कुल पृष्ठ दर्शन : 815

You are currently viewing पौराणिक कथाओं के आधार पर लिखी जानी चाहिए कहानियाँ

पौराणिक कथाओं के आधार पर लिखी जानी चाहिए कहानियाँ

ऋचा वर्मा
पटना (बिहार)
***********************************

पुस्तक समीक्षा….

साहित्य और कला के क्षेत्र में ‘सिद्धेश्वर’ एक जाना-माना नाम है। उन्हीं के सम्पादन में प्रकाशित ‘कथा दशक’ १० नए-पुराने कथाकारों की चुनिंदा कहानियों से सजा रंग-बिरंगा गुलदस्ता है, जिसमें २० अलग-अलग तेवर, अलग-अलग वर्गों, अलग-अलग काल और अलग-अलग आकार की कहानियाँ संकलित हैं। इसी विविधता के कारण यह संकलन (प्रकाशक-साहित्य केंद्र, दिल्ली) हर वर्ग के पाठकों को आकर्षित करने का माद्दा रखता है। अशोक प्रजापति, जयंत से लेकर पूनम कतरिया और प्रियंका श्रीवास्तव शुभ्र जैसे लेखक इसमें शामिल हैं। मतलब, सम्पादक ने कोशिश की है कि, हर वर्ग का प्रतिनिधित्व हो सके, और अपनी कोशिश में वह बहुत हद तक सफल भी रहे हैं।
सबसे पहले स्थान मिला है श्री प्रजापति की कहानियों को, उनकी कहानियाँ कुछ लंबी हैं और पाठकों का पूरा ध्यान मांगती हैं। उनकी दोनों कहानियाँ ‘शिनाख्त’ और ‘दुश्वारियों भरे दिन’ पढ़ते-पढ़ते बेसाख्ता मुझे रशियन और अंग्रेजी कथाकारों की कहानियों का हिंदी अनुवाद ध्यान में आ गया, शायद कहानी लिखने की शैली के कारण। बिहार के पटना शहर की पृष्ठभूमि पर लिखी हुई कहानी ‘दुश्वारियों भरे दिन’ सीधे-सादे ग्रामीण हेमू की कहानी है कि, कैसे वह परिस्थितिवश एक रिक्शा वाला में परिवर्तित हो एक-एक पैसे के लिए जद्दोजहद करते हुए अस्पताल माफिया, नोटबंदी की मार झेलते हुए लाख कोशिशों के बाद भी अपने नवजात शिशु को नहीं बचा पाता है।
डाॅ. योगेंद्रनाथ शुक्ल की कहानियाँ आकार में छोटी होने के बावजूद दिल में गहरा असर छोड़ती हैं। ‘झुलसता समय’ में ताऊ जी, जिन्हें रवि अपनी बहन के शादी के लिए बिचवान या अगुआ बनाकर लड़के वाले के यहाँ ले जाता है, वहाँ वह अपनी बेटी की शादी उस लड़के से तय कर आते हैं। यह कहानी सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों के बदलते समीकरण और उसके परिणामों की बखिया उधेड़ती है‌। एक समय था, जब लोग बेटियों की शादी के लिए अगुआ बनना पुण्य समझते थे, और आज है कि वहाँ भी स्वार्थ घुस गया है।
‘प्रकृति का हाहाकार’ अजय द्वारा लिखित कहानी एक मानवेतर कथा है, जिसमें एक बूढ़े बरगद के माध्यम से जंगलों के कटने की व्यथा- कथा कही गई है।
विजयनंद विजय की कहानियाँ जो अपने आकार के कारण लघु कथा कही जा सकती है, कोरोनाकाल के मद्देनजर लिखी गई है, जिसने एक तरफ लोगों का रोजगार छीना और कमली जैसे मजदूरों को भूख से तड़पने के लिए विवश किया। दूसरी तरफ इस गम और बेरोजगारी के समय में लोगों को एक- दूसरे से तो जोड़ा ही, उन्हें अपने गाँव का महत्व भी बता दिया।
जयंत की ‘कॉपर ब्राउन’ कहानी बहुत ही सूक्ष्मता से बेघर बच्चियों के वेश्यावृत्ति में संलग्न होने की मजबूरियों की ओर ध्यान आकर्षित करती है।
संगीता तोमर की कहानी ‘दूर एक नाव की ओर’ में एक बेटे ने अपने पिता को अपने स्टार्ट-अप में नौकरी देने का प्रस्ताव देकर संदेश देने की कोशिश की है कि, बुजुर्ग बोझ नहीं, बल्कि अनुभवों के कारण आपके लिए बहुत ही उपयोगी हो सकते हैं।
रशीद गौरी की कहानी ‘मन-मीत’ जिसमें बोलने में अक्षम दीपक, ज्योति से प्यार कर बैठता है जो देख नहीं पाती है। नतीजा दोनों एक- दूसरे को अपनी भावनाओं का संप्रेषण नहीं कर पाते। इस लघु कहानी को पढ़ते-पढ़ते ओ हेनरी की लघु कहानी ‘द गिफ्ट ऑफ मैगी’ याद आ जाती है, जिसमें पति अपनी प्रिय घड़ी बेच देता है ताकि वह अपनी पत्नी के लिए कंघी खरीद सके और पत्नी अपने बाल बेच देती है ताकि वह पति की घड़ी की
चेन खरीद सके। सच्चा प्रेम परीक्षा लेता ही है।
अगर हम मानें कि, ‘कथा दशक’ रंग-बिरंगे मोतियों की एक माला है तो उसमें पूनम कतरिया की कहानी
‘अंतर्वेदना’ लॉकेट के समान है। महाभारत की पौराणिक कथा की पृष्ठभूमि में लिखी यह कहानी देवव्रत का अम्बा के प्रति प्रेम जिसे वह कभी उजागर नहीं कर पाया, को आधार बनाकर लिखी गई है। आकार में छोटी होती हुई यह कहानी अपनी भाषा, कथ्य और शैली में प्रवाह के कारण अत्यंत ही रोचक बन पड़ी है। ऐसी कहानियाँ लिखी जानी चाहिए, ताकि आज की पीढ़ी समझे कि हमारे पुराने ग्रंथ भी उतने ही रोमांटिक हैं, जितने अंग्रेजी उपन्यास या अन्य साहित्य और वे उन्हें पढ़ने की कोशिश करें, किसी धार्मिक आस्था के कारण नहीं, बल्कि अपने मनोरंजन और ज्ञान के लिए।
प्रियंका श्रीवास्तव ‘शुभ्र’ की कहानी ‘लाल से हरी बत्ती’ एक प्रेरणादायक कहानी है, जो बच्चों को सिखाती है कि कोई भी नियम, चाहे वे यातायात के ही क्यों ना हों, हमारी भलाई के लिए बनाए जाते हैं।
सिद्धेश्वर की कहानी ‘हम होंगे कामयाब’ एक बहुत ही सम-सामयिक और मार्मिक कहानी है। ऐसी कहानी कहने के लिए हिम्मत चाहिए। लेखक एकसाथ बेरोजगारों को सेना में नौकरी पाने के लिए अपने-आपको देशभक्त बताना और सेना के प्रति राजनीतिज्ञों की सहानुभूति दिखाना, दोनों ही वर्गों के मुखौटों को निकालकर सच्चाई को पाठकों के सम्मुख लाने की सफल कोशिश करते हैं, जब उनका एक बेरोजगार पात्र कहता है,-“जो शहीद हुए, वे तो सरकारी नौकरी पर थे। हम लोग सेना में भर्ती होने के लिए बेरोजगार लोग हैं, जिनके माता-पिता-औरत- बच्चे सालों साल हमारे शहीद होने की प्रतीक्षा में माथा पटक रहे हैं। इसलिए अगर कोई बेरोजगार सेना में भर्ती होने के लिए शहीद होता है तो उसे दुगुनी राशि २० लाख रुपए मिलनी चाहिए‌।” यह सिर्फ एक संवाद ही काफी है पूरी कहानी का मर्म समझने के लिए।
कुल मिलाकर यह संकलन बच्चे-बड़े, स्त्री-पुरूष सभी के लिए पठनीय है।