शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
*************************************
भाषण की अपनी एक व्यवस्थित रूपरेखा है, जिससे विचलित होने पर श्रोताओं और पाठकों को भी विचलित कर देती है। भाषण की विषयवस्तु को समाज,राजनीति,अर्थव्यवस्था,दर्शन,धर्म वगैरह-वगैरह किसी भी क्षेत्र से ग्रहण किया जा सकता है। मूल तथ्य यह कि भाषण को भूतकाल से समेट वर्तमान की चाशनी में भविष्य की झलक दिखाई जानी कितनी अहम् है। मनुष्य अपने में तीनों कालों को एकसाथ लेकर चलता है। यह मनुष्य की जिज्ञासु प्रवृत्ति के लक्षण की नींव भी है।
आजकल के भाषणों को विषयवस्तु के अनुरूप बांटते हुए समझ सकते हैं कि कार्यालयों में दिन-प्रति-दिन व्यापार वृद्धि के लिए बैठक में लघु भाषण दिए जाते हैं,ताकि कर्मचारियों में कंपनी हिताय करने की क्षमता बनी रहे। धार्मिक क्षेत्र में साधु-संतों के आचारणिक गतिविधियों से जुड़े कथावाचन रुपी भाषण सुनते-सुनते श्रोता भाव-विभोर हो जाते हैं। वास्तव में,लोग कथा में छिपे उस तत्व से प्रभावित होते हैं जिस तत्व को वे स्वयं हर पल सह रहे होते हैं। वैज्ञानिकों के विज्ञान संबंधी भाषण अपनी परिधि की भाषा से उच्छृंखलता लिए हुए विशेष वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। सामाजिक कुरीतियों व विकृतियों से निकले समाज उदार हेतु बने भाषण व्यक्ति के सुप्तावस्था को क्षणिक जाग्रत कर देते हैं।
भाषण समसामयिक घटनाचक्र व चलित परिस्थितियों के मनोभावों के बीच संवाद सहयोगी बनने का कार्य करता है। भाषण का निश्चित समीक्ष्य काल भी निर्धारित हो जाता है। राष्ट्रीय, सामाजिक,राजनीतिक व धार्मिक चिंतन में भाषण के माध्यम से परिस्थितियजन्य विकासखण्ड का संज्ञान और संभावनाओं के नए समीकरण निकालने की क्रिया सदैव विद्यमान रहती है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ‘भाषण’ एक विशेष वर्ग का मुख्यतया प्रतिनिधित्व करने में सक्षम है,वह वर्ग है- राजनीति व्यवस्था। भाषण एक ओर जनसमुदाय को अधिक जागरूक कर दिशा-निर्देशों के साथ अभिव्यक्त होते हैं। भाषण समसामयिक होने की वजह से समाजिक वह राजनीतिक या अन्य क्षेत्र की सीमा को चरितार्थ करते हैं। उदाहरणार्थ-यदि प्रथम प्रधानमंत्री के भाषण को समकालीन परिदृश्य में रखकर देखा जाए तो ज्ञात होगा कि,मूलभूत राष्ट्रीय तत्वों,आवश्यकता की संभावनाओं व उससे संबंधित नीतियों के परिदृश्य उभरते हैं। तत्कालीन स्थिति के अनुसार हृस्व स्वर से दिए गए भाषण मोह बंधन में जनसमुदाय को बांधने में सक्षम हुए। कहने का तात्पर्य यह है कि,भाषण से इससे कुछ ज्यादा की अपेक्षा रखना एक मूर्खतापूर्ण कार्य हो सकता है। ‘हाथी के दांत खाने के ओर दिखाने के ओर’ मुहावरों में भाषण के यथार्थ पर खरे न उतरें तो यह उस व्यवस्था का दोष है,न कि भाषण में दोष। समकालीन भाषण यथार्थ चित्रण में संभावनाएं जमीनी कुछ बनती दिखाई पड़ती है।
भाषण अपने शब्दों को स्वरों से उतार-चढ़ाव कर आकर्षक,मनभावन व मोहक हों,यह भाषण के मूलभूत तत्व हैं। भाषण की पटकथा में विभिन्न विषयों का उचित मात्रा में स्थान होना भी उतना आवश्यक है। भाषण वाच्यार्थ और लक्ष्णार्थ से निकलते हुए व्यंग्यार्थ होना भी सफलता की सीढ़ी तय करने में सहायक हो जाता है। भाषण में अमूमन बहुत से चर्चित विषयों का संयोजन और उनके भविष्य की दिशा भी तय कर दी जानी पड़ती है। इसके लिए भाषण में शब्द चयन की भूमिका भी अहम् बन पड़ती है। जैसा प्रदेश,वैसे कुछेक बोलचाल के शब्दों में भाषण अपने सौंदर्य में चार चाँद से सुसज्जित हो जाता है। लयबद्ध संयमित लहजे में भाषण का उच्चारित होना भाषणकर्ता पर निर्भर रहता है।
स्पष्ट है कि,भाषण हमारी व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और संप्रेषण भाषण का अभिन्न तत्व। जनसमूह में सांत्वना उत्पन्न करने का ब्रह्म अस्त्र इससे बड़ा और क्या होगा ? –
कुछ बात तो भाषण के लफ्जों में,
ग़ज़ल तो हर कोई गुनगुना लेता है
हरेक शब्द लगे तीर समान हृदयपट्ट पर,
देखें,जन-मन में असर कहां-कहां होता है।