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भारत:समृद्धि के शिखर एवं गरीबी के गड्ढे…विडम्बना

ललित गर्ग

दिल्ली
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वैश्विक संस्था ‘ऑक्सफैम’ ने अपनी आर्थिक असमानता रिपोर्ट में समृद्धि के नाम पर पनप रहे नए नजरिए, विसंगतिपूर्ण आर्थिक संरचना एवं अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ते फासले की तथ्यपरक प्रभावी प्रस्तुति समय-समय पर देते हुए इसे संतुलित एवं समानतामय संसार-संरचना के लिए घातक बताया है। संभवतः, यह एक बड़ी क्रांति एवं विद्रोह का कारण भी बन सकता है। ऑक्सफैम के अनुसार आर्थिक असमानता के लिहाज से पिछले कुछ साल काफी खराब साबित हुए हैं। आज देश एवं दुनिया की समृद्धि कुछ लोगों तक केन्द्रित हो गई है, भारत में भी ऐसी तस्वीर दुनिया की तुलना में अधिक तीव्रता से देखने को मिल रही है। भारत में भी भले ही गरीबी कम हो रही हो, लेकिन अमीरी कुछ लोगों तक केन्द्रित है। बीते ४ साल की घटनाएं, इनमें चाहे कोरोना हो, युद्ध या इससे उपजी महंगाई, बेरोजगारी, अभाव इन सभी कारणों के चलते साल २०२० के बाद दुनियाभर में करीब ५ अरब लोग गरीब हुए हैं। दूसरी ओर इसी के अनुसार दुनिया के ५ शीर्ष धनाढ्यों की दौलत पिछले ४ साल में ८७९ अरब डॉलर बढ़ी है। क्या यह आश्चर्य का विषय नहीं कि, विकसित दुनिया की दौड़ में कुछ लोग सबसे आगे दौड़ रहे हैं और बड़ी संख्या में गरीब दहलीज पर खड़े हैं ? जो अमीरी के शीर्ष पर हैं, वे आभासी दुनिया और एक वैश्विक बाजार के मालिक हैं। ऐसे लोगों के सामने आम आदमी की गरीबी दूर करने का नहीं, बल्कि अपनी समृद्धि बढ़ाने का लक्ष्य है। यह ऐसी दौड़ है, जो असंतुलन को न्यौतती है, दुःख, अभाव एवं असंतोष बढ़ाती है।
भारत में अम्बानी एवं अडाणी छोटे व्यापारियों के निवाले छीन रहे हैं, तो दुनिया के सबसे अमीर शख्सों में शुमार एलन मस्क की कम्पनी न्यूरालिंक का इंसानी दिमाग में कृत्रिम चिप का प्रत्यारोपण बाजारवादी नीतियों का हिस्सा एवं ईश्वर की रची मानव-संरचना में बेहूदा हस्तक्षेप है। संवेदनशील मस्तिष्क में चिप लगाने के क्रम में इंसान के रोबोट बन जाने की आशंकाएं भी निर्मूल नहीं हैं। ध्यान रहे कि, इस प्रत्यारोपण का लक्ष्य मानव-कल्याण कदापि नहीं है। जाहिर है चिप लगाने का प्रयोग उनके बाजार के गणित का ही हिस्सा है। वही मस्क, जिन्होंने कर्मचारियों की निर्ममता से छंटनी की थी, जो दुनिया के तमाम बड़े मुनाफे के कारोबार में लगे हुए हैं। यह सवाल मानवीय बिरादरी के लिए हमेशा मंथन का विषय रहेगा कि, विज्ञान की खोज एवं कुछ लोगों तक केन्द्रित होती समृद्धि मानवता की संहारक नहीं बन रही है ? जनता में आक्रोश एवं विद्रोह का बड़ा कारण नहीं बन रही है ?
भारतीय लोग इन दिनों इस बात से बहुत खुश होते हैं कि, भारत शीघ्र ही दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है, लेकिन दुनिया के इस तीसरे सबसे बड़े मालदार एवं समृद्ध देश की असली हालत क्या है ? ऑक्सफैम के ताज़ा आँकड़ों के मुताबिक सिर्फ १०० भारतीय अरबपतियों की संपत्ति ५४.१२ लाख करोड़ रु. है यानि उनके पास इतना पैसा भारत सरकार के डेढ़ साल के बजट से भी ज्यादा है। गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों को अपनी रोजमर्रा की जरूरी चीजों को खरीदने पर बहुत ज्यादा कर भरना पड़ता है, क्योंकि वर्तमान सरकार ने ऐसी व्यवस्था कर दी है कि वह बताए बिना ही चुपचाप काट लिया जाता है। इसी का नतीजा है कि, देश के ७० करोड़ लोगों की कुल संपत्ति देश के सिर्फ २१ अरबपतियों से भी कम है। प्रश्न यह है कि, क्या समृद्धि लोगों की शक्ति ही समाज के विकसित होने का मापदंड होती जा रही है ? क्या इधर जीवन मूल्यों पर मनुष्य या मानव समाज की पकड़ कमजोर हो रही है और बाजार की मजबूत ?, क्योंकि इन समृद्ध लोगों की बाजारवादी नीतियों से खरीदना, निरंतर खरीदना सामाजिक आदत-सी बन गई है। आम जनता से अधिक इन समृद्ध लोगों पर सरकार का भरोसा बढ़ना एक आदर्श समाज व्यवस्था की बड़ी विसंगति एवं विडम्बना है। मुश्किल यह है कि, किसी के दु:ख को समझने के लिए जीवन मूल्यों की जो नजर चाहिए, उसे बाजार ने अपहत कर लिया है। ऐसी परिस्थिति में आम आदमी क्या करे ?
महात्मा गांधी को पूजने वाले सत्ताशीर्ष के नेतृत्व ने उनके न्यासी वाद के सिद्धान्त एवं ऐसे ही आर्थिक समानता के सिद्धांतों को बड़ी चतुराई से किनारे कर रखा है। यही कारण है कि, एक ओर अमीरों की ऊँची अट्टालिकाएं हैं तो दूसरी ओर फुटपाथों पर रेंगती गरीबी। एक ओर वैभव ने व्यक्ति को विलासिता दी और विलासिता ने व्यक्ति के भीतर क्रूरता जगाई है। वह प्रतिशोध में तपने लगा, अनेक बुराइयाँ बिन बुलाए घर आ गईं।
नई आर्थिक प्रक्रिया को आजादी के बाद २ अर्थों में और बल मिला। एक तो हमारे राष्ट्र का लक्ष्य समग्र मानवीय विकास के स्थान पर आर्थिक विकास रह गया, दूसरा सारे देश में उपभोग का एक ऊँचा स्तर प्राप्त करने की दौड़ शुरू हो गई है। इस प्रक्रिया में सारा समाज ही अर्थ प्रधान हो गया है। ऐसे नए बन रहे आर्थिक समाज एवं चैट-जीपीटी और जेमिनी के जमाने में बाजारवाद गूगल जिस वर्ग को चहलकदमी के लिए प्रेरित करता है, वह वर्ग यह कैसे समझे कि युद्ध हो या महामारी, आर्थिक संकट हो या कृत्रिम बुद्धिमता का भय, हर परिस्थिति में गरीब, और गरीब होता जाएगा।
भारत आम चुनाव की चौखट पर खड़ा है, चुनाव में जीत हासिल करने की दौड़ तो सभी दलों में देखने को मिल रही है, लेकिन आम जनता के सामने खड़े बुनियादी प्रश्नों एवं संकटों का समाधान देने की पहल कोई दल करता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। इन सभी दलों को बाजार बनते भारत के फायदे तो नजर आ रहे हैं, लेकिन भूख, अस्वास्थ्य, अशिक्षा व बेरोजगारी की समस्या का कोई ठोस समाधान किसी के पास नहीं हैं।
हर दशक गरीब और गरीब होते चले गए। और कहीं ना कहीं इसने एक सामाजिक निष्ठुरता को भी जन्म दिया। जहां एक ओर तकनीक अपने चरम पर नजर आती है और आभासी ही वास्तविक बनता दिखता है तो पैसा कमाना, रिश्ते बनाना और सामान खरीदना ही जीवन का यथार्थ बनता दिखता है। एमेजॉन ने हम सभी को बहुत सारी सुविधाएं तो दीं, लेकिन वस्तुओं को खरीदने व संग्रह करने की एक कभी ना खत्म होने वाली भूख भी दे दी। समस्या यह नहीं कि कुछ लोग अमीर क्यों हो गए ? या यह दुनिया तकनीक से सज्जित क्यों हो गई ? प्रश्न यह है कि, आखिर गरीबी से यह पृथ्वी मुक्त कब होगी ? या होगी भी कि नहीं ? मंगल ग्रह पर वो गरीब कैसे जाएंगे जो पृथ्वी पर जीवन-मरण के संघर्ष से जूझ रहे हैं ? अमीरों की चतुराई, चालाकी एवं समृद्धि की भूख समूची सृष्टि के विनाश का कारण बने, उससे पहले सरकारों को अपनी सोच को बदलना होगा।
रिलायंस, अडानी, इंफोसिस, विप्रो या दूसरी कंपनियों की कामयाबी भारतीय उद्यमशीलता की कामयाबी भले हो, लेकिन ऐसी हर कामयाबी अपने साथ नाकामियों एवं मानव-उत्पीड़न का हिसाब भी लेकर चलती है।

भारत द्वारा दुनिया को दिए गए योग के वरदान से तमाम मनोविकारों का समाधान संभव है। अमेरिका के नोबेल पुरस्कार विजेता मनोवैज्ञानिक भी मानते रहे हैं कि, प्राणायाम के जरिए अनेक मानसिक रोगों का उपचार संभव है। हम अपनी सेहत का संवर्धन करें, ताकि चिप लगाने की नौबत न आए।