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बेटियाँ किसान की

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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खेतों में काटती वे बालियाँ, गेहूँ, जौ, बाजरे और धान की
कितनी सुंदर लगती है श्रम, कण में वे बेटियाँ किसान की।

गदराए जिस्म-जवानी पर, सोने की बालियाँ वे कान की
ठिठोली के ठहाके तुरंत दूर, भगाते हैं परेशानी थकान की।

सारी घाटी को रोशन कर देती,
है छटा उनकी मुस्कान की
मुंडेर पर बैठी दादी है सोचती, कि मैं भी कभी जवान थी।

सचमुच यह जवानी भी क्या, गजब नेमत है भगवान की ?
लौट कर वह जब थक-हार, कर रोटियाँ बेलती शाम की।

आठों याम व्यस्त तब अन्नपूर्णा,
लगती है बेटी किसान की
वही लगाती है झाड़ू-पोंछा, उसे चिंता है घर के हर काम की।

वही पकाती है नाश्ता, दोपहरी भोजन और रोटी शाम की
वही लाती है पशुओं का चारा, उसे चिंता है हर काम की।

वही करती है बच्चों को तैयार, रखवाली खेत-मकान की
घरवालों की सेवा-खातिरदारी, पति और हर मेहमान की।

फिर भी रहती वह खुश सदा, कहाँ शिकन है थकान की ?
सच कितनी सुंदर है इस, धरती पर बेटी किसान की ?

वह बिताती है जिन्दगी असली,
मत कहना कि गुलाम की
खाती है एक-एक रोटी कड़ी, मेहनत की, न के हराम की।

वह जीती है हमेशा प्यार में, कहाँ फुर्सत दूजे काम की ?
वह तो है निर्विकार जीवन, जीने वाली भक्त भगवान की॥