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पटना उच्च न्याया. की ओर बढ़ चले कदम…

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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जीत या हार, नहीं है गम, जनभाषा में न्याय के लिए, संघर्ष करते रहेंगे हम।
अब पटना उच्च न्यायालय की ओर बढ़ चले कदम…।
बिहार राज्य जहां संविधान के अनुच्छेद ३४८ के अनुसार अंग्रेजी के साथ हिंदी की अनुमति दी गई है, १९७२ में तत्कालीन राज्यपाल ने अधिसूचना के माध्यम से उच्च न्यायालय में जनभाषा हिंदी की राह रोकते हुए यह प्रावधान कर दिया कि, यदि कोई व्यक्ति हिंदी में याचिका देता है तो उसे उसका अंग्रेजी अनुवाद भी देना होगा। जब अंग्रेजी का अनुवाद ही देना है तो कोई हिंदी में क्यों देगा ? कोई दोहरा काम क्यों करेगा ? ऊपर से यह कि, कई न्यायाधीश कहते हैं कि हम तो हिंदी में सुनेंगे नहीं, अंग्रेजी में ही बोलिए। इस प्रकार संविधान द्वारा प्रदत्त जनभाषा में न्याय के उस प्रावधान को भी अनुपयोगी बना दिया गया। कुल मिला कर सरकार और न्यायाधीशों की मिलीभगत से जहाँ संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा जिन राज्यों में राज्य की भाषा की अनुमति दी गई है, वहाँ भी उसका रास्ता रोक दिया, पर भारतीय भाषाओं के समर्थक अधिवक्ता और जनभाषा में न्याय के समर्थक आज भी वहाँ अपनी भाषा हिंदी में न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं। ‘भारतीय भाषा अभियान’ द्वारा राज्य सरकार को दिए गए ज्ञापन के परिणाम स्वरूप हिंदी प्रेमी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल द्वारा १९ सितंबर २०२४ को यह निर्णय लिया गया कि, हिंदी में याचिका देने पर अंग्रेजी अनुवाद देना आवश्यक नहीं होगा। यह निर्णय राज्यपाल के माध्यम से राष्ट्रपति के पास उनकी सहमति के लिए भेजा गया है।
पटना में जनभाषा में न्याय का संघर्ष जारी है। इस संबंध में बार-बार की अपीलों के चलते अब पटना उच्च न्याया. ने इस विषय पर १ खंडपीठ द्वारा सुनवाई का निर्णय लिया है, जिसमें ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ के माध्यम से मैं भी एक पक्षकार बनकर १ मार्च २०२४ को पटना उच्च न्यायालय में उपस्थित होकर अपनी बात रखूँगा। भारतीय अभियान के प्रमुख सदस्य एवं भारतीय भाषा सेनानी अधिवक्ता इंद्रदेव प्रसाद लगातार जनभाषा में न्याय के लिए संघर्षरत हैं। उनके द्वारा बार-बार उच्च न्याया. में हिंदी में न्याय की मांग के कारण उन्हें कई बार न्यायमूर्तियों और महाधिवक्ताओं आदि के कोप-भाजन का शिकार होना पड़ा एवं आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ा। उनकी और दिल्ली के भाषा सेनानी चौधरी हरपाल सिंह राणा की इस संबंध में hबार-बार की अपीलों के कारण पटना उच्च न्याया. द्वारा इस विषय पर सुनवाई की जा रही है।
जब से होश संभाला और यह पता लगा कि, हमारे देश की अदालतों में हमें अपनी भाषा में अपनी बात कहने का अधिकार नहीं, तो हमेशा से मन में प्रश्न उठते रहे। मुझे लगता है कि, देश के हर नागरिक के मन में ये प्रश्न उठते रहे होंगे कि ऐसा क्यों ?, लेकिन आखिरकार हम हमेशा की तरह स्थितियों से समझौता कर इसे अपनी नियति मान लेते हैं। मन में हमेशा यह प्रश्न उठता रहा है कि, जब पूरी दुनिया में लोगों को अपनी भाषा में न्याय मिलता है, तो हमें अपने देश में अपनी भाषा में न्याय क्यों नहीं मिलता ?, जबकि अब तो हम किसी देश के गुलाम भी नहीं। हम कहते हैं कि, हम सार्वभौमिक देश हैं, हम स्वतंत्र हैं और हमारे देश में जनतंत्र भी है, तो जनता को जनता की भाषा में न्याय क्यों नहीं मिलता ?
प्रश्न तो यह भी उठना है कि, न्यायपालिका जनता के लिए है या जनता न्यायपालिका के लिए ? फिर ये कहते हैं कि, बात तो सही है, लेकिन संविधान में ही ऐसा लिखा है कि, उच्चतम न्याया. और
उच्च न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी होगी, तो यह प्रश्न उठता है कि, इस देश की जनता संविधान के लिए पैदा हुई है या संविधान देश की जनता के हित के लिए बना है ? यदि ऐसा कोई प्रावधान है, जो जनतांत्रिक मूल्यों और जनता की सुविधा के विरुद्ध है, तो संविधान संशोधन के माध्यम से उसे बदला क्यों नहीं जाता ?
अब कई न्यायाधीश कहते हैं कि, हमें तो लोगों की भाषा नहीं आती। यह न्यायाधीश की कमी है या जनता की कमी है ? न्यायाधीश को जनता की भाषा सीखनी चाहिए या जनता न्यायाधीश की भाषा सीखे ?, लेकिन इस देश में तो अंग्रेजी को वह स्थान दिया हुआ है कि, आप उसके बारे में प्रश्न खड़ा नहीं कर सकते, भले ही सारे देश की जनता के साथ धोखा और अन्याय होता रहे, पर कुछ लोग तो हैं, जो प्रश्न उठा रहे हैं। कुछ लोग तो हैं, जो जनभाषा में न्याय के लिए, जनहित के लिए अदालतों में न्यायपालिका से जूझ रहे हैं। अब वक्त आ गया है कि, देश का हर व्यक्ति अपनी भाषा में न्याय के लिए खड़ा हो। हार होगी या जीत, मुझे पता नहीं लेकिन ऊँची आवाज तो उठानी पड़ेगी। अगर यह भी न हो, तो जो संघर्ष कर रहे हैं, उनका साथ तो देना चाहिए। विश्व में शायद ही ऐसा कोई स्वतंत्र, सार्वभौमिक, जनतांत्रिक देश हो, जहां के लोगों को अपनी भाषा में न्याय न मिलता हो। स्वतंत्रता के ७५ वर्ष बाद भी देश की जनता जनभाषा में न्याय के लिए तरस रही है। हर कदम अंग्रेजों की विरासत लिए
अंग्रेजीपरस्त, जनभाषा में न्याय की राह रोके हुए है।
यह किसी से छिपा नहीं कि, संविधान सभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री सहित बड़ी संख्या में नेता और सदस्य विलायती बाबू थे, वे इंग्लैंड से पढ़ कर आए हुए थे। यहाँ तक कि स्वतंत्रता के बाद हमारे गवर्नर जनरल अंग्रेज थे। हमारी थल सेना, नौसेना और वायु सेना के प्रमुख भी अंग्रेज थे। भले ही गोरे अंग्रेज चले गए हों, लेकिन शासन-प्रशासन, कानून और न्याय-प्रणाली आदि में सत्ता में आए काले अंग्रेजों का ही बोल-बाला था। हालांकि, महात्मा गांधी सहित अनेक नेता यह चाहते थे कि, अंग्रेजों के शासन के साथ अंग्रेजी का शासन भी चला जाए। गांधी जी तो चले गए, लेकिन शासन में अंग्रेजी समर्थकों का दबदबा बना रहा। जनता चाहती थी कि, अंग्रेजी जाए और अपनी भाषाओं में देश चले, लेकिन सत्ता में जो लोग थे, वे ऐसा नहीं चाहते थे। इसलिए ऐसी राह बनाई कि, भारतीय भाषाओं की बातें होती रहे, लोगों को यह बताया जा सके कि, हम जनभाषा लाने की कोशिश कर रहे हैं और धीरे-धीरे अंग्रेजी की राह बनती जाए। उसी के कारण यह स्थिति है कि स्वतंत्रता के समय जहां ९९ फीसदी से भी अधिक लोग मातृभाषा में पढ़ते थे, अब योजनाबद्ध रूप से गाँव-गाँव तक और नर्सरी स्तर तक अंग्रेजी माध्यम पहुंचा दिया गया है। जो लोग अपनी भाषा की माँग करते रहे, उनकी संतानों को अंग्रेजीपरस्त बना दिया गया। कार्यपालिका में शासन- प्रशासन में आज भी अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है। न्यायपालिका में सर्वत्र अंग्रेजी का वर्चस्व है, उच्च न्याय पालिका में केवल अंग्रेजी को ही स्थान दिया गया। उसमें भी संविधान द्वारा भारतीय भाषाओं के लिए जो संकरी- सी वैकल्पिक राह बनाई गई, उसे भी व्यवस्था रोक कर खड़ी हुई है। आज भी शासन-व्यवस्था और न्यायपालिका स्वयं संविधान में दी गई व्यवस्था के प्रतिकूल न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं की राह रोक कर बैठी है। यहाँ अंग्रेजी के पक्ष में न्यायपालिका और सरकारों की जुगलबंदी देखने लायक है।
संविधान के अनुच्छेद ३४३ के अनुसार भारत संघ की राजभाषा हिंदी है, और ३४५ के अनुसार राज्यों में वहाँ की भाषाएँ राजभाषाएँ हैं। ३५० में प्रावधान है कि, कोई भी व्यक्ति देश के किसी भी हिस्से में संघ या उस राज्य की भाषा में व्यथा निवारण के लिए आवेदन-अपील कर सकता है, लेकिन न्यायपालिका इसे नहीं मान रही। अनु. ३४८ में यह प्रावधान है कि, यदि कोई राज्य चाहे तो राज्यपाल के माध्यम से अपने राज्य में स्थित उच्च न्यायालय में हिंदी अथवा राज्य की राजभाषा का उपबंध करवाने के लिए राष्ट्रपति की सहमति से ऐसा कर सकता है। इसके अनुसार भारत के ४ उच्च न्यायालयों, (राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार) में अंग्रेजी के साथ हिंदी के प्रयोग की भी अनुमति है। फिर इनमें ३ में से छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड जो नए राज्य बने, वहाँ के उच्च न्याया. में भी इनके मूल राज्य की भाषा का प्रावधान नहीं रखा गया। वहाँ फिर अंग्रेजी थोप दी गई, जिससे अनुच्छेद १९ में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का भी हनन हो रहा है।
आगे चलकर भारतीय भाषाओं का रास्ता रोकने के लिए तत्कालीन सरकार ने एक नया रास्ता खोज लिया, उसे पता था कि, न्याय पालिका में अंग्रेजीपरस्त न्यायाधीशों का वर्चस्व है और वे कभी भारतीय भाषाओं को स्वीकार नहीं करेंगे, इसलिए स्वतंत्रता के कुछ समय बाद ही उन्होंने बिना संसद में गए, मंत्रिमंडल में एक निर्णय लेकर यह व्यवस्था बनाई कि, जब कभी किसी राज्य से उनके उच्च न्याया. के लिए राज्य द्वारा अपनी भाषा में न्याय की मांग की जाए, तो उसे सर्वोच्च न्यायालय की सहमति के बाद ही स्वीकार किया जाएगा। उन्हें पता था कि, सर्वोच्च न्याया. मानेगा नहीं एवं भारतीय भाषाएँ आएंगी नहीं। और वही हुआ, आज भी भारत के कई राज्यों द्वारा अपने राज्य स्थित उच्च न्यायालय में राज्य की भाषा की मांग की गई है। तमिलनाडु, गुजरात, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों द्वारा राष्ट्रपति की अनुमति के लिए जब सरकार को प्रस्ताव भेजा गया, तो सरकार ने वह सर्वोच्च न्याया. भेज दिया। सरकार की नीयत और उम्मीद के अनुसार सर्वोच्च न्याया. ने इन्कार कर दिया। यहाँ आश्चर्य की बात यह है कि, जो प्रावधान संविधान में नहीं था, उसे सरकार ने बिना संसद में गए केवल मंत्रिमंडलीय निर्णय लेकर जनभाषा में न्याय की राह को रोक दिया। इससे तत्कालीन सरकार की नीति और नीयत को समझा जा सकता है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं जनभाषा में न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट करते रहे हैं और इसके लिए निरंतर प्रयासरत हैं। पूर्व कानून एवं न्याय मंत्री किरण रिजीजू भी लगातार जनभाषा में न्याय के लिए अपनी आवाज बुलंद करते रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि, अब न्यायपालिका के सर्वोच्च स्तर से भी जनभाषा में न्याय की स्वीकारोक्ति का प्रकटीकरण हो रहा है। सर्वोच्च और उच्च न्याया. के अनेक न्यायमूर्ति अब जनभाषा में न्याय के पक्ष में अपनी बात रख रहे हैं। सर्वोच्च न्याया. के मुख्य न्यायाधीश ने इलाहबाद में हिंदी माध्यम से विधि की शिक्षा देने की बात तक कह डाली। सरकार के प्रयासों से अब उच्च न्यायालय आदि द्वारा प्रौद्योगिकी के माध्यम से जनभाषा में निर्णयों के अनुवाद की राह बन रही है और अनुवाद भी दिया जाने लगा है, लेकिन जनभाषा में न्याय के लिए संघर्ष का सफर अभी लम्बा है। इसका रास्ता तभी बनेगा, जब भारतीय भाषा प्रेमियों द्वारा इसके लिए संघर्ष किया जाएगा। जनता और अधिवक्ताओं द्वारा इसके लिए आवाज बुलंद की जाएगी और सरकार द्वारा इसी प्रकार जनभाषा में न्याय का मार्ग प्रशस्त किया जाएगा।