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‘म’ का उच्चारण भी ‘न’ करना‌ कैसे सही ?

वैश्विक ई-संगोष्ठी:देवनागरी लिपि और मानकीकरण…

डॉ. उदय कुमार सिंह (सेवानिवृत्त राजभाषा अधिकारी)⤵

मानकीकरण तो सरकार ने किया है तो सरकारी तंत्र उसे माने! ऐसा करने का उद्देश्य‌ सुकरता‌ लाना था, किन्तु उसका प्रभाव ही उल्टा पड़ा! दरअसल, हिन्दी कैसे‌ लिखी जाए,‌ यह सरल हो, आदि नारा व प्रश्न सरकारी कवायद का ही हिस्सा रहा है। अँग्रेजी क्लिष्ट भाषा है-यह कोई नहीं कहता!, किन्तु हिन्दी के प्रयोग व लेखन में गैर हिन्दी भाषियों का नाम लेकर भाषा के स्वरुप को बिगाड़ने की‌ कोशिश अँग्रेजीदाँ ही करते रहे हैं! मानकीकरण का नाटक भी कुछ वैसा ही रहा है। वाग्येन्द्रियों से निकली ध्वनियाँ व उसके आधान को जो नहीं समझते (छंदोग्योपनिषद में पूरा विवरण), वे कुतर्कों के अनुसार हिन्दी के पंचमाक्षर को हटा कर अनुस्वार लिखने की कार्रवाई को प्राधिकृत कर दिए, जो वस्तुत: भाषा विज्ञान की दृष्टि से बिल्कुल गलत ही है। ‘म’ का उच्चारण भी ‘न’ करना‌ कैसे सही माना जा सकता है ? या कैसे किया जा‌ सकता‌ है ? दोनों अलग वर्ण हैं। उनके उच्चारण स्थल ही अलग-अलग हैं, मगर इसके‌ साथ भी छेड़़छाड़़ की गई। जब राजा‌ ही मूर्ख हो, तो प्रजा को ही कुछ करना चाहिए न ? मैं तो सदा पंचमाक्षर का प्रयोग करता रहा, जिसे मानना है माने या चूल्हे-भाड़ में जाए। ‘इण्डिया‌’ ही लिखता‌ रहा, ‘इंडिया‌’ नहीं, ‘सम्पादक’ ही लिखा, ‘संपादक’ नहीं। ‘तन्हा’ ही लिखा जाना सही है, न कि ‘तंहा’, ‘चाँद’ ही लिखना सही है, न कि ‘चांद’। ‘हँस’ और ‘हंस’ का‌ फर्क कैसे मिटा‌या‌ जा सकता है ? हिन्दी‌ की वर्तनी को इस तरह से बिगाड़ने का‌ अधिकार सरकार को भी किसने दिया‌ (?)-यह सवाल किसी ने कभी उठाया‌ क्या ? हम‌ विरोध तो‌ करते नहीं, प्रतिरोध भी नहीं कर पाते ? यह तो कायरता है, मगर किसे क्या‌ कहा जाए। टीए-डीए लेने के चक्कर में मानकीकरण के लिए बनी समितियाँ काहे को सरकार के‌ ऐसे प्रस्तावों का विरोध करेंगी। केन्द्रीय‌ हिन्दी समिति‌ और हिन्दी सलाहकार समितियों‌ की‌ भी यही‌ हालत‌ है। इसकी‌ बैठकें समय पर नहीं होतीं। कोई सवाल नहीं उठाता‌, क्यों ? लोग लोभ और भय के कारण भी कुछ बोलते नहीं! सम्मान कैसे बचे, इसका भी खयाल जिस देेश के शासकों को न हो तो फिर क्या कहने ? हम अपनी एक राय‌ आज तक नहीं बना सके कि, कैसे अपनी भाषा और भाषाओं का सार्थक प्रयोग देश की आम जनता तक, उनके लिए, शासन की बातें पहुँचाने के लिए काम‌ करें! सत्तर से अधिक वर्ष हुए, मगर हम हिन्दी को एकमात्र संघ की राजभाषा के रुप में नहीं लागू कर सके! अँग्रेजी का साम्राज्य आज तक कायम है और आगे भी कायम रहने के ही आसार हैं।‌ दंड‌ का‌‌ कोई प्रावधान है नहीं और थोड़ा बहुत है‌ भी तो उसका दुरुपयोग राजभाषा विभाग में कार्यरत कार्मिकों पर ही कर दिया जाता है! यह दुर्दशा वर्षों से कायम‌ है, चाहे बात जितनी बड़ी़-बड़ी लोग‌ कर लें ? अथक संघर्षों से हिन्दी का प्रयोग जरुर बढ़ा‌ है‌, कम्प्यूटर और इन्टरनेट के आने पर, (मसलन् प्रोद्यौगिकी का विकास व प्रयोग होने पर) किन्तु जिस तरह से हिन्दी का ही प्रयोग होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा। यह बिना संविधान में संशोधन के और अंग्रेजी के प्रयोग को‌ खत्म किए बिना संभव नहीं। ३७० की स्थिति में परिवर्तन हो सकता है तो, राजभाषा के प्रयोग के लिए अंग्रेजी के प्रयोग को निरस्त क्यों नहीं किया जा‌ सकता ? हम चाहे लाख माथा पटकें या धुनें, सरकार के बिना चाहे अँग्रेजी जब तक चलती रहेगी, भारतीय भाषाओं के प्रयोग में सरकारी स्तर पर वह गति नहीं आने वाली, जिसकी हम अपेक्षा करते हैं। फिर भी प्रयत्न तो जारी रखना ही होगा।

डॉ. मोतीलाल गुप्ता (निदेशक, वैश्विक हिंदी सम्मेलन)⤵

मेरा यह स्पष्ट मत है कि महात्मा गांधी, विनोबा भावे सहित विभिन्न स्वतंत्रता सेनानियों, भाषाकर्मियों और विद्वानों आदि द्वारा नागरी लिपि के संबंध में दिए गए वक्तव्यों को बार-बार दोहराने और लिपि की वैज्ञानिकता के गुणगान से ही बात नहीं बनेगी । वर्तमान में नागरी लिपि के सामने जो चुनौतियाँ हैं उन्हें समझना होगा और उसके अनुरूप ऐसी कार्ययोजना बनानी होगी जो वास्तव में लिपि को आगे बढ़ाने में सार्थक भूमिका निभा सके। इसके लिए सबसे जरूरी है भारतीय भाषाओं के लिए प्रौद्योगिकी का विकास, प्रशिक्षण व प्रयोग। इसके लिए विद्यालयों व महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों और परीक्षा में भारतीय भाषाओं के लिए प्रौद्योगिकी को शामिल करते हुए विद्यार्थियों को उसमें पारंगत करना होगा, साथ ही भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में लिखने के बजाय नागरी लिपि में लिखने संबंधी उपाय भी करने होंगे। राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड न केवल नागरी लिपि के लिए, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की लिपि के लिए भी एक समान है। हमें यह मांग करनी होगी कि, सभी राज्यों में हिंदी अथवा अन्य किसी भारतीय भाषा के लिए अनिवार्य रूप से इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड का प्रशिक्षण दिया जाए।
यह भी आवश्यक है कि नागरी लिपि के मानकीकरण में इसकी वैज्ञानिकता को जो नुकसान पहुंचा है, उस पर गंभीरतापूर्वक और विवेकपूर्ण ढंग से विचार करते हुए आवश्यक और अंतिम सुधार कर दिया जाए, ताकि बार-बार मानकीकरण के मुद्दे पर अनावश्यक समय न बिगड़े।

डॉ. रामवृक्ष सिंह (महाप्रबंधक-राजभाषा, सिडबी)⤵

हिन्दी की ठेकेदारी कुछ गैर जानकार लोगों के हाथ चली गई। एक से एक नमूने। निष्ठा का अभाव, जुगाड़ ही उनकी कुल जमा-पूंजी। मानकीकरण और कुछ नहीं, बल्कि टंकण-यंत्र के कुञ्जीपटल पर पूरी नागरी वर्णमाला को अंटाने का प्रयास था। वह उस समय की विवशता थी। आज, यूनिकोड के आने पर वह विवशता नहीं रही, पर हमारे होनहार हिन्दी-सेवी और राजभाषा के नौकरशाह इस बात को नहीं मानेंगे। उन्हें लगता है कि पञ्चम वर्ण के पुनर्प्रचलन से हिन्दी में लिखना कठिन हो जाएगा। उन्हें सॉन्ग, सांग, हॉन्ग, कॉन्ग आदि गवारा है, सॉङ्ग, हॉङ्ग-कॉङ्ग आदि कठिन लगता है। सच्चाई यह है कि, ये लोग हिन्दी में काम ही नहीं करना चाहते। जिस प्रकार ३ ठगों ने साजिशन ब्राह्मण की बकरी को कुत्ता बताकर उसकी बकरी ठग ली थी, उसी प्रकार ये छद्म हिन्दी-सेवक हिन्दी को कठिन बता-बताकर ऐसी हवा तैयार कर रहे हैं कि, हिन्दी प्रचलन से बाहर हो जाए।
दुर्भाग्यवश, हमारे अधिकतर विद्यालयीन हिन्दी शिक्षक और विश्व विद्यालयीन प्राध्यापक भी इस साजिश में शामिल हैं। उनमें से अधिकतर को ‘ङ’ और ‘ञ’ का विवेक नहीं। शब्द-व्युत्पत्ति का ज्ञान नहीं और सबसे ख़राब बात यह कि हिन्दी से प्यार नहीं। यह समूह इन समस्याओं पर काम करे तो इसकी उपादेयता है, वरना नारे, धरने और आमन्त्रण-निमन्त्रण से आगे कुछ होने वाला नहीं है।

डॉ. हरि सिंह पाल (मंत्री, नागरी लिपि परिषद)⤵

नागरी लिपि के मानकीकरण पर इस मंच के विद्वानों का विमर्श सराहनीय है।इस विमर्श को और विस्तार दिया जा सकता है। हाँ, हमें अपने पूर्ववर्ती हिंदी विद्वानों और विशेषज्ञों पर दोषारोपण करना उचित नहीं है। मानकीकरण की समिति में देश के प्रख्यात भाषाविद शामिल थे, निश्चित ही वे हम सभी से अधिक विद्वान थे। एक बार आप उस सूची को पढ़ लेंगे तो यह स्पष्ट हो जाएगा। नागरी लिपि परिषद के माध्यम से केंद्रीय हिंदी निदेशालय को आप सभी के सुझाव दिए जाएंगे और इस पर एक कार्यशाला रखवाई जा सकती है। कोई भी मानकीकरण सर्वस्वीकार्य नहीं हो सकता। सुधार और संशोधन की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। अभी हमारे समक्ष मानकीकरण से अधिक नागरी लिपि के प्रयोग की समस्या अधिक है। रोमनीकरण का भूत नई पीढ़ी पर अधिक सवार है।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)

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