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महामहिम ने कही चयन परीक्षा वाली मेरे मन की बात

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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‘संविधान दिवस’ पर दिल्ली के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भारत की राष्ट्रपति महामहिम द्रौपदी मुर्मू ने मेरे मन की वही बात कह डाली, जिसे मैं कई वर्ष से कहता चला आ रहा हूँ। राष्ट्रपति ने कहा कि, संवैधानिक ढांचे में न्यायपालिका का स्थान अद्वितीय है एवं बेंच और बार में भारत की अद्वितीय विविधता का अधिक विविध प्रतिनिधित्व निश्चित रूप से बेहतर न्याय के उद्देश्य को पूरा करने में मदद करेगा। राष्ट्रपति मुर्मू ने कहा कि इस प्रक्रिया को तेज करने का एक तरीका एक ऐसी प्रणाली का निर्माण हो सकता है, जिसमें योग्यता आधारित प्रतिस्पर्धी और पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से विभिन्न पृष्ठभूमि से न्यायाधीशों की भर्ती की जा सके। राष्ट्रपति ने नए आईएएस और आईपीएस के चुने जाने की प्रक्रिया का जिक्र कर संकेत दिया कि, कुछ उस तरह की प्रक्रिया होनी चाहिए। उन्होंने एक तरह से कहा कि जिस तरह केंद्र सरकार के अफसर यूपीएससी परीक्षा से चुनकर आते हैं, वैसे ही उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को भी प्रतियोगी परीक्षा में चुनकर आना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक अखिल भारतीय न्यायिक सेवा हो सकती है, जो प्रतिभाशाली युवाओं का चयन कर सकती है और उनकी प्रतिभा को निचले स्तर से उच्च स्तर तक पोषित और बढ़ावा दे सकती है।
यही बात मैं काफी समय से कहता चला आ रहा हूँ। (पूर्व प्रकाशित आलेख का अनुच्छेद क्र. ५ (ii) देखें।) मेरे द्वारा कही जाती रही बात
(जनभाषा में न्याय के लिए न्यायिक आयोग का गठन किया जाए) भारत की राष्ट्रपति द्वारा कहा जाना अति महत्वपूर्ण व सुखद है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि इससे बढ़कर जुल्म क्या हो सकता है कि मुझे अपने देश में इंसाफ पाने के लिए भी अंग्रेजी की मदद लेनी पड़े, लेकिन उनके समर्थन से बने प्रधानमंत्री उन्हीं का नाम लेकर बनी सरकार के नेतृत्व और लंबे शासन के बावजूद राष्ट्रपिता के विचारों को ताक पर रख दिया गया और न्यायपालिका में अंग्रेजी का वर्चस्व स्थापित किया गया। भारत का संविधान लागू होने के पश्चात से ही समय-समय पर समाज के विभिन्न तबकों से यह मांग उठती रही है कि, निचली अदालतों से लेकर उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में भी भारतीय भाषाओं में न्याय का प्रावधान किया जाए, लेकिन कहना अनुचित न होगा कि जनतंत्र और जन-अपेक्षाओं के बावजूद तत्कालीन सरकारों और न्यायपालिका द्वारा इस मामले को हमेशा दबाया जाता रहा।
संविधान के अनुच्छेद ३४८ में कहा गया है कि किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्‍य स्थान उस राज्य में है, हिन्दी भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा। इसके अनुरूप भी प्रारंभ से जनभाषा में न्याय की माँग की जाती रही है। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान को छोड़कर अन्य राज्यों में माँग किए जाने पर भी उनके राज्यों में स्थित उच्च न्यायालयों में उस राज्य की भाषा में न्याय का मार्ग नहीं खुल सका। इन राज्यों को छोड़कर किसी भी राज्य के उच्च न्यायालय में ऐसी व्यवस्था नहीं है। ऐसी माँगों के बावजूद हर स्तर पर जनता की जनभाषा में न्याय की माँग की विभिन्न स्तरों पर उपेक्षा होती रही। ऐसा भी नहीं है कि, अन्य किसी राज्य ने अपने उच्च न्यायालय में राज्य की जनभाषा में न्याय की मांग न की हो, लेकिन फिर भी तमिलनाडु, गुजरात और बंगाल जैसे कई राज्यों द्वारा राष्ट्रपति को भेजे गए प्रस्ताव के बावजूद राष्ट्रपति की अनुमति नहीं मिल सकी।
कारण यह कि, संवैधानिक उपबंधों के बावजूद तत्कालीन सरकार द्वारा १९६५ के मंत्रिमंडल के निर्णय से इस मामले में उच्चतम न्यायालय की सहमति लेना आवश्यक कर दिया गया। सब समझते हैं कि, न्यायपालिका पर अंग्रेजी हावी है। इसलिए, जब यह मामला उच्चतम न्यायालय की सहमति के लिए गया तो उसने सहमति नहीं दी। यानी एक मंत्रिमंडलीय निर्णय के माध्यम से जनभाषा में न्याय के मार्ग को बाधित कर दिया गया। यानी चालाकीपूर्ण ढंग से संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार को और जनभाषा में न्याय के मार्ग को बाधित कर दिया गया।
जनभाषा में न्याय को लेकर विभिन्न राज्यों में राज्य की भाषा को लेकर और हिंदी के प्रयोग को लेकर समय-समय पर छोटी-बड़ी आवाजें उठती रही हैं, हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रयोग को लेकर कार्य कर रहे अनेक विद्वान, पत्रकार, राजनेताओं, भाषा-सेवियों, समाजसेवकों, जागरूक अधिवक्ताओं और भारतीय भाषाओं से जुड़ी संस्थाओं द्वारा इस संबंध में माँग की जाती रही है। निचली अदालतों में तो कमोबेश राज्यों की राजभाषा का प्रयोग होने लगा, हालाँकि वहाँ भी अंग्रेजी समर्थकों व नौकरशाहों द्वारा अनेक अड़ंगे लगाए हुए हैं, यहाँ तक कि बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश इन राज्यों से अलग हुए राज्यों, झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में जहाँ इन राज्यों की भाषा के अनुरूप हिंदी उच्च न्यायालयों की भाषा होनी चाहिए थी, वहाँ भी ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेजी का शिकंजा इतना मजबूत कि, न्यायतंत्र के नक्कारखाने में भारतीय भाषाओं की माँग तूती की आवाज बन कर रह गई है।
पिछले कुछ समय से फिर जनभाषा में न्याय की माँग ने तूल पकड़ा है। आजादी के अमृत महोत्सव में न्यायतंत्र में अंग्रेजी के एकाधिकार से आजादी की माँग पर बहस होने लगी है। कई भारतीय-भाषा प्रेमी अधिवक्ता आए दिन विभिन्न अदालतों में जनभाषा में अपने वादियों के मुकदमों के साथ-साथ जनभाषा में न्याय की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। कई समाजसेवी और भारतीय भाषा-प्रेमी भी अदालतों की फटकार और जुर्माने आदि का सामना करते हुए जनभाषा में न्याय के सेनानी के रूप में संघर्ष करते रहे हैं। विचार गोष्ठियों व परिचर्चाओं आदि में यह एक प्रमुख मुद्दा बन कर उभरा है। ३० अप्रैल २०२२ को ही नई दिल्ली में भारत के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति रमण ने जनभाषा में न्याय की पैरवी कर दी। उसके बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने भी न्याय के लिए जनभाषा में न्याय को आवश्यक बताते हुए इस दिशा में आगे बढ़ने के संकेत दिए। यह अभूतपूर्व और ऐतिहासिक था।
अब प्रश्न यह उठता है कि, जनभाषा में न्याय की राह क्या हो। इसे कैसे किया जाए ? संविधान और विधि से लेकर न्यायतंत्र में जहाँ ७५ वर्षों से अंग्रेजी का साम्राज्य है। लगभग समग्र न्याय प्रणाली और व्यवस्था अंग्रेजी में व्याप्त हैं, वहाँ जनभाषा का सूर्य कैसे उगे। इस संबंध में मुंबई उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति मा. राजन कोचर का कहना है कि जनभाषा में न्याय की बात तो अच्छी है। भारत के प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायधीश द्वारा इसे स्वीकार किए जाने के बाद निश्चय ही महत्वपूर्ण है। इससे रास्ता खोलने की बात तो हुई है, लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि यह कार्य कैसे किया जाए ? वर्तमान व्यवस्था को बदल कर नई व्यवस्था कैसे बनाई जाए ? इसके लिए विवेकपूर्ण ढंग से विचार करते हुए रास्ता बनाना पड़ेगा।
‘न्यायपालिका में भारतीय भाषाएँ’ विषय पर केंद्रीय हिंदी संस्थान, विश्व हिंदी सचिवालय तथा अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के तत्वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से आयोजित ई-संगोष्ठी में पूर्व राज्‍यपाल तथा राजस्थान उच्च न्यायलय के पूर्व मुख्य न्‍यायाधीश न्यायमूर्ति विष्‍णु सदाशिव कोकजे ने कहा कि, यदि सरकार अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ शासन-प्रशासन के कामकाज में हिंदी भाषा अख्तियार कर ले तो हिंदी सहज तौर पर न्याय की भाषा भी बन जाएगी। अगर शासन-प्रशासन में अंग्रेजी चले और न्यायपालिका में जनभाषा की बात हो तो यह कैसे संभव होगा। इसी संगोष्ठी में उपस्थित बार कौंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा ने आजादी के ७५ साल पूरे होने के बाद भी हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं को न्यायालयों व अन्य प्रशासनिक कामों में वह जगह न मिलने को विडंबनापूर्ण और कहा कि इसके लिए सभी मोर्चों पर सभी को मिल-जुलकर रणनीति बनानी होगी।
तमाम विचारों, सुझावों व समस्याओं को ध्यान में रखते हुए जनभाषा में न्याय के लिए मुख्य रूप से निम्न क्षेत्रों में कार्य किए जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है।
◾न्याय की भाषा अथवा भाषाएँ-
🔸 जनभाषा अथवा भारतीय भाषाओं में न्याय की बात करते समय सर्वप्रथम प्रश्न तो यह है कि न्याय के लिए कहाँ किस भाषा का प्रयोग किया जाए इसके लिए संविधान के अनुच्छेद ३५० को आधार बनाया जा सकता है, जिसमें लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यथा के निवारण के लिए संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को, यथास्थिति, संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का हकदार होगा।
🔸इस प्रकार प्रत्येक उच्च न्यायालय में राज्य की राज्य भाषा में (यदि १ से अधिक भाषाओं को मान्यता दी गई है तो किसी एक प्रमुख भाषा में) तथा संघ में प्रयुक्त हिंदी व अंग्रेजी न्याय की व्यवस्था की जानी चाहिए।
🔸उच्चतम न्यायालय में संघ की व्यवस्था के अनुसार न्याय-व्यवस्था संघ की राजभाषा हिंदी में और संघ में प्रयुक्त (अघोषित सह राजभाषा) अंग्रेजी में की जानी चाहिए।
🔸अंग्रेजी का प्रयोग मुख्यत: वादी की सुविधा के लिए नहीं बल्कि शासन, प्रशासन तथा अधिवक्ताओं-न्यायाधीशों की सुविधा के लिए किया जाता रहा है। इसलिए यह उपबंध भी किए जाने की आवश्यकता है कि सुनवाई उस भाषा में ही हो जिसमें वादी अपनी बात सहजता से रख सके। यदि माध्यम का चयन अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों की सुविधा पर छोड़ा गया तो जनभाषा में न्याय का सपना साकार न हो सकेगा।
◾संघ व राज्य की राजभाषाओं में विधि-निर्माण-
🔸सपूर्ण न्याय-व्यवस्था संविधान और उसके अंतर्गत संघ व राज्यों में विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों से संचालित होती है। इसलिए संघ व राज्य की राजभाषा में न्याय की व्यवस्था के लिए यह उचित होगा कि नवनिर्मित यथास्थिति संघ व राज्य की भाषाओं में अधिसूचित किए जाएँ।
🔸यह भी उचित होगा कि मूल रूप से कानून यथास्थिति संघ या राज्य की भाषा में पारित किए जाएँ और भारतीय भाषाओं में कानूनी रूप को मान्यता मिले न कि अंग्रेजी रूप को, ताकि भारतीय भाषाओं में पारित कानूनों को प्रमाणिकता मिल सके। उल्लेखनीय है कि विभिन्न स्तरों पर जहाँ भारतीय भाषाओं में कोई आदेश पारित किया जाता है तो साथ ही यह भी लिखा जाता है कि विवाद की स्थिति में अंग्रेजी रूप ही मान्य होगा। ऐसी स्थिति से भारतीय भाषाओं के स्थान पर अँग्रेजी को स्वत: प्रधानता मिल जाती है। यह जनभाषा में न्याय के अनुकूल नहीं है।
🔸संघ की भाषा में पारित कानूनों को निर्धारित अवधि में राज्यों की भाषाओं में तथा राज्यों में पारित कानूनों को निर्धारित अवधि में संघ की भाषाओं में अनुदित करने की व्यवस्था भी की जानी चाहिए।
🔸उपर्युक्त कानूनों को आवश्कतानुसार यथाशीघ्र द्विभाषी त्रिभाषी रूप में प्रकाशित करके या करवा कर अधिवक्ताओं, न्यायाधीशों तथा जनसाधारण को उपलब्ध करवाया जाना चाहिए।
🔸जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है कि कानून जनता की भाषा में कानूनी भाषा के साथ-साथ जनसामान्य को समझ में आनेवाली सरल भाषा में भी उपलब्ध करवाए जाएँ, जिसे सामान्य नागरिक कानूनों को सरलता से समझ सकें।
🔸राज्य सरकार के विधि मंत्रालय की वेबसाइट पर ये सभी त्रिभाषा रूप में उपलब्ध करवाए जाने चाहिए।
◾राज्य व संघ व की भाषाओं में विधि शिक्षा-
🔸सबसे महत्वपूर्ण है विधि की शिक्षा। न्याय के माध्यम के साथ ही विधि-शिक्षा के माध्यम को भी प्राथमिक रूप से राज्य की राजभाषा में और उसके साथ-साथ त्रिभाषा सूत्र के रूप में संघ में प्रयक्त की जानेवाली भाषाओं में दिए जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
🔸यह भी उचित होगा कि पाठ्य-सामग्री भी त्रिभाषी रूप में उपलब्ध हो।
🔸विधि-शिक्षा की वेबसाइट पर ये सभी राज्य तथा संघ प्रयुक्त भाषाओं में यानी त्रिभाषा रूप में उपलब्ध करवाए जाने चाहिए।
◾संघ व राज्य की राजभाषाओं में विधि व पूर्व-निर्णयों का अनुवाद-
🔸नई बनाए जाने वाली विधि के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि पूर्व में बनाई गई विधि का भी अविलंब राज्य व संघ की भाषा में अनुवाद सुनिश्चित किया जाए।
🔸पूरी न्याय व्यवस्था विधि और पूर्वनिर्णयों के आधार पर आगे बढ़ती है। इसलिए यह भी आवश्यक है कि, उच्चतम न्यायालय और राज्य के उच्च न्यायालय के निर्देशों तथा महत्वपूर्ण निर्णयों का भी इसी प्रकार अनुवाद करवा कर उपलब्ध करवाया जाए।
🔸विधि के अनुवाद के लिए संघ के विधायी आयोग की तर्ज पर राज्यों में भी संस्थाएँ गठित की जा सकती हैं, जिनमें उन भाषाओं में पारंगत सेवा-निवृत्त न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की सेवाएँ तथा अनुवाद संबंधी आधुनिक अद्यतन उच्चस्तरीय सॉफ्टवेयरों की भी मदद ली जा सकती है।
◾न्यायाधीशों की भर्ती प्रक्रिया तथा पदोन्नति व तैनाती प्रणाली-
🔸इस बात पर ध्यान देने की आवश्कता है कि लंबे समय तक अपवादों को छोड़ कर राज्य उच्च न्यायालयों में राज्यों की निचले न्यायालयों से पदोन्नत न्यायाधीशों की ही नियुक्ति होती रही है। इनमें से बहुत कम ही उच्चतम न्यायालय तक पहुंचते हैं। इस व्यवस्था के अनुसार भी राज्य के अधिवक्ता और उनमें से बने न्यायाधीश आसानी से उच्च न्यायालय तक में राज्य की भाषा में न्याय कर सकते हैं।
🔸सभी स्तरों पर राज्य व संघ की भाषा में न्याय मिल सके, इसके लिए प्रशासनिक व्यवस्था के अनुरूप राज्य न्यायिक सेवा आयोग व संघीय न्यायिक सेवा आयोग का गठन किया जाना चाहिए। आईएएस, आईपीएस की भांति न्यायमूर्तियों के लिए न्यायिक भाषा के ज्ञान की परीक्षा व न्यायिक भाषा-प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए। सभी स्तरों पर न्यायाधीशों की भर्ती, नियुक्ति व तैनाती के लिए अखिल भारतीय स्तर पर पुलिस-प्रशासन की तरह संवर्ग व्यवस्था के अनुरूप प्रशिक्षित करते हुए संघ राज्य में न्याय के लिए शिक्षित- प्रशिक्षित किया जा सकेगा।
🔸जब अधिवक्ताओं और न्यायाधिशों को प्रारंभ से ही ज्ञात होगा कि, उन्हें न्याय-प्रक्रिया के लिए-किन भाषाओं के प्रयोग की आवश्यकता होगी तो वे प्रारंभ से ही इसके लिए तैयार हो सकेंगे।
◾शासन-प्रशासन के कार्य की भाषा-
🔸न्याय प्रक्रिया में तथ्यों के आधार साक्ष्य के रूप में होते हैं। सरकारी दस्तावेज, निर्णय, आदेश-निर्देश, रिपोर्ट-विवरण व टिप्पणियाँ आदि अथवा पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी व आगामी कार्रवाई, यदि ये जनभाषा में न होंगी तो जनभाषा के रथ का पहिया कैसे आगे बढ़ेगा ? इसलिए यह भी आवश्यक है कि सरकार द्वारा दृढ़ इच्छा शक्ति दिखाते हुए शासन-प्रशासन में यथास्थिति संघ अथवा राज्य की राजभाषा का प्रयोग सुनिश्चित करने के लिए नियमों-कानूनों व व्यवस्था में आवश्यक सुधार करते हुए राजभाषा का प्रयोग सुनिश्चित किया जाए।
◾अधिवक्ताओं व न्यायाधीशों के प्रशिक्षण की व्यवस्था-
🔸न्यायिक व्यवस्था को जनभाषा में लाने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन तो करना ही होगा, लेकिन वर्तमान व्यवस्था में जो अधिवक्ता और न्यायाधीश हैं उनकी सुविधा के लिए विभिन्न स्तरों पर न्यायिक अकादमियों अथवा विधि मंत्रालय के माध्यम से गठित प्रशिक्षण व्यवस्थाओं के माध्यम से इन्हें जनभाषा में न्याय के लिए तैयार किया जा सकता है।
🔸कहा जाता है आवश्यकता सब सिखा देती है, जब व्यवस्था बदलेगी तो कुछ ही समय में सब तैयार हो जाएगा। महात्मा गांधी के अनुसार जब माध्यम बदलेगा तो उसके अनुसार पाठ्य- पुस्तकें, शिक्षण संस्थान आदि भी स्वयंमेव पीछे-पीछे चले आएँगे। माँग-पूर्ति का सिद्धांत अपना काम करेगा।
◾जनभाषा में न्याय की व्यवस्था के लिए आयोग का गठन-
🔸उपर्युक्त सभी बिंदुओं और इस उद्देश्य के लिए अपेक्षित अन्य बिंदुओं पर सूक्ष्मता से विचार कर अपनी संस्तुति देने के लिए आवश्यक है कि जनभाषा में न्याय की व्यवस्था के लिए एक आयोग का गठन किया जाए, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रमण (सेवानिवृत्त होने वाले हैं, या ऐसे किसी अन्य वरिष्ठ सेवानिवृत्त न्यायाधीश को अध्यक्ष) और ऐसे ही सदस्यों के रूप में कुछ जनभाषा में न्याय के समर्थक न्यायमूर्ति, बार कौंसिल के अध्यक्ष, विधि विशेषज्ञ तथा विधि मंत्रालय के अधिकारियों को रखा जा सकता है। आयोग द्वारा विचार से अपनी संस्तुति देने से लेकर इस पर विचार करते हुए कार्ययोजना बनाने, संविधान व अधिनियम आदि बदलने से लेकर कार्यान्वित करने में भी लंबा समय लगेगा। इसलिए अब यह कार्य अविलंब प्रारंभ किया जाना चाहिए।

संक्षेप में यही कि, जनतंत्र और जन आवश्यकताओं के अनुरूप जनता की भाषा को सम्मान देने के लिए जब सरकारें दृढ़ निश्चय से निर्णय लेंगी तो जनभाषा में न्याय के लिए न्यायिक व्यवस्था बदलने में भी देर न लगेगी। राह में राजनीति, लाभ-लोभ में सने वकीलों व न्यायाधीशों के विरोध आदि अनेक बाधाएँ भी होंगी। इन बाधाओं को प्रबल इच्छाशक्ति से दूर किया जा सकता है।