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मातृभाषा अर्थात स्वभाषा का महत्व

डॉ. विजय कुमार भार्गव
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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स्वतंत्रता सैनानियों ने अपना बलिदान इसलिए दिया था कि उनका देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होकर आत्मनिर्भर और स्वावलंबी बने। उसके लिए उनका मानना था कि भारतीय भाषाएँ हर क्षेत्र में प्रतिष्ठापित हों और हिन्दी भारत की सम्पर्क राष्ट्रभाषा बने। क्या उनका सपना पूरा हुआ या आज मानसिक गुलामी से पीडित़ है,जो राजनीतिक गुलामी से कहीं अधिक हानिकारक है। इसका कारण अंग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व है,जिसकी ताकत अंग्रेजों के शासन की ताकत से कहीं अधिक शक्तिशाली है और अंग्रेजी माध्यम की शालेय शिक्षा से यह ताकत घर-घर में बढ़ती जा रही है। स्वतंत्रता के बाद स्वार्थवश अंग्रेजी के पक्षधरों द्वारा अंग्रेजी के प्रयोग की दी गई छूट के कारण आज की स्थिति पैदा हुई है, तथा कथनी और करनी में अंतर के कारण स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। दिखाने के लिए भारतीय सत्ताधारी राजनेताओं ने भारतीय भाषाओं को राजभाषा का दर्जा तो दे दिया है,और हिन्दी दिवस पर वे एवं सत्ताधारी बुद्धिजीवी हिन्दी गुणगान करते नहीं थकते,उसके प्रचार के लिए करोड़ों रुपयों का अनुदान देते हैं,पर स्वयं उसका प्रयोग नहीं करते। इसी कारण हिन्दी ही नहीं,अन्य भारतीय भाषाएं भी अंग्रेजी के आगे बौनी पड़ गई है। परिणाम स्वरूप आज आधी सदी के बाद भी राष्ट्र गूँगा है और उसकी कोई पहचान नहीं है। कोई भी भाषा राष्ट्र की सम्पर्क भाषा घोषित नहीं हुई है। हिन्दी जब अपने ही प्रदेश में प्रतिष्ठापित नहीं हुई है तो उसे राष्ट्र की संपर्क राष्ट्रभाषा बनाने का सपना भी पूरा नहीं हो सकता। प्रश्न उठता है कि अंग्रेजी के वर्चस्व से कौन पीड़ित या व्यथित है-व्यक्ति या राष्ट्र या कोई नहीं;यदि नहीं तो चिंतन व्यर्थ है। इसलिए अब समय आ गया है कि भारतीय भाषाओं के प्रतिष्ठापनार्थ विभिन्न पहलुओं पर विचार करें और यदि प्रतिष्ठापन राष्ट्रहित में है तो उसके लिए लिए दृढ़ता से संगठित होकर प्रयास किया जाए।
इसमें विचारणीय है स्वभाषा का मान-सम्मान। हमें स्वभाषा के सम्मान के लिए कार्य करना चाहिए और अपमान से बचाना चाहिए। कोई भाषा सम्मानित तब होती है,जब वह ज्ञान-विज्ञान की वाहक हो,और अपमानित तब जब उसका प्रयोग उस प्रयोजन के लिए नहीं किया जाए जिसके लिए उसको निर्धारित किया गया है। अंग्रेजों के शासन काल में हमारी भाषाएँ न सम्मानित थीं और न हीं अपमानित होती थीं,पर अब अपमानित भी हो रही हैं। आज हमारी भारतीय भाषाएँ राज्यभाषाएँ एवं राजभाषा बनी हुई हैं,पर हकीकत में उनको यह दर्जा प्राप्त नहीं है,अतः वे अपमानित हो रही हैं। सबसे अधिक अपमानित हिन्दी है। इसका कारण स्वभाषा के स्वाभिमान का विलुप्त हो जाना है। अतः स्वभाषा को सम्मान दिलाना या उन्हें अपमान
से बचाने के लिए स्वभाषा के प्रति खोए स्वाभिमान को जगाना होगा।
विचारणीय है कि संस्कृति क्या है और स्वभाषा व संस्कृति का क्या संबंध है ? क्या यह अध्यात्मवाद एवं अपनापन है या हमारे ग्रंथ रामायण,गीता या पूजा पाठ ? प्रतिष्ठित पत्रकार डॉ. झुनझुनवाले का कहना है कि अपने ग्रंथों का अंग्रेजीकरण कर दिया जाए तो एक हमारी संस्कृति बरकरार रहेगी। हाल में कल्याण के एक प्रकाशक ने हनुमान चालीसा को रोमन में निकालने का निर्णय लिया है। अंग्रेजी के किस स्तर के प्रयोग से संस्कृति नष्ट हो रही है ?
अंग्रेजों के शासन काल में जब अंग्रेजी राजभाषा थी तब संस्कृति को इतना खतरा क्यों नहीं था ?
हमारी भाषाओं की मूल प्रवृत्ति अध्यात्मवाद एवं अपनापन है,जबकि अंग्रेजी की भावना भौतिकवाद एवं औपचारिकता है। अंग्रेजों के समय में हमारी शालेय शिक्षा स्वभाषा के माध्यम से होती थी और निजी व्यवहार,जैसे-विवाह इत्यादि के निमन्त्रण पत्र में स्वभाषा का प्रयोग होता था,पर आज अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में दिन-प्रतिदिन बढ़ोत्तरी हो रही है और निजी व्यवहार में भी प्रयोग बढ़ रहा है। निजी व्यवहार को रोकने के लिए अंग्रेजी का प्रयोग करने वाले के साथ असहयोग करना होगा,जैसे अंग्रेजी में आए निमन्त्रणों को स्वीकार नहीं करना और स्वभाषा के प्रति स्वाभिमान को जगाना होगा।
भ्रष्टाचार का कारण है भौतिक सुख के लिए धनोपार्जन। भौतिक सुख का कारण है भौतिकवाद की विचारधारा को अपनाना। जैसा कह चुके हैं कि भारतीय भाषाओं की मूल प्रवृति अध्यात्मवाद एवं अपनापन है, जबकि अंग्रेजी की मूल भावना भौतिकवाद एवं औपचारिकता है। अतः अंग्रेजी को जीवन के हर क्षेत्र में माध्यम के रूप में अपनाने से भौतिकवाद और भौतिकवाद से भ्रष्टाचार बढ़ा है। यदि यह कारण नहीं है तो अन्य कारण क्या है,इस पर विचार आवश्यक है।
किसी भी राष्ट्र एवं उसके जन हित का अर्थ है जन-जन की खुशहाली,आर्थिक सम्पन्नता,आत्मनिर्भरता एवं स्वाभिमान से जीना। विश्व में विकसित राष्ट्रों में ऐसा पाया जाता है। विचारणीय है कि विकसित राष्ट्र बनने में स्वभाषा-जनभाषा की क्या भूमिका है ? यह देखा जा सकता है कि विश्व में विकसित राष्ट्र वही है जिसकी जनभाषा,शिक्षा का माध्यम व कार्यभाषा एक हो। वैज्ञानिक तर्क पर यह सही प्रतीत होता है। किसी भी देश का विकास मौलिक शोध एवं उस देश की धरती के संसाधनों से जुड़े प्रौद्यौगिकी विकास के लिए अनुप्रयोगिक शोध पर निर्भर करता है।
वैज्ञानिक शेाध दो प्रकार के होते हैं मौलिक जिसमें प्राकृतिक नियमों की मूल भूत खोज होती है और अनुप्रयोगिक जो देश विशेष के संसाधनों,पर्यावरण, जलवायु इत्यादि पर आधारित होते हैं। जहाँ मौलिक शोध से देश की आर्थिक सम्पन्नता व उसकी प्रतिभा बढत़ी है,वहीं अनुप्रयोगिक शेाध से आत्मनिर्भरता बढ़ती है। मौलिक शोध का ताजा उदाहरण बिल ग्रेट्‌स द्वारा व्यक्तिगत कम्प्यूटर सिद्धान्त का विकास है। इससे अमरीका की सम्पन्नता बढ़ी। स्वभाषा के कम्प्यूटरों का विकास अनुप्रयोगिक शोध का उदाहरण है।
देश-विशेष की आवश्यकताओं के अनुकूल प्रौद्योगिकी के विकास से ही जन-जन के लिए उपयोगी व्यवसाय विकसित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए घरेलू उद्योग-धंधे यथा कुम्हार का मिट्टी का कुल्लड़,कृषि का विकास। कुल्लड़ का कचरा प्रदूषण पैदा नहीं करता क्योंकि टूटने पर मिट्टी,मिट्टी में मिल जाती है। हमारे देश में किसान गोबर की खाद का प्रयोग करते थे,जो धरती की उर्वरा शक्ति को नष्ट नहीं करती। रासायनिक खाद का उपयोग करके हम अपनी धरती की उर्वरा शक्ति को खो रहे हैं। यदि इस क्षेत्र में शोध किया जाता तो कुल्लड़ को मजबूत किया जाता। कचरा आदि से रसायन रहित खाद का प्रयोग बढ़ाया जाता,तो गाँव-गाँव में व्यवसाय विकसित होते और शहर की ओर दौड़ कम होती। इसी प्रकार परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में धरती से जुड़े शोध का उदाहरण है थोरियम आधारित परमाणु बिजली घर का विकास,क्योंकि हमारे देश में थोरियम का अथाह भंडार है,यूरेनियम का नहीं। अतः थोरियम के परमाणु बिजली घर का विकास हमें आत्मनिर्भर बनाएगा,जबकि यूरेनियम के परमाणु बिजली घरों से हम पश्चिम के विशेषकर अमेरिका पर निर्भर रहेंगे। इसी निर्भरता के कारण शायद हम परमाणु संधि पर हस्ताक्षर करने को विवश हुए हैं। मौलिक और अनुप्रयोगिक दोनों प्रकार के शोध देश की प्रतिभाओं द्वारा होते हैं। दोनों के लिए पहली आवश्यकता है मौलिक-रचनात्मक चिंतन व लेखन एवं ज्ञान का आत्मसात करना। दूसरी आवश्यकता है भाषा पर अधिकार व तीसरी है अपने देश की आवश्यकताओं को समझना। प्रश्न है कि क्या अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाली प्रतिभाएँ इस दिशा में कार्य कर सकेंगी ?
मौलिक चिंतन एवं लेखन में विचारणीय है कि क्या शालेय विशेषकर प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या जनभाषा से अलग भाषा होने पर मौलिक चिंतन समाप्त हो जाता है,क्योंकि उस भाषा को सीखने के लिए रटना पडत़ा है और बौद्धिक विकास के प्रारम्भिक वर्ष दूसरी भाषा के सीखने में ही व्यतीत हो जाते हैं,जबकि स्वभाषा या जनभाषा से सहजता से ज्ञान अर्जित करने के कारण मानसिक विकास होता है। दूसरे विचारों की उड़ान सपनों में होती है और सपने स्वभाषा में ही देखे जाते हैं। मौलिक चिंतन के विकास के लिए सपनों की भाषा एवं शिक्षण भाषा का एक होना आवश्यक है। ज्ञान का आत्मसात स्वभाषा-जनभाषा से ही संभव है,क्योंकि वह जनम से हमारी रग-रग में बस जाती है। दूसरे की भाषा से हम ज्ञान प्राप्त तो कर सकते हैं,पर ज्ञान का सृजन नहीं कर सकते। मौलिक लेखन के लिए विचारों को लिपिबद्ध करने के लिए आवश्यक इच्छा तब ही होगी,जब मौलिक लेखन स्वभाषा या जनभाषा में हो।
व्यक्ति चाहे जितना भी चिंतन कर ले,यदि उसका भाषा पर अधिकार नहीं है तो न तो वह सत्साहित्य को ग्राह्य कर सकता है और न स्वयं को अभिव्यक्त कर सकता है। अपने शोध को समझाने के लिए भाषा पर अधिकार की आवश्यकता होती है। विचारणीय है कि क्या शिक्षा का माध्यम और बोलचाल की भाषा अलग होने से अभिव्यक्ति प्रभावी होगी या हम आधे-अधूरे रहेंगे। सत्य तो यह है कि न तो हम उन लोगों में प्रभावी होंगे,जिनकी मातृभाषा हमारी विद्यालयीन शिक्षा का माध्यम है और न ही अपने लोगों में।
अनुप्रयोगिक शोध के लिए आवश्यक है उस देश की मूलभूत आवश्यकताओं को समझना,उसके संसाधनों, जलवायु एवं परिवेश से परिचित होना। भारत का परिवेश गाँवों से है,अतः गाँवों से जुड़ना आवश्यक है। विचारणीय है कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले लोग हमारे गाँवों की स्थिति दर्शाने वाले समाचार पत्रों एवं स्वभाषा में लिखे साहित्य को न पढ़ने के कारण हमारे गाँवों के परिवेश से न जुड़ कर विदेशी परिवेश से जुड़ रहे हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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