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पिता के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते

सुरेन्द्र सिंह राजपूत हमसफ़र
देवास (मध्यप्रदेश)
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‘पिता का प्रेम, पसीना और हम’ स्पर्धा विशेष…..

पिता के ऋण से हम कभी उऋण नहीं हो सकते,क्योंकि संसार में एक पिता ही वह शख़्स है जो चाहता है कि मेरे बच्चे मुझसे भी ज़्यादा तरक़्क़ी करें। पिता अपने बच्चों की ख़्वाहिशें पूरी करने के लिए जो कड़ी मेहनत और संघर्ष करता है उसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता। पिता के पसीना बहाने से ही बच्चों की क़िस्मत चमकती है। वह खुद दुःख उठा लेता है पर अपने बच्चों पर उन दुःखों की छाँव तक नहीं पड़ने देता। बच्चों के जन्म से लगाकर उन्हें बड़ा करने,पढ़ाने-लिखाने और अपने पैरों पर खड़ा करने यानी उनकी नौकरी- व्यवसाय स्थापित होने तक दिन-रात चिंता और मेहनत करता रहता है। हम उनके त्याग और हमारे लिए बहाए गए पसीने की कीमत नहीं समझ सकते। जब हम छोटे थे तब पिता हमें अंगुली पकड़कर चलना सिखाते हैं,थक जाने पर पर अपने कंधे पर उठाते हैं। खुद धूप सहन कर हमें धूप से बचाते हैं,ख़ुद फ़टे-पुराने कपड़े पहनकर हमें नए कपड़े दिलाते हैं। हमें हँसाने के लिए भालू,बन्दर और घोड़ा बन जाते हैं। हमने भगवान को नहीं देखा लेकिन भगवान से भी ज़्यादा प्यार देने वाला शख़्स पिता होता है। और ऐसे पिता को जब बच्चे बड़े होकर सम्मान नहीं देते,कुछ ग़लत बोलते हैं तो कलेजा फट जाता है। माता-पिता का सम्मान करना भगवान का सम्मान करने के बराबर होता है। एक बड़ी अच्छी पौराणिक कथा है-
एक बार देवताओं में इस बात पर विवाद छिड़ गया कि देवताओं में सबसे पहले पूजा किसकी हो, विवाद सुलझाने के लिए सब देवता शिव जी के पास पहुँचे। शिव जी ने एक योजना बनाकर कहा कि सब देवता अपने-अपने वाहन पर बैठकर ब्रम्हाण्ड का चक्कर लगाकर आएं,जो सबसे पहले आएगा,वही पहली पूजा का अधिकारी होगा। सब देवतागण चल दिए,लेकिन गणेश जी ने वहीं पर माता-पिता की परिक्रमा की और कहा कि मैं सबसे पहले आया। शिवजी ने कहा कैसे ? गणेश जी ने उत्तर दिया कि,मेरे तो धरती-आसमान और सारा ब्रम्हाण्ड आप ही हैं। मैंने माता-पिता की परिक्रमा कर ली,समझो ब्रम्हान्ड की परिक्रमा कर ली। शिव जी ने भी इस बात को स्वीकारा कि,वास्तव में माता पिता ही भगवान हैं,और उन्होंने गणेश जी को प्रथम पूजा का वरदान दिया।
इस कथा का उल्लेख इसलिए किया कि हम इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि माता-पिता ही हमारे लिए भगवान से बढ़कर होते हैं। हमें कभी भी उनका दिल नहीं दुखाना चाहिए,उनकी सेवा करना चाहिए। जिस तरह वह शिशु अवस्था में वे हमारी देखभाल करते हैं,उसी प्रकार हमें बुढ़ापे में और जीवनभर उनकी देखभाल करना चाहिए। एक महापुरुष ने लिखा है कि,-मैं आज जो कुछ भी हूँ अपने पिता जी की बदौलत हूँ,मुझे अपने हाथों की सब अंगुलियों से बहुत प्यार है। न जाने कौन-सी अंगुली पकड़कर पिताजी ने चलना सिखाया था। बस यही भाव हमें भी अपने माता-पिता के लिए हमेशा रखना है।

परिचय-सुरेन्द्र सिंह राजपूत का साहित्यिक उपनाम ‘हमसफ़र’ है। २६ सितम्बर १९६४ को सीहोर (मध्यप्रदेश) में आपका जन्म हुआ है। वर्तमान में मक्सी रोड देवास (मध्यप्रदेश) स्थित आवास नगर में स्थाई रूप से बसे हुए हैं। भाषा ज्ञान हिन्दी का रखते हैं। मध्यप्रदेश के वासी श्री राजपूत की शिक्षा-बी.कॉम. एवं तकनीकी शिक्षा(आई.टी.आई.) है।कार्यक्षेत्र-शासकीय नौकरी (उज्जैन) है। सामाजिक गतिविधि में देवास में कुछ संस्थाओं में पद का निर्वहन कर रहे हैं। आप राष्ट्र चिन्तन एवं देशहित में काव्य लेखन सहित महाविद्यालय में विद्यार्थियों को सद्कार्यों के लिए प्रेरित-उत्साहित करते हैं। लेखन विधा-व्यंग्य,गीत,लेख,मुक्तक तथा लघुकथा है। १० साझा संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है तो अनेक रचनाओं का प्रकाशन पत्र-पत्रिकाओं में भी जारी है। प्राप्त सम्मान-पुरस्कार में अनेक साहित्य संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। इसमें मुख्य-डॉ.कविता किरण सम्मान-२०१६, ‘आगमन’ सम्मान-२०१५,स्वतंत्र सम्मान-२०१७ और साहित्य सृजन सम्मान-२०१८( नेपाल)हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्य लेखन से प्राप्त अनेक सम्मान,आकाशवाणी इन्दौर पर रचना पाठ व न्यूज़ चैनल पर प्रसारित ‘कवि दरबार’ में प्रस्तुति है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-समाज और राष्ट्र की प्रगति यानि ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त,सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ एवं कवि गोपालदास ‘नीरज’ हैं। प्रेरणा पुंज-सर्वप्रथम माँ वीणा वादिनी की कृपा और डॉ.कविता किरण,शशिकान्त यादव सहित अनेक क़लमकार हैं। विशेषज्ञता-सरल,सहज राष्ट्र के लिए समर्पित और अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिये जुनूनी हैं। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-
“माँ और मातृभूमि स्वर्ग से बढ़कर होती है,हमें अपनी मातृभाषा हिन्दी और मातृभूमि भारत के लिए तन-मन-धन से सपर्पित रहना चाहिए।”

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