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मोबाइल और जिंदगी

संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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आज के परिवेश में मोबाइल हमारे दैनंदिन जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है, अगर साथ में मोबाइल नहीं रहा तो कई लोग परेशान हो जाते हैं। कुछ एक तो अवसाद के शिकार लगते हैं, क्या जादू कर गया है यह ५ इंच का खिलौना। दशहरे के त्योहार के अवसर पर कुछ साल पहले की पंजाब प्रांत की एक घटना याद आई, यही कुछ पौने ८ का समय हुआ होगा और एक दर्दनाक समाचार ने सारे देश को हिलाकर रख दिया था। पंजाब प्रांत में रेल्वे ने १० से १२ लोगों को मसल डाला। रेल की इस दुर्घटना की भीषणता पल-पल बढ़ती ही जा रही थी। थोड़ी ही देर में पता चलता है कि, १०-१२ नहीं, करीब ५० लोगों की मौत हो चुकी है। और फिर एक बहुत ही प्रभावी दृश्य सामने आया, वह यह कि दुर्घटना की घटनाएँ एक मोबाईल के कैमरा में चित्रित की हुई मिली तथा दुर्घटना में मृतकों का जो आँकड़ा बढ़ता गया, उसका कारण स्पष्ट रूप से आईने की तरह सामने आया।
वह दूसरा कुछ और नहीं वह था मोबाईल… और उसका उपयोग करते हुए तन, मन ही नहीं, स्वयं को भूल जाना कि हम कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं, हमारे सामने क्या हो रहा है, या कोई दुर्घटना घट सकती है, इन सब बातों से अनभिज्ञ। घटना स्थल पर रावण दहन का उत्सव बिलकुल रेल की पटरी से सटकर आयोजित किया गया था, और इसी वजह से करीबन हजार-बारह सौ लोग रेल पटरी पर ही खड़े थे। ट्रेन की चपेट में आने से पहले ही सबके हाथ में मोबाइल था, हर किसी के मोबाइल के कैमरा का फ्लेश जलते हुए रावण की ओर चमक रहा था। रावण का संहार वस्तुतः उसके मोबाइल की स्मृति में सहेजा जा रहा था, लेकिन उनके जीवन का वास्तविक अंत दिखाई नहीं दे रहा था। हो सकता है कि, यह कई दुर्घटना पीड़ितों के मोबाइल में सुरक्षित हो गया हो, लेकिन जीवन का खेल खत्म होने के बाद जीवन रेखा का क्या फायदा ? अब इस हादसे के और भी कारण हो सकते हैं। उसे नकारना अनुचित होगा। कहते हैं कि, मरे हुओं के बारे में बुरा बोलना अच्छा नहीं होता, लेकिन रेल की पटरियों पर खड़े होकर मोबाइल दृश्य चित्रित करना बिलकुल बकवास है। यह बेहद मूर्खता का लक्षण है, लेकिन आज के परिवेश में आम लोगों की यह धारणा या मानसिकता ऐसी क्यों बन गई है कि, हर चीज उनके मोबाइल में होनी चाहिए। ऐसा लगता है कि, इस पर चिंतन-संशोधन जरूरी है।
मोबाइल आने के पहले जब हम रास्तों पर चलते थे, कई लोग मिलते थे, दिखाई देते थे। आजू-बाजू की चीजें, उनके आकार, रंग, घटित घटनाएँ आदि सब हम देख पाते थे, क्योंकि उस वक्त हमारी गर्दन ऊपर की ओर उठी हुई रहती थी, पर आज का आलम ये है कि, अगर पिताजी भी बेटे के पास से गुजरे तो बेटा नजरअंदाज कर देता है, क्योंकि मोबाइल के चलते जिसे देखो उसकी गर्दन जमीन की ओर झुकी हुई नजर आती है। उस ३ गुणा ६ इंच की विस्मयकारी अद्भुत दुनिया ने जैसे हमें सम्मोहित कर दिया है। आज हम मुंबई जैसे बड़े शहरों में लोकल या मेट्रो ट्रेन में देखो, तो हर कोई अपने कान में हेडफोन डाल कर बहरा हो गया है, और आँखों में मोबाइल की टच स्क्रीन डालकर अंधा हो गया है। अख़बार या कोई किताब पढ़ने वाला व्यक्ति अब असामान्य लगने लगा है।
सोशल मीडिया पर अगर नोटिफिकेशन नहीं होगा, तो मेरा मानना है कि एक ऐसी पीढ़ी पैदा हुई है, जो परेशान हो जाती है। कहने की जरूरत नहीं है कि, कितने लोग अपनी जेब से अकारण ही मोबाइल निकालते हैं और मोबाइल टोन न बजने पर भी नोटिफिकेशन जाँचते रहते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि, कुछ लोग सोशल मीडिया पर सिर्फ लोगों का ध्यान खींचने के लिए हैं। अपेक्षित लोगों से कोई जवाब नहीं आया, तो सुना है कि वे परेशान ही नहीं;बल्कि हिंसक भी हो जाते हैं!
इस मोबाइल फोन ने हमें बहुत सारी जानकारी दी है, लेकिन इसका क्या और कैसा उपयोग करें ? कितना करना है ? कहाँ करें ? हालाँकि, यह सामान्य ज्ञान नहीं है। यह ऐसा है, जैसे मोबाइल का उपयोग करते समय सामान्य ज्ञान कम हो जाता है। मन पर से नियंत्रण छूट जाता है और मोबाइल हमारे मन पर नियंत्रण कर लेता है।
एक जमाना वो भी था, जब किसी के पड़ोस में कोई नया इलेक्ट्रोनिक उपकरण मसलन- मिक्सी, टीव्ही या फ्रिज आ जाए तो उनके बारे में दूसरे पड़ोसी के मन में ईर्ष्या पैदा होती थी, लेकिन आज ऐसी नौबत नहीं आती। अब कहानी ये है कि, किसकी पोस्ट को कितनी ‘पसंद’ मिली ? टिप्पणी कितनी मिली ? उसके अनुयायी कितने हैं ? बस यही कारण बहुत है एक-दूसरे के बारे में ईर्ष्या पैदा करने के लिए। व्हाट्सअप पर आए हुए नोटिफिकेशन कितने लोग गम्भीरता से पढ़ते होंगे, यह एक मनन-संशोधन का विषय हो सकता है। बगैर पढ़े ऊपर ही ऊपर नजर फेर कर बातचीत मिटाने वाले भी बहुत मिलेंगे, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे, जो एक-आध, दूसरे बिंदु से सहमत ना होंगे, तो झगड़े पर उतारू हो जाते हैं, किन्तु आखिर प्रश्न ये उठता है कि, इन सब हरकतों से क्या हासिल करते हैं या होता है।
इस मोबाइल ने एक और काम किया है कि, जीवन में विशिष्टता हमेशा के लिए ख़त्म कर दी है, क्योंकि हर कोई सब-कुछ जानता है। एक जमाना ऐसा था जब एकाध व्यक्ति किसी खास विषय में पारंगत हुआ करता था। वह पहले…एक विषय पढ़ता था… फिर उस विषय पर अपनी राय दिया करता था, लेकिन अब…व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के इस युग में हर व्यक्ति सब कुछ जानता है। भले ही गलत हो, क्योंकि आज की दुनिया धारणा पर ही जीती है…यहाँ हकीकत ज्यादा मायने नहीं रखती। आज-कल यह धारणा बन गई है कि हर मोबाइल धारक चाहता है कि, उसके मोबाइल में कुछ नया हो, कुछ अजीब हो और भ्रमपूर्ण उम्मीद होती है कि, हर रोमांचक चीज मोबाइल में होनी चाहिए… क्योंकि, इन मोबाइलों ने वास्तविक जीवन के उत्साह को खत्म कर दिया है और इसे अपने हाथ की हथेली तक ही सीमित कर दिया है।
इस मोबाइल के जरिए से हाथ में अल्लाउद्दीन का चिराग तो आया है, लेकिन वो चिराग बुझ गया है और हम उस अँधेरे में…, जो हमारे घर के बड़े-बुजुर्ग टीव्ही की बात किया करते थे, आज मोबाइल की बात करनी पड़ रही है। वैसे, कोई भी तकनीकी विकास या मोबाइल खराब नहीं होता। बस इसका ज्यादा या असंवैधानिक उपयोग खराब है। कितने लोगों ने उक्त हादसे को फेसबुक पर सजीव देखा होगा ? उनके साथ ऐसा क्यों हुआ ? मुफ्त में मिलने वाले डेढ़ जीबी डाटा ने एक बार मिलने वाली जिंदगी ही छीन ली…उसका क्या ? अगर हम कहीं पर्यटन के लिए जाते हैं तो वहाँ देखते हैं कि, लोग वह नजारा अपनी आँखों में समाने की बजाय अपने कैमरे या मोबाइल से तस्वीर लेते हैं, एक यादगार के रूप में जतन करने के लिए, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो उन बिताए हुए लम्हों-नजारों को अपने दिमाग में कायम रखते हैं, जो कभी समाप्त नहीं होते।