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माँ… तेरा साथ

ज्योति नरेन्द्र शास्त्री
अलवर (राजस्थान)
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बिना मांगे भी चुपके से,
एक और रोटी मेरी थाली में सरका देती है
वो मेरी माँ है जनाब,
अपने हिस्से का खाना मुझे खिला देती है।

पढ़ी-लिखी नहीं है वो बिल्कुल भी,
पर मेरी किताबों को ठिकाने पर सजा देती है
दुनियादारी की तमाम बातें,
वह मुझे बातों ही बातों में सिखा देती है।

ससुराल से जब कभी,
मेरा मायके आना होता है
माँ प्यार से मुझे अपने पास बिठाती है,
सुर्ख पड़े गेसुओं को वह कंघी से सजाती है।

उदास चेहरा देखकर वह,
वह मेरे दुःखो को जान जाती है
देकर मुझे अपने हिस्से की खुशियाँ,
मेरे हिस्से का गम पी जाती है।

देकर अपने हाथों की थपकियाँ,
तुमने बचपन में सुलाया था
सकल प्रेम संसार का माँ,
तुमसे ही पाया था।

जीवन की इस उधेड़बुन में,
मैं जब भी कहीं खो जाती हूँ।
कोई और रहे या ना रहे माँ,
मैं तेरा साथ पथ पर पाती हूँ॥