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भाषा और संस्कृति:एक सत्यान्वेषण

छगन लाल गर्ग “विज्ञ”
आबू रोड (राजस्थान)
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एक सत्य साहित्यसेवी के संदर्भ में हर बार दोहराना चाहता हूँ कि वह जीवन की सौंदर्य अनुभूति से आह्लादित होकर या कला सौन्दर्य की अनुभूति से समाज को लाभान्वित करने साहित्य में नहीं आया,अपितु भीतर की सघन संवेदनाएं पीड़ित मानव के प्रति भावुक होकर अभिव्यक्ति देने के निमित्त,नव चेतना व सार्थक जीवन मूल्यों को प्रतिष्ठित करने व अभिव्यक्ति की विशुद्धता से प्रेरित कर समाज व राष्ट्र की चेतना को नवजीवन देने के लिए आया है,वह अपनी मातृभाषा द्वारा मातृभूमि की संस्कृति को प्रतिष्ठित व परिपक्व करने निमित्त साहित्य के क्षेत्र में आया है। यदि हमारा साहित्यकार विवेक व भाषा ज्ञान व लेखन कला से अनुप्राणित नहीं होकर जब स्व सुखाय लेखन को माध्यम बनाकर सृजन होने लगे तो उसे हम समृद्ध और प्रतिष्ठित साहित्यकारों की पूंजी तो मान सकते हैं,पर नव सृजन के लिए व संस्कृति की पृष्ठभूमि को आधार देने व विकसित करने में कतई सहयोगी नहीं बन सकता। उसकी साहित्यिक पूंजी कतई हितकारी नहीं हो सकती। असल में साहित्यकार की हर चेष्टा में ही भाषा और संस्कृति के गूढ़ार्थ छिपे रहते हैं।
भाषा व संस्कृति जीवन और समाज की व्यवस्था का यथार्थ परिपेक्ष्य है,जिसमें कल्पना के सौंदर्य की अतिशयोक्ति नहीं होकर यथार्थ की कटु पृष्ठभूमि है। यह सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण के प्रति न्याय का विद्रोह है, हेय और घृणित,पीड़ित और शोषितों के प्रति बौद्धिक चेतना का चातुर्य से परिपूर्ण कृत्य है। मिश्र (भवानीप्रसाद) जी की इन पंक्तियों से साक्ष्य दृष्टव्य है यथा-
“चारों तरफ चिताएं जल रही हैं,
सांय-सांय हवाएं चल रही हैं
होते जा रहे हैं राख की ढेरी बूढ़े और जवान, बच्चे अपनी कब्रें खोद रहे हैं…!”
यह स्थिति संस्कृति की विद्रूप दशा का परिचायक है।
संस्कृति का अर्थ है वैभव का संग्रहण।अधिकाधिक प्राप्त करने की इच्छा-कामना, जब भी हम अधिक की कामना करते हैं तो हमें अपने आस-पास की सुविधाओं-संसाधनों को अपने लिए अपनी मुठ्ठी में करने के प्रयास करने होते हैं,क्योंकि इच्छा की तृप्ति के संसाधन कब्जे में हुए बिना कामना अधूरी रह जाती है। इसके लिए बौद्धिक क्षमता और तंत्र का प्रयोग करना होता है। शोषित मनुष्य की जीवन प्रक्रिया की छानबीन और वासनाओं की जानकारी लेनी होती है,और हर दुर्बलता बिना किसी संवेदना के अपने हितों को ध्यान में रखकर षड्यंत्र से अपने लिए संग्रहणीय करने के वीभत्स प्रयास से बचाने का काम संस्कृति करती है।
महत्वपूर्ण यह है कि जनतांत्रिक चेतना में संस्कृति के मूल्य स्थापित करने व जन्म देने में भाषा का अपना महत्व है। मूढ़ता की सारी मान्यताएं व धारणाएंड विध्वंस हो सके,इसी प्रयास के उपलब्धता पर संस्कृति की गुणवत्ता निर्भर करती है। संस्कृति के लिए धार्मिक अंधविश्वास,सामाजिक विषमता,तंत्र या व्यवस्था की तानाशाही,सामंती मानसिकता और भावनात्मक अंतर्विरोधों को मिटाने में भाषा व संस्कृति की बड़ी जरूरत होती है।
संस्कृति के इस लंबे इतिहास में एक वर्ग और है,जिसे साहित्यिक वर्ग कह सकते हैं। यह वर्ग इतिहास की वैभवशाली संस्कृति पर जिंदा है,यह अपराधी और मूल्यहीन वर्ग को लताड़ता व नवोदित चेतना में सांस्कृतिक मूल्यों को
भरता है। यह लोलुप मानव की ईर्ष्या,द्वेष व छलावे की करतूतों से सचेत कर उस वर्ग के लिए अपनी ऊर्जा लगाता है,उसकी सामाजिक और मानवीय संवेदना को जगाता है,और वह निरीह,विवश और गरीब-दलित व्यक्तियों में भारतीय भाषाओं व बोली में संस्कृति की चेतना को उजागर करता है।
आज बौद्धिक वर्ग की बाजारवाद की आसक्ति के कारण पूंजीवाद को प्रश्रय मिला है। पूंजी के प्रति मोह और वैभव की चाह में उत्तरदायित्वहीनता सघन हो गई है,और यही कारण है कि किस प्रकार प्रायोजित पूंजी अपने आप नित्य नये-नये औजार बना रही है,और प्रयोग करके सफलता व कुशलता प्राप्त कर रही है। संस्कृति और भाषा आज नये अर्थों में प्रयोग की जा रही है,क्रोध व उन्माद में नफरत फैलाकर शोषण का नया परिवेश-संस्करण तैयार किया जा रहा है।
आज व्यवस्था और मानवीय मूल्य भूलकर जल्दी-जल्दी हर व्यक्ति उच्च शिखर पर पहुंचने की चेष्टा में पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण कर रहा है। भारतीय संस्कृति व प्रकृति प्रदत्त चाल व कदम को धता बताकर दो-दो चार-चार पायदान एक साथ चढ़ने की कला सीखने का प्रशिक्षण ले रहा है। पता नहीं, कब जन चेतना में संस्कृति की चिंगारी अपनी क्षमता का इजहार करे,प्रश्न काफी समय से अनुत्तरित है ….’ब्रह्म राक्षस’ में मुक्तिबोध की शाश्वत पंक्तियाँ आज भी अनुत्तरित है। यथा-
“सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएं
गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्न कृत्रिम
उतर और भी छलमय
समस्या एक…
मेरे सभी नगरो और गाँवों मेरे
सभी मानव
सुखी, सुन्दर और शोषणमुक्त
कब होंगे ?”
बहुत जटिल और भ्रमित दशा में उद्भ्रांत हो चुका है आज का सभ्य संसार। भीतरी स्वच्छन्दता के झूठे जाल में आज का इंसान अपनी संस्कृति से विमुख होता जा रहा है।लगता है वह अपनी ऐतिहासिक कथाओं को दोहराता जा रहा है। यथा महाभारत की अदभुत कथा प्रताड़ना की कहानी है। कौरवों का संपूर्ण कौशल प्रताड़ना का चक्रव्यूह है, आदमी के अंधेपन से प्रताड़ना का प्रारंभ हुआ है। प्रताड़ना की सारी कथाएं खत्म हो सकती है। यदि भीतर की अंधी कामना का अंत हो सके,और इस अंधेपन के लिए आँखें फोड़ने की भी जरूरत नहीं है,क्योंकि अंधेपन की प्रबलता आँख वालों की जागीर बन चुकी है।
आज का धृतराष्ट्र केवल पुत्र मोह के लिए प्रताड़ित नहीं करता,आज उसका दायरा बढ़ चुका है। अब वह संस्कारित वृतियों से आक्रमण करता है। आस्था के नाम पर समूह के साथ और साधनों की शक्ति से निर्बलों को प्रताड़ित करता है। कुशल शिकारी की भांति जाल फैलाकर जरूरतमंदों को फांसकर प्रताड़ित करता है।
आज का धर्मयुद्ध दूसरा है,आज अधर्म ही धर्म को गतिशील बनाता है। आज हम अधर्म को दोष नहीं दे सकते,क्योंकि सच में तो इसी राह पर चलकर धार्मिक होने के सबूत दिये जा सकते हैं। बिना रक्तपात या प्रताड़ना के धार्मिक होना मुश्किल है,यह व्यंग्य भी समझ लेना प्रताड़ना ही है,क्योंकि हमारी संपूर्ण चेतना पिपासा पर आधारित है। हमें चाहिए कि भाषा की हर क्षेत्र में अनिवार्यता स्थापित कर साबित करें कि हम स्वतंत्र देश में अपनी भाषा और संस्कृति के मूल्य स्थापित करने में सक्षम हैं।
विदेशी भाषा व संस्कृति अहंकार की अभिव्यक्ति है,इसके पीछे भी लगता है कोई अर्थपूर्ण दुष्कृत्य में सलंग्न है। मानव कामना का वीभत्स भंडार है,उसका जीवन भी मतलबी गणित है। केवल हमारी संस्कृति ही हमें समृद्ध और सर्वोच्च बनाने में समर्थ है और यह सब स्वर भाषा के स्वीकार पर ही संभव है।
भाषा व संस्कृति से ही भविष्य सुदृढ़ है,भविष्य है प्रवाह-गति। अब यह गति अधोगामी है या उर्ध्वगामी,यह हमारी सोच-विचार,सूझ-बूझ और संस्कृति के मूल्यों पर निर्भर करता है। भाषा से ही भविष्य और विचारधारा का प्रसारण हो सकता है। निरंतरता के प्रति विश्वास का अत्यधिक सत्य संस्कृति के मूल्य है,यही अपने- आपकी कसौटी की आधारशिला है,जिससे व्यक्ति के भावी यात्रा का निर्धारण होता है।भविष्य का निर्माण भाषा से और व्यक्ति की क्षमता और विवेक की स्वतंत्रता के राह के अन्वेषण से प्रारंभ होता है,और यह बिल्कुल व्यक्ति के हाथ में है,वश में है कि,वह किस दिशा की यात्रा का उत्सुक है। उसको छूट है अपने भावी जीवन में आगे की यात्रा करने की, पर सांस्कृतिक मूल्यों के साथ व्यक्ति आगें बढ़े, जहां जाना चाहे। नीचे की यात्रा के समय संस्कृति सचेत करती है और ऊपर की और यात्रा करने के लिए प्रेरित भी। अगर सांस्कृतिक बंधन से मुक्ति में यात्रा होगी तो यह छूट ही एक खतरा है,क्योंकि इसमें नीचे की यात्रा की छूट में खुद के अहित की पूरी-पूरी संभावना है,लेकिन अपने विवेक, सत्यान्वेषण व संस्कृति के उचित मार्गदर्शन द्वारा जीवन की कठिनताओं से उपर उठकर ऊँचाइयों का स्पर्श संभव है।
किसी व्यक्ति की आज जो प्रतिष्ठा और मान-मर्यादा है,उसके पीछे उसकी भाषा में अभ्यास का फल है,शिक्षा,संस्कृति और वातावरण मिलकर भविष्य का निर्माण करते हैं,जीवन की एक शैली,एक संभावना का लक्ष्य और प्रयास उत्कृष्ट प्रदर्शन करने की राह प्रशस्त करते हैं। नकारात्मक सोच जीवन को अकर्मण्य बनाकर पीछे धकेल देती है,जीवन की यात्रा में निरंतर बदलाव की मानसिकता हो, आज के जीवन की गति को आगे ले जाने वाला सुलझाया विचार,तथ्य,साध्य कल अटकाव बन सकता है,क्योंकि जीवन हर पल नवीनतम चादर ओढ़ता रहता है। आज की जटिलताओं पर उठे प्रश्न के उतर जो आज सार्थक जान पड़ता है,कल निरर्थक जान पड़ सकते हैं। स्थितियां बदल जाती है पर प्रश्न अनसुलझे रहे जाते हैं,और जीवन अपनी रफ्तार चलता है पर भविष्य की रफ्तार धूमिल और अंधेरे से घिर जाती है। ऐसे में पथप्रदर्शन का उपाय हमारी भाषा में लिखें-कहें,अपनी संस्कृति का अहसास करवाने वाले दस्तावेज ही हैं।
सीधा-साफ निष्कर्ष और रहस्य यही है, कि हमारे साहित्यकार बंधु व्यक्ति की उन्नति के रास्ते अपनी भाषा और संस्कृति के उच्च स्तरीय उद्देश्य को साहित्य में प्रकट करें, क्योंकि सारी राहें भाषा व संस्कृति से निकलती है। कोई भी व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुकूल होकर ही आगे बढ़ सकता है। अपना सारा कौशल,ज्ञान और प्रयास स्वभाव की पृष्ठभूमि पर ही ऊँची चढ़ान की अनुकूलता को आत्मसात कर इच्छित मंजिल या लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। अपने स्वभाव के प्रतिकूल होकर अधोगति जरूर संभव है,प्रत्येक व्यक्ति को अपने भविष्य के उत्थान और पूर्णता के अहसास के लिए,भाषा के साथ भारतीय संस्कृति के मूल्यों से सफलता के लिए स्वयं पर ही निर्भर होना होगा। भीतर की क्षमताओं को एकाग्र कर,कमजोरियों से यत्नपूर्वक छुटकारा प्राप्त कर भविष्य के लक्ष्य को खोजना होगा, और वहां तक अपने ही भरोसे पहुंचना होगा। राहों के संगी हौंसले के साथी नहीं,प्रतिस्पर्धा के खिलाड़ी हैं,अतः यह तय है कि भविष्य का निर्माण अपनी-अपनी क्षमता से भाषा से व संस्कृति से करना है। हाँ,सांस्कृतिक ‘एकाग्रता’ की मंजिल प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

परिचय–छगनलाल गर्ग का साहित्यिक उपनाम `विज्ञ` हैl १३ अप्रैल १९५४ को गाँव-जीरावल(सिरोही,राजस्थान)में जन्मे होकर वर्तमान में राजस्थान स्थित आबू रोड पर रहते हैं, जबकि स्थाई पता-गाँव-जीरावल हैl आपको भाषा ज्ञान-हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती का हैl स्नातकोत्तर तक शिक्षित श्री गर्ग का कार्यक्षेत्र-प्रधानाचार्य(राजस्थान) का रहा हैl सामाजिक गतिविधि में आप दलित बालिका शिक्षा के लिए कार्यरत हैंl इनकी लेखन विधा-छंद,कहानी,कविता,लेख हैl काव्य संग्रह-मदांध मन,रंजन रस,क्षणबोध और तथाता (छंद काव्य संग्रह) सहित लगभग २० प्रकाशित हैं,तो अनेक पत्र-पत्रिकाओं में भी रचनाएं प्रकाशित हुई हैंl बात करें प्राप्त सम्मान -पुरस्कार की तो-काव्य रत्न सम्मान,हिंदी रत्न सम्मान,विद्या वाचस्पति(मानद उपाधि) व राष्ट्रीय स्तर की कई साहित्य संस्थानों से १०० से अधिक सम्मान मिले हैंl ब्लॉग पर भी आप लिखते हैंl विशेष उपलब्धि-साहित्यिक सम्मान ही हैंl इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी भाषा का प्रसार-प्रचार करना,नई पीढ़ी में शास्त्रीय छंदों में अभिरुचि उत्पन्न करना,आलेखों व कथाओं के माध्यम से सामयिक परिस्थितियों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास करना हैl पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचंद व कवि जयशंकर प्रसाद हैंl छगनलाल गर्ग `विज्ञ` के लिए प्रेरणा पुंज- प्राध्यापक मथुरेशनंदन कुलश्रेष्ठ(सिरोही,राजस्थान)हैl

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