कुल पृष्ठ दर्शन : 15

You are currently viewing राघव जी हैं सरलता के कायल

राघव जी हैं सरलता के कायल

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
*********************************************

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए, सामान्य परिस्थिति में मनुष्य को अपना जीवन जीने के लिए अनेक तरह की परिस्थितियों से गुजरना होता है और वे परिस्थितियाँ जटिल न भी हों तो भी, जब वह उन से रूबरू होता है, तो वह अपने को सरल रख पाने में असफल पाता है, क्योंकि सरल बनने के लिए व्यक्ति को वास्तविक प्रयास अपनाने की आवश्यकता होती है। अर्थात दुनियादारी के प्रपंचों को सही मायने में त्याग कर मन-स्थिति को ऐसा बनाना पड़ता है, जिसमें अच्छा, बुरा कैसा भी इंसान जब भी सम्पर्क में आए तो वह सभी के साथ समान और सामान्य व्यवहार करे। दूसरी ओर ऐसे भी होते हैं, जो स्वभावत: सरल होते हैं। अर्थात वे ऐसे सच्चे व सरल, मासूम बच्चे की तरह होते हैं, जो दुनियादारी की प्रपञ्च वगैरह जानते ही नहीं। यह जो सरलता होती है, वह अमूल्य आभूषण मानी जाती है। इसी सरलता के चलते प्रभु राघव ने उस सरल व्यक्तित्व युवा के गुरुजी के सामने प्रकट हो दर्शन दिया था। इसी तथ्य को समझाने हेतु दृष्टांत-
एक युवा कोई काम ही नहीं करता था, बल्कि भोजन के समय उपस्थित हो जाता और उसे भोजन की भी अन्य की तुलना में अधिक मात्रा में आवश्यकता होती थी। घरवाले टोकते तो कह देता था कि, जितना मेरा खाता है उतना ही खाता हूँ। अर्थात जितना खाते (हिसाब) में लिखा है, वो उतना ही खाता है। यह सब वार्तालाप हो जाने के बाद परिवार ने उसे निकाल दिया और कह दिया कि,-कोई काम-धंधा नहीं, जाओ बाहर खाता खोलो। आज से यहाँ तुम्हारा खाता बन्द। वह निकल पड़ा और खोजने लगा कि, कहाँ उसे भोजन मिल सकता है। तभी उसने एक आश्रम देखा, जिसके द्वार पर एक हष्ट-पुष्ट, तन्दरूस्त, ललाट पर त्रिपुण्ड लगाए बलिष्ठ महात्मा बैठे थे। उनको देखते ही उसके दिमाग में कौंधा, ये इतने मोटे-ताजे हैं तो खूब छक कर खाते होंगे! सो उनके पास जा, नमस्कार कर पूछा-सरकार आपकी इतनी तंदुरुस्ती का कारण क्या है ? जबाब में महात्मा जी ने बता दिया कि, आश्रम में सभी को भरपूर भोजन दिया जाता है। इसके बाद उसने पूछा,-काम क्या करना पड़ता है ? तब महात्मा जी ने बताया कि, भीतर एक माला मिलेगी। उसे ही दिनभर फेरते रहना है। फिर उसने, भीतर कैसे जा सकता है, बताने का आग्रह किया। तब महात्मा जी ने समझा दिया कि, भीतर गुरुजी से दीक्षा ग्रहण कर लो, फिर माला फेरना शुरू कर दो। वह बिना विलम्ब किए अन्दर गुरुजी के पास पहुँचा और दीक्षा देने का निवेदन कर दिया। दीक्षा ग्रहण कर उपलब्ध कराए गए चोले को पहन आश्रम के नियमों का पालन करते हुए वहीं रहने लग गया।
१०-१२ दिन बाद सबेरे, संध्या-उपासना पश्चात भोजनालय पहुँचा तो वहाँ एकदम सन्नाटा पा विचलित हो गया। वह दौड़ा-दौड़ा गुरुजी के पास पहुँचा और बोला,-गुरुजी, गुरुजी बाल भोग का समय हो गया। तब गुरुजी ने कहा,-आज एकादशी है, आज कुछ नहीं बनेगा। अतः आज उपवास करना पड़ेगा। इसके बाद फिर उसने उनसे पूछा,-तो फिर बनेगा कब ? तब वापस गुरुजी ने बताया,-कल द्वादशी को सबेरे बाल भोग से सब शुरू होगा। इतना जानते ही उसने गुरुजी को साफ-साफ कह दिया कि भोजन नहीं करेंगे, तो हम कल द्वादशी तक बचेंगे ही नहीं। मैं तो भोजन के लिए ही साधु बना हूँ। तब गुरुजी ने कहा,-एक काम करो, सामग्री ले लो और आश्रम के बाहर जाओ, नदी किनारे जा वहीं नहाओ,भोजन बनाओ और पावो। हाँ ध्यान रखना, राम जी को भोग लगा कर फिर पाना। फिर भोजनालय व्यवस्थापक को कहा,-इसे २ आदमी जितनी सामग्री दे दो, क्योंकि यह बहुत खाता है, अन्यथा पेट भरेगा नहीं।
वह नदी किनारे पहुँचा और स्नान-ध्यान कर भोजन तैयार किया तो याद आया कि, राम जी को भोग लगाना है। अब वो-“अरे राम आइए, मेरे राम आइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए”, गा कर राम जी को भोजन वास्ते बुलाने लगा, लेकिन ३० मिनट तक जब राम जी नहीं आए, तो आवेश में आ बोला कि,-आप इस भ्रम में मत रहिएगा कि, आश्रम में मिलेगा। जान लीजिए, वहाँ आज कुछ नहीं है। इसी के चलते मैं यहाँ आया हूँ। भोग लगाना है तो आ जाइए, नहीं तो मैं शुरू हो जाऊँगा, तो फिर नहीं बुलाऊँगा। जब इस सरलता से उसने राम जी को कहा, तो राम जी, सीता माता के साथ प्रकट हो गए। उन दोनों को देख वो प्रसन्नता के बदले उदास हो गया और मन में सोचने लगा-२ ही लोगों जितनी सामग्री लाया था, ये दोनों ही पा लेंगे तो फिर बचेगा भी क्या ? खैर, गुरुजी की आज्ञानुसार भोग पा लेने को कह तो दिया, पर राम जी को यह भी बोलने से नहीं चूका कि, मैंने तो केवल आपको ही बुलाया था, पर आप सीता जी को भी ले आए। तब प्रभु ने कहा,-इनके बिना हम जाते कहाँ हैं। हम दोनों जन साथ में ही आते हैं।उनके भोग लेने के बाद बहुत कम ही भोजन बचा था। अतः, उसी को पा उसने प्रभु से पूछ लिया कि,-अगली एकादशी को आप दोनों ही आएंगे ना! तब राम जी ने कहा कि,-हाँ हम दोनों ही आएंगे और कौन आएगा¡
अगली एकादशी को उसने गुरुजी से कहा,- राम जी अकेले नहीं आए थे। सीता जी भी आ गई थीं। अतः, कम से कम ३ आदमी जितनी सामग्री दिलवाईए। उसकी बात सुन गुरुजी ने सोचा भूखा रह गया होगा, इसलिए बहाना बना रहा है। खैर, गुरुजी ने ३ जनों के लायक सामग्री दिलवा दी। अब वह नदी किनारे भोजन तैयार कर “मेरे राम आइए, मैया साथ लाइए, मेरे भोजन का, भोग लगाइए” कह उन्हें बुलाने लगा। इसके बाद सीता जी व लक्ष्मण जी के साथ राम जी भी प्रकट हो गये। अब लक्ष्मण जी को देखते ही पूछ बैठा,- ये कौन हैं ? तब राम जी ने कहा,- ये मेरे भाई हैं।तब वापस बोला,-पिछली बार तो नहीं आए थे। तब प्रत्युत्तर में प्रभु राम जी ने कहा,-छूट गए थे। तब युवक बोला कि, -आपने बताया तो नहीं था।यह सुन राम जी बोले,-भूल गया था। इसने फिर पूछा,-ये भी खाएंगे क्या ? तब राम जी ने कहा,-आए हैं, तो पाएंगे ही। इधर, लक्ष्मण जी मन में विचार करते हैं-भगवान कहाँ लेकर आए, जहाँ मेरा इतना दिव्य सत्कार हो रहा है। अब जब तीनों के पा लेने के बाद इस बार भी भोजन बहुत कम ही बचा था। उसी को पा वह आश्रम लौट आया।
अगली एकादशी को उसने मन में सोचा, पिछली बार २ जनों जितनी सामग्री ले गया, तब ३ आ गए और यदि इस बार १ बढ़ा के भी साथ ले आएंगे तो ५ जनों जितनी सामग्री होगी, तभी मुझे ठीक-ठाक मिलेगा। अतः, गुरुजी के पास जाकर कहा,- अबकी बार ५ लोगों जितनी सामग्री दिलवाइए, क्योंकि पिछली बार लक्ष्मण जी भी आए थे। यदि इस बार वापस एक ओर जने को अपने साथ ले लाएंगे तो मैं मना कर नहीं पाऊँगा। अतः आप ५ लोगों जितना दिलवाइए। यह सुन गुरुजी ने सोचा, इतना तो यह अकेला नहीं खाएगा। उधर कहीं बेचने तो नहीं लग गया! अब इसे रंगेहाथ पकड़ना पड़ेगा। अतः, गुरुजी ने उसे ५ लोगों जितनी सामग्री दिलवा कर स्वयं उसका पीछा किया और नदी किनारे पहुँच कर एक वृक्ष की ओट ले, उस पर निगरानी रखने लगे। वह सामग्री ढंग से रख, स्नान कर लौटा, लेकिन बिना भोजन पकाए राम जी को अन्तर्हृदय से सच्चे भाव से “मेरे राम आइए, सीता राम आइए, भैया साथ लाइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए” गा कर आने के लिए उनको आह्वान करने लगा। उसकी भावना के चलते प्रभु श्रीराम जी, सीता जी व लक्ष्मण जी के अलावा भरत जी, शत्रुघ्न जी एवं हनुमान जी के साथ प्रकट हो गए, पर यह भक्त खुश होने की बजाय फिर उदास व चिन्ताग्रस्त हो, स्तब्ध हो सभी की ओर ताकते हुए बोला,- आज तो हद कर दी। स्वयं तो आए ही, साथ में वानर को भी ले आए। भगवान ने पूछा,- भोजन कहाँ है ? तो बोला बनाया नहीं, सोचा पहले बुलाकर देख लूँ, कितने लोग आ रहे हैं ? तब प्रभु ने पूछा,- कब बनाओगे ? प्रत्युत्तर में उसने कहा,-मैं क्यों बनाऊं? आज ५ जनों जितनी सामग्री लाया हूँ, और आप ५ तो आए, सो आए, साथ में वानर को भी ले आए। न मालूम ये (हनुमानजी की ओर देख बोला) कितना खाएगा! जब मुझे मिलना ही नहीं, तब मैं क्यों मेहनत करूं! ये सामने पड़ी है सामग्री, बनाओ, पाओ और जाओ। तब प्रभु ने कहा,-ठीक है हम लोग बना कर भोग लगा लेंगे। अब कोई लकड़ी ला रहा है, तो कोई चूल्हा लीप-पोत रहा है, तो कोई सब्जी में लग गया। उधर, गुरुजी दूर से नजर गड़ाए देख समझने की चेष्टा कर रहे हैं, लेकिन कुछ समझ ही नहीं पा रहे हैं। वे सोच रहे हैं कि, यह बैठा क्यूं है, बना क्यों नहीं रहा ? आखिर में वे चेले के पास पहुँच कर बोले,- तुम बना क्यूं नहीं रहे हो ? ५ जनों जितनी सामग्री लाए हो, इसमें भी तुम्हारी भूख नहीं मिटेगी क्या! तब चेले ने कहा, -आप ५ जनों जितनी सामग्री तो देख रहे हैं, लेकिन यहाँ ये सामने ५ जनों के साथ आया हुआ वानर दिखाई नहीं दे रहा। तब गुरुजी ने कहा,-कौन ५ लोग, कौन वानर ? मुझे तो कोई दिखाई नहीं दे रहा। यह सुन वह अवाक् रह गया और सोचने लगा कि, ये सामने पाँचों जने के साथ वानर उपस्थित है, और ये कह रहे हैं कि दिखाई नहीं दे रहा। वह तुरन्त राम जी के पास जाकर बोला,-एक तरफ तो आज भूखे रहना पड़ेगा और उधर गुरुजी मेरी बात का विश्वास ही नहीं कर रहे कि, आप आए हैं। आप मेरे गुरूजी को क्यों नहीं दिख रहे हैं ? तब राम जी ने कहा,-बेटा मैं तुमको दिखाई दूँगा, परन्तु तुम्हारे गुरुजी को दिखाई नहीं दूँगा। उसने जब यह बात गुरुजी को बताई तो गुरुदेव रोने लगे। उनको समझ में आ गया कि, इसे भगवान का दर्शन हो रहा है, लेकिन मेरी भक्ति उस स्तर की नहीं हुई कि, मुझे भी प्रभु का दर्शन हो। वे अपने दुर्भाग्य पर रोने लगे। अपने गुरुदेव को रोते देख शिष्य विचलित हो उठा। अतः, दौड़ कर राम जी के चरणों को पकड़ बोला, -प्रभु मैं तो भोजन के लिए साधु बना था, जबकि मेरे गुरूजी तो कितने ज्ञानी हैं, धर्म भी जानते हैं, वेद भी कंठस्थ है और नियम से भी रहते हैं। उसके बावजूद आप मुझे दिखाई दे रहे हैं, लेकिन उन्हें नहीं। तब प्रभु ने कहा कि, यह सत्य है कि तुम्हारे गुरुजी ज्ञानी हैं, परन्तु जितने सरल तुम हो ना, उतने सरल तुम्हारे गुरुजी नहीं हुए हैं। इसलिए मैं तुम्हें दिखाई दूँगा, तुम्हारे गुरुजी को नहीं। यह सुन वह भगवान के चरणों में गिर गया तथा कातर स्वर में आग्रह किया,-प्रभु मेरी खातिर एक बार गुरुजी को दर्शन दे दीजिए। उसकी सरलता के कायल हो प्रभु श्रीराम जी ने पंचायतन दरबार के साथ उसके गुरुजी को भी दर्शन दिया।
उपरोक्त दृष्टांत में ध्यान देने की बात है कि, भोजन के लिए साधु बना युवक प्रभु श्रीराघव जी की किसी भी प्रकार की पूजा नहीं करता है। फिर भी भक्तवत्सल राघव जी अपने सहज व सरल भक्त का दुःख देख नहीं पाए और उसके कातर स्वर में किए निवेदन को स्वीकार करते हुए अपने पूरे परिवार के साथ उसके गुरुजी को दर्शन दे दिया।
संक्षेप में कि, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी उस भक्त की सरलता और नि:श्छल प्रेम देखकर उसके गुरु (जो उसके जितने सरल हो नहीं पाए) को भी दर्शन दे दिया।
ऐसा ही वाकया है सरल भक्तिन भीलनी शबरी का, जिसके यहाँ प्रभु श्रीराम जी ने बहुत ही प्रेम से उसके द्वारा दिए गए झूठे बेर भी ग्रहण किए। इसलिए-
जब सच्चा होता है, हमारा विश्वास।
राघव जी हर हाल में, पूरी करते हमारी आस॥

स्पष्ट है कि, प्रभु श्रीराम हमारे भाव और सरलता पर रीझते हैं। यदि हम जीवन में सरलता नहीं ला पाते हैं, तो यह हमारी बिडम्बना है।