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‘भाषा’ का दिवस..अंधी दौड़

राधा गोयल
नई दिल्ली
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अपनी संस्कृति और संस्कारों को जब हम स्वयं अपने जीवन और लोक व्यवहार में नहीं ला पा रहे हों और उस पर भी पश्चिमी खुलेपन के लिए लाल कालीन बिछाने के बाद यह अपेक्षा करना कि हमारी नई पीढ़ी उस आकर्षण से बिल्कुल अछूती रहकर हमारी अपनी पारंपरिक नैतिक मान्यताओं से चिपकी रहेगी,तो जिसे हम खुद ही नहीं अपना पा रहे हैं…अपने बच्चों में ढूँढना कितना व्यावहारिक है…। इस पर ज्यादा कुछ कहना जरूरी नहीं है। नैतिकता की खासियत भी यही है कि उसे आरोपित नहीं किया जा सकता है,वह अपना रास्ता खुद तलाश करती है। वह लोगों के बीच रहती है। उनके जीवन में हो रहे नए-नए बदलावों के बीच रोज अपना स्वरूप बदलती है। सदियों से यही उसका धर्म रहा है। यही वह कर रही है। समस्या यह है कि वे चाहकर भी नैतिक मानदंडों को लेकर चिंतित नहीं हो पाते,क्योंकि यह उन्हें भी बखूबी मालूम है कि भारत जैसे देश में सांस्कृतिक,धार्मिक,भौगोलिक विविधता वाले समाज में लोगों के आचरण पर उनका थोड़ा-सा भी नियंत्रण संभव नहीं है। नैतिकता के नाम पर हद से हद थोड़ा-बहुत नियंत्रण हो सकता है पर,पिछले कुछ वर्षों में जिन विषयों पर नेतृत्व के पहरूओं की नजर पड़ी है,वह सारे बाजार के पैदा किए हुए विषय हैं। विडंबना यह है कि हम सब खुद भी इसी बाजार के उपभोक्ता हैं। स्त्रियों के पहनावे में आया बदलाव,फिल्में,वैलेंटाइन-डे,बार बालाओं का पेशा इन सभी के तार कहीं ना कहीं बाजार से जुड़े हैं। सारा द्वंद्व बाजार और विरोधियों के बीच सिमटा हुआ है,लेकिन यह भी है कि जिसका जितना विरोध होता है,वह बाजार में उतना ही चर्चित हो जाता है। पश्चिमी दिवस इसके उदाहरण हैं।
आजकल के बच्चे अपने-आपको आधुनिक दिखाने की होड़ में अंग्रेजी बोलना अधिक पसंद करते हैं। पसंद क्या,उन्हें हिंदी भाषा आती ही नहीं है। गिनती और पहाड़ा…यहाँ तक कि सब्जियों और फलों के नाम भी हिंदी में नहीं आते। और तो और…संबंध भी अंकल-आंटी में सिमटकर रह गए हैं। नहीं मालूम,मौसा,फूफा,चाचा,ताऊ हैं…मौसी, बुआ,चाची,ताई हैं। इसमें कुछ दोष माता-पिता का भी है। वे भी आजकल यही सोचते हैं कि यदि उनके बच्चे हिंदी में बात करेंगे तो उन्हें आधुनिक नहीं समझा जाएगा,जबकि वे यह भूल जाते हैं कि मातृभाषा बच्चे की वह भाषा होती है,जो वह अपनी माँ से सीखता है। इन आधुनिक माताओं को भी क्या कहा जाए,जो इस बात को नहीं समझतीं कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में वे इतनी दीवानी हैं कि बच्चों को अपनी ही भाषा से वंचित करने में उनका ही सबसे ज्यादा योगदान है।
‘हिन्दी दिवस’ मनाया जाता है,जो मात्र दिखावा है। भाषा का दिवस मनाया जाना अनूठा है। किसी अन्य देश में इसकी मिसाल मिलना शायद मुश्किल हो,लेकिन बात अगर भाषा का याद दिवस मनाने की हो तो यह कतई खुशी की बात नहीं है और यह इल्जाम किसी और भाषा के सिर पर मढ़ना तो और भी गलत होगा कि,उसकी वजह से हम अपनी भाषा भूल गए।
ये हम ही हैं जो अपनी इच्छा अपने बच्चों पर थोपते हैं। अति आधुनिक बनने की चाह में हम अपने नन्हें बच्चों से भी अपनी मातृभाषा में बात न करके अंग्रेजी शब्दों का ही इस्तेमाल करते हैं। १ वर्ष के बच्चे को भी यदि गाय के बारे में बताना है तो हम यह नहीं कहेंगे कि ‘बेटा ये गाय है’,बल्कि कहेंगे-‘लुक माई सन,दिस इज़ काऊ’, और बेचारे बच्चे इसी प्रकार रटेंगें। उन्हें हिन्दी में गिनती तक नहीं आती। यह तो तब है…जब हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। देश के सभी राज्यों में बोली व समझी जाने वाली भाषा है। बड़ी वेदना होती है यह सब कुछ देखकर। लोगों की इसी मानसिकता से आहत होकर कविता लिखी थी-
राष्ट्रभाषा की वेदना
‘अंग्रेजी के दत्तक पुत्रों,आज रो रही भारती,
कोख से जिसकी जन्म लिया,वह माता आज पुकारती।
आज रसातल को जाता है मेरा भारत देश,
मेरे बच्चों भूल गये तुम क्यों अपना परिवेश ?

खान-पान और रहन-सहन,बोली भी हुई विदेशी,
मेरे बच्चों मुझको ही तुम,लगते हो परदेशी।
कोख से मेरी जन्म लिया हाँ! मेरी कोख लजाई,
अपने ही बच्चों को मैं लगती हूँ आज पराई।

जिस भाषा में तुतलाए तुम,भूल गए वो भाषा,
दूध कलंकित किया मेरा,टूटी सारी अभिलाषा।
क्या स्वरूप गंदा मेरा,जो धक्का मुझे दिया है ?
किसी दूसरे की माता को,घर में स्थान दिया है।

जिसने जन्म दिया…पाला…उसका अपमान किया है,
जिसने केवल गोद लिया,उसका सम्मान किया है।
इसीलिए मेरे अंतर में,आज जल रही ज्वाला,
मेरे ही पुत्रों ने दी है अपमानों की हाला।

अंतर में जो आग जल रही,कैसे उसे बुझाऊँ ?
देश निकाला दिया सुतों ने,ठौर कहाँ अब पाऊँ ?
ठौर कहाँ अब पाऊँ ?’
टी.वी चैनल पर कुछ-एक धारावाहिक हैं,जिनके माध्यम से संस्कारों और संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है,वरना तो केवल अनुशासनहीन काँव-काँव होती है। यह समझ ही नहीं आता कि कोई क्या बोल रहा है। उस समय या तो टी.वी. फोड़ने का मन करता है या अपना माथा, क्योंकि जिनका माथा फोड़ना चाहते हैं,वे कहाँ मिलेंगे…??
हिन्दी भाषा के जानकारों के लिए रोजगार के अवसर तो हैं ही,लेकिन साथ-साथ हमें अपनी हिंदी भाषा को प्रोत्साहित करने की भी जरूरत है। अपनी राष्ट्रभाषा के लिए छोटे-छोटे प्रयास तो हम लोग कर ही सकते हैं।

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