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मुक्ति

डोली शाह
हैलाकंदी (असम)
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आज जैसे ही सोने जा रही थी कि, अचानक फोन की घंटी बजी। देखा तो पड़ोस के चाचा जी का फोन था, “अरे समीर जरा बाहर निकलो, रास्ते में कुछ शोर-शराबा हो रहा है।”
जाकर देखा तो एक महिला बड़ी ही बुरी अवस्था में बीच सड़क पर पड़ी थी। ऐसा प्रतीत हुआ कि, कोई अंधा गाड़ी चलाते हुए रात के सन्नाटे में कांड कर के ‘नौ दो ग्यारह’ हो गया हो। कपड़े आदि से पहचान हुई कि, वह नंदिनी है जो दिमाग से थोड़ी कमजोर थी, परिस्थितियों की मारी हुई भी। कभी-कभी तो वह चौराहे पर ही रात बिता देती। भीड़ जम चुकी थी।आस-पास के लोगों के साथ भाई-भाभी भी दौड़े भागे वहां पहुंचे। देखते ही देखते रोने की आवाज पूरे गाँव में फैल गई। सरकारी व्यवस्थाएं भी आ गई। लोगों को घटनास्थल से हटने की सलाह दी गई।
सुरेश जी घर आ गए। आकर कहने लगे-“नंदिनी की भाभी बहुत रो रही थी। ससुराल में घर वालों के नाम पर सिर्फ एक ननद ही मिली थी, वह भी अपनी जवानी में ही चली गई। भगवान उसकी आत्मा को शांति दे। सचमुच दिल दहल गया देखकर…!
पर तुम इतनी चुप क्यों हो!”
“नहीं, सोच रही थी भगवान को तो जो करना था, वह कर चुके, लेकिन इन इंसानों का क्या जो वक्त देख मगरमच्छ के आँसू बहाने से नहीं थकते ! जब तक वह थी, कोई भोजन तक नहीं देता था। बेचारी वह भोजन की तलाश में ठंड में इधर-उधर भटकती और आज जाने के बाद….!”
“अरे हाँ, कल रात ९ बजे मैंने भी उसे मॉल के बरामदे में सोए देखा था।”
“वही तो कह रही हूँ। भगवान ने उसे अपने पास बुलाकर उसके दुखों का अंत किया।”
“लेकिन उसका भाई उसके विवाह के लिए लड़का देख रहा था।”
“अरे जी, वह सब तो बेकार की बात है।”
“अरे नहीं, सही में।”
“फिर तो और अच्छा हुआ कि, एक और घर उजड़ने से बच गया।”

सुरेश जी पत्नी के चेहरे की भावुकता को देख कर बोले, “सचमुच आप सही कह रही हैं।”