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पढ़ाई अंग्रेजी में, लेकिन बात हिन्दी में ही

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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भारत की आत्मा ‘हिंदी’ व हमारी दिनचर्या….

हमारे समय में हिन्दी का ही बोलबाला था। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय बड़े शहरों में ही होते थे,वो भी गिनती के,जिसमें प्रवेश पाना भी आसान नहीं होता था। इसके अलावा अभिभावकगण भी हिन्दी माध्यम से ही शिक्षा दिलाने को मर्यादित मानते थे यानि हिन्दी माध्यम को ही उत्कृष्ट मानते थे। इस नीति के चलते ही मैंनें ग्यारहवीं कक्षा तक हिन्दी में ही पढ़ाई की और उच्चतर माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण की।
विद्यालय में भी सारे आयोजन,उत्सव,कार्यक्रम हिन्दी में ही आयोजित होते थे और उनमें हम सब विद्यार्थी पूरी उमंग व जोश से भागीदारी निभाते रहे हैं। इन सबके चलते वाद-विवाद हो या नाटक हमें हिन्दी को प्रभावशाली तरीके से सामने वाले को कैसे प्रभावित किया जा सकता है,उसका ज्ञान दिया जाता था। उसी ज्ञान का लाभ आज तक मिल रहा है,क्योंकि हमें आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेन्दु हरिशचंदजी द्वारा लिखे गए ‘निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल,बिन निज भाषा ज्ञान के,मिटन न हिय के सूल’ के बारे में विस्तार से समझा कर हमेशा हिन्दी के प्रयोग के लिए प्रेरित किया गया।
हमारे यहाँ बच्चों को छुटपन से ही हिन्दी में बोलना, समझना,लिखना सिखाया जाता है। इसके अलावा घर हो या खेल का मैदान सभी जगह आज तक भी हिन्दी का ही प्रयोग करते आ रहे हैं,यानि आपसी बातचीत भी हिन्दी में ही करते हैं।
एक मजेदार तथ्य आपको बता दूँ कि,स्नातक वाला पाठ्यक्रम अंग्रेजी में ही रहा जिसके चलते महाविद्यालय में पढ़ाई अंग्रेजी में होती थी,लेकिन हम विद्यार्थी तो आपस में हिन्दी में ही बातचीत करते थे।
जब नौकरी करने लगा तो वहाँ भी अंग्रेजी वाला नामकरण (फैक्ट्री,ऑडिटर फीस,वगैरह वगैरह) हिन्दी में लिखते थे,चाहे रोकड़ में लिखना हो या खाता-बही में। और तो और हमारे लेखा परीक्षक का ताल्लुकात विदेश से संचालित कहिए या नियंत्रित,होता था और वे सब अन्य संस्थानों में तो भले ही अंग्रेजी में काम करते रहे होंगे,लेकिन हमारे यहाँ तो हिन्दी में लिखा पढ़ ही नहीं लेते थे,बल्कि समझते भी थे,जबकि उनका हिन्दी में लिखने का अभ्यास था ही नहीं। इसके साथ हम आपस में यानि लेखा परीक्षक के साथ तो हिन्दी में ही बातचीत करते थे और कोई बात समझनी या समझानी भी होती,तो वो भी उनके साथ हिन्दी में ही कर लेते थे।
नौकरी वाले दिनों में ही एक बार मैंने कलकत्ता में राज्य स्तरीय शतरंज प्रतियोगिता में भागीदारी की थी। उसमें बंगाली खिलाड़ियों के अलावा भी कुछ अबंगाली भी शामिल हुए थे। चूँकि,मैं बंगला भाषा समझता तो था लेकिन ठीक से बोल कर अपने विचार सही ढ़ंग से प्रगट नहीं कर पाता,इसलिए सभी से हिन्दी में ही बतिया लेता। इसके अलावा जब भी सामने वाले द्वारा बंगला में बोले गए वाक्य को ठीक से समझना होता,तो हिन्दी में कहकर सामने वाले से स्पष्टीकरण ले लेता था।
उस समय केवल आकाशवाणी से हिन्दी में समाचार सुनने को मिलते थे,लेकिन धीरे-धीरे दूरदर्शन व अन्य माध्यमों पर भी न केवल समाचार बल्कि खेलों का भी आँखों-देखा प्रसारण सुनने व देखने को मिल रहा है। आजकल तो सभी विषयों पर हिन्दी भाषा में होने वाली परिचर्चा भी काफी लोकप्रिय ही नहीं है,बल्कि बहुत बड़े दर्शक वर्ग द्वारा देखी जा रही है। कुल मिलाकर लगातार प्रयासों का ही यह सब नतीजा है।
आज भी हम बाजार में कुछ भी खरीदने जाते हैं तो सारी बातें हिन्दी में ही करते हैं। घूमने-फिरने भी जाते हैं तो हिन्दी ही बातचीत का माध्यम रहता है। एक मजेदार तथ्य यह भी है कि आजकल बच्चों को शुरू से ही प्रायः अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाया जाने लगा है,लेकिन घर,बाजार,बैंकों में यानी सभी स्थलों पर हिन्दी माध्यम से ही काम सुचारु रूप से हो पाता है। इसलिए सभी वर्ग व आयु के लोग सभी स्थानों में हिन्दी ही प्रयोग करते पाए जाएंगे।
यह अवश्य बताना चाहूँगा कि,आजकल सभी क्षेत्र में हिन्दी का प्रयोग धड़ल्ले से होने लग गया है जिसका बहुत हद तक श्रेय हमारे वर्तमान दृढ़निश्चयी प्रधानमंत्री को जाता है। प्रधानमंत्री शुरु से ही आज तक विश्व पटल पर हिन्दी का जिस सशक्त तरीके से प्रयोग कर रहे हैं,उसी के फलस्वरूप विदेश में न केवल हिन्दी की पैठ बढ़ रही है,बल्कि विदेशी शासनाध्यक्ष हो या अन्य उच्च पदाधिकारी भारतीयों के बीच नमस्कार से सम्बोधन शुरू करते हैंं,और उन सभी की कुछ हिन्दी वाक्यों के माध्यम से सन्देश देने की चेष्टा रहती है। इस तरह यह मानना गलत नहीं होगा कि वर्तमान प्रधानमंत्री हिन्दी को एक अलग तरह की वैश्विक पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैंं,जिसके चलते आजकल देश में भी हिन्दी के प्रति लोगों के रुझान में परिवर्तन देखने में आ रहा है,जो निश्चित स्वागत योग्य है। साथ ही यह स्थिति हम हिन्दी प्रेमी लोगों को निश्चितरूप से संतोष प्रदान करती है।

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