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राज

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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डोली अपने घर की ड्योढ़ी पर पहुंची ही थी कि, नई-नवेली दुल्हन के माथे से टीका नदारद देख सास असहनीय हुई, लेकिन विवाह के माहौल को बांच शालीनता से बोली, ‘ठहरो! नई दुल्हन तब तक यह ड्योढ़ी पार नहीं करेगी, जब तक सुहाग चिन्ह पूरे न हों। किसी के पास टीका है, दे दो, मैं ही सुहाग का टीका माथे पर लगाए देती हूँ।’
सब नई दुल्हन के चेहरे की ओर नजर गढ़ाए देखने लगे। टीके के अलावा सिर से लाल दुपट्टा भी नहीं ओढ़ा गया था।
इतने में, सास की बहन ने अपने पर्स से टीका निकाल नई बहू के माथे पर लगाते हुए कहा, ‘शायद जल्दबाजी में लगाना भूल गई है, माँ का आँगन छोड़ने को किसका मन करता है, इसलिए दुपट्टा भी सर से सरक गया है।’
बाराती एक-दूसरे का मुख ताकने लगे, कभी नई-नवेली दुल्हन की माँ को ताड़ते तो कभी सास को।
खैर, बारात वहां से विदा हुई और डोली की कार के कुछ दूरी चलने के पश्चात नई- नवेली दुल्हन ने दूल्हे से इजहार किया,- ‘मुझे माथे पर टीका लगाने से एलर्जी है, मैं माथे से टीका हटा रही हूँ, अब तुम मुझे कुछ मत कहना।’
दूल्हे ने मुस्कुरा कर कहा,-‘तुम मेरे दिल में बसी हो, आज से इस पर बेझिझक तुम्हारा ही राज चलेगा। वैसे, मैं इन पारंपरिक रीति-रिवाजों को नहीं मानता।’
यह सुन दुल्हन ठसक से सिर से दुपट्टा, माथे का टीका व हाथ में पहने कलीरे उतार शान से कार के शीशे से बाहर साथ-साथ चल रहे प्रकृति दृश्य देखने लगी, और परंपराओं व रीति-रिवाजों का राज पीछे छूटने लगा।