्य देखते हैं और जब खलनायक,नायक को मार रहा होता है तो पॉपकार्न और शीतल पेय हमारे हाथों में ही स्थिर हो जाते हैं,नजरें एकटक बड़े परदे पर स्थिर हो जाती है और अंदर से हम ऐसे कसमसाते हैं कि हम होते तो खलनायक को हाथों-हाथ निपटा देते,लेकिन कर नहीं सकते क्योंकि हम दृष्टा हैं,कर्ता नहीं। थोड़ी देर बाद नायक ताकत में आता है और खलनायक को निपटाने लगता है,हमारे पॉपकार्न खाने की गति भी बढ़ जाती है। जितना खलनायक ने नायक को मारा,उससे ज्यादा नायक उसको मारता है। मार-मार के अधमरा कर देता है,पुलिस एकदम समय पे आ जाती है और खलनायक को गिरफ्तार कर ले जाती है। पिक्चर खत्म होते ही हम सम्मोहन से बाहर आ जाते हैं,और जल्दी से बाहर निकल स्कूटर से घर की ओर दौड़ पड़ते हैं। कल सबेरे उठकर दूसरे काम निपटाने हैं। नायक- खलनायक का तो काम ही यही है,अपन कोई पिक्चर का हिस्सा थोड़ी हैं जो फिल्मी स्टाईटल में जिएं।

फिल्म देखो,फिल्म का ज्ञान मत लो,श्मशान में जाओ कोई निपट रहा है तो कुछ देर मन को द्रवित करो,सब-कुछ होने के बाद संसार धर्म को निभाने के लिए निकल पड़ो,वरना जी नहीं पाओगे,यही सच्चा ज्ञान है जो संसार की असारता बोध करवाने में बचपन से बुढ़ापे तक इंसान को साथ देता है,एक ही विचार पर स्थिर रखता है।

उपदेशक वाक्य और चर्चाएँ विचारों के छोटे गमलों में ही पनपने चाहिए,इनके लिए यदि लंबे-चौड़े हृदय की जमीन दे दी,तो घर -परिवार के लिए मुश्किलें खड़ी होना तय है। आज फिल्म देखकर,कल श्मशान से आकर,किसी प्रवचन से लौटकर हम परिवर्तित होने लगे तो न घर के रहेंगे न घाट के…।

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