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मानसिक संतुलन के लिए शिक्षा में परिवर्तन आवश्यक

राधा गोयल
नई दिल्ली
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इंसान अपना मानसिक संतुलन इस कदर क्यों खो रहा है कि, छोटी-छोटी बात पर हत्या तक को अंजाम दे देता है। इसका सबसे पहला कारण कि, आजकल संयुक्त परिवारों का चलन खत्म हो रहा है। एकल परिवारों का चलन बढ़ गया है। दादा- दादी के संरक्षण में खून-खराबे जैसी घटनाएं नहीं होती थीं। आजकल परिवार में माता-पिता दोनों ही नौकरी पेशा हैं। उनके पास बच्चों की देखभाल का समय नहीं है। बच्चे आया के भरोसे पल रहे हैं। दूरदर्शन पर अच्छी फिल्मों के साथ-साथ वाहियात फिल्में भी आती हैं। माता-पिता के पीछे आया कौन-सी फिल्म देख रही है और बच्चा भी देख रहा है। एक साल का बच्चा भी हो तो उसके दिलो-दिमाग पर वह सब हावी हो जाता है, क्योंकि फिल्मों में फूहड़ डांस और अश्लील अंग प्रदर्शन होता है। कार्टून फिल्मों तक में मारधाड़। पब जी, ब्लू व्हेल गेम। भौतिक साधनों को जमा करने की होड़ में माता-पिता द्वारा बच्चों की तरफ बिल्कुल ध्यान न दे पाना। पहले कम साधनों में भी जिंदगी जी लेते थे लेकिन आजकल एक प्रतिस्पर्धा-सी चल पड़ी है। उसके पास इतना है, मेरे पास उससे भी ज्यादा होना चाहिए। इस दिखावे ने जिंदगी को अधिक जटिल बना दिया है। ऊपर से हर बच्चे के हाथ में मोबाइल। माता-पिता अपने-आपको अमीर दिखाने के चक्कर में छोटे बच्चों के हाथ में मोबाइल पकड़ा देते हैं। अब क्या मालूम बच्चे उसमें क्या कुछ देखते हैं। जब खुद कभी यूट्यूब पर कुछ देख रही होती हूँ तो अचानक से कई दृश्य देखकर ही शर्म आने लगती है, लेकिन चाहे बच्चे हों या युवा पीढ़ी..वो तो उसको खोलते ही होंगे। देखते ही होंगे, और वह सब करने के लिए लालायित भी होते होंगे। हत्या तक कर डालते हैं।
पहले मोबाइल नहीं होते थे। प्रेरक कहानी की पुस्तकें आती थीं। दादी-नानी भी बच्चों को कहानियाँ सुनाती थीं। एक माता-पिता के ७ बच्चे होने पर भी परिवार का पालन-पोषण बड़े आराम से हो जाता था। आज एक बच्चा है, लेकिन उसका पालन करना ही माता-पिता के लिए मुश्किल हो गया है। कारण केवल यह है कि एकल परिवार हैं। प्रतिस्पर्धा है। साधन संपन्न जीवन जीने की होड़ है। शालाओं में नैतिक शिक्षा का सर्वथा अभाव है, जबकि यह बेहद जरूरी है कि शालाओं में चरित्र विकास पर विशेष बल दिया जाए। माता भी जब गर्भवती हो तो, वह ऐसा साहित्य पढ़े कि गर्भस्थ शिशु पर उसका असर हो।
सबने महाभारत की कहानी पढ़ी होगी। सुभद्रा जब गर्भवती थी तो अर्जुन ने उसे चक्रव्यूह में घुसने की कहानी सुनाई थी।गर्भस्थ अभिमन्यु ने वह कहानी सुनी थी किंतु सुनते-सुनते ही सुभद्रा को नींद आ गई थी। अभिमन्यु चक्रव्यूह से बाहर निकलने की कथा नहीं सुन पाया था और इस कारण बाहर नहीं निकल पाया था। यह बात आजकल भी कहते हैं कि, गर्भवती माता को उत्तम साहित्य, धार्मिक पुस्तकें पढ़नी चाहिए लेकिन आजकल की माताएँ भी कम ही होंगी जो धार्मिक पुस्तकें पढ़ती होंगी।
बच्चों के चरित्र हनन जैसी घटनाओं के लिए कहीं ना कहीं माता-पिता भी जिम्मेदार हैं और शालेय शिक्षा भी। शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है, साथ ही माता नौकरी करती हैं तो उन्हीं कार्यालयों में यदि डे-केयर सेंटर बने हों या शालाओं में ही डे-केयर सेंटर हों तो ऐसी समस्याओं से कुछ हद तक निजात मिल सकती है।
एक बात और- सभी ने सुना होगा ‘जैसा खाए अन्न, वैसा होगा मन।’ आजकल आधुनिक माताओं को खाना बनाना ही नहीं आता। रोटियाँ बाहर से बनी-बनाई आ जाती हैं। फ्रीजर में रखते हैं और गर्म करके खा लेते हैं या बाजार से बना-बनाया खाना मंगा लेते हैं। जो बना रहा है, हमें क्या मालूम कि वह किस मन से बना रहा है।
यह नहीं कह रही कि पाक कला केवल लड़कियों को ही आनी चाहिए, लड़कों को भी आनी चाहिए, ताकि गृहस्थी संभालते समय पति-पत्नी मिल-जुल कर काम कर सकें। उसके लिए खाना पकाने वाली को लगाने की नौबत न आए, क्योंकि जितने भाव से माता-पिता खाना बनाएंगे, वह काम वाली नहीं बनाएगी।

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