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राम राज्य:कुर्सी की नहीं, जनता की भलाई के लिए सोचना होगा

रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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राम-राज…

२ अक्टूबर को महात्मा गाँधी के सम्मान में हर जगह राम धुन की शोर का नाद महात्मा गाँधी के कानों में भी स्वर्ग मे पड़ी, और वह आल्हादित होकर पृथ्वी पर आ गए अपनी संकल्पना राम राज्य को देखने के लिए, पर यहाँ आकर उन्होंने जो देखा, उससे उनकी बुद्धि ही चकरा गई, जिस सम्मान को उन्होंने जनता से प्रेम करके हासिल किया था, वह अब उन्हे ढोंग प्रतीत होने लगा। ऊपरी दिखावे के तौर पर सभी राम धुन गा रहे हैं, एवं ‘वैष्णव जन को तेने कहिए जो प्रीत पराई जाने रे’, गा रहे हैं पर कार्य रूप में उसे स्वच्छता अभियान से जोड़कर उन्हें सम्मान दिया जा रहा है, या उनकी अवहेलना की जा रही है, यह उन्हें समझ नहीं आ रहा था।
यह देख गाँधी जी की आत्मा स्वंय भ्रमित हो गई। तब उन्हें अपने ३ बन्दरों की याद आई, उन्होंने अपना पहला बंदर जो सब सुन सकता था, बोल नहीं
सकता था, उसे कहा-‘हे मेरे आदर्श के प्रथम वानर, तुम सुन कर हमें बताओ कि हमारी परिकल्पना के राम राज्य के बारे में लोग क्या कह रहे हैं ?’ वानर ने पलकें झपकाते हुए कहा-‘बापू जी, मैंने तो सुन सब लिया है, पर बोल सकता नहीं, तो कैसे बोलूँ ?’
बापू जी ने कहा-‘अरे मैंने बुरा न बोलने के लिए कहा था, यह तो राम राज्य के विषय में बोलना है। अतः, इसमें बुराई क्या है !’ तब प्रथम वानर अपने आदर्श को धराशाई कर बोलने में सक्षम हो गया।
वर्तमान समय में राम राज्य का प्रयोग सर्वोत्तम शासन के प्रतीक के रूप में किया जाता है। इसे लोकतन्त्र का परिमार्जित रूप माना जा सकता है।हमारी आज की सरकार लोकतन्त्र या इसे प्रजा तन्त्र कह लो पर ही आधारित है, जिसमें राजा की भूमिका तो श्रेष्ठ है ही, हम (जनता) को भी अपना व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा। अर्थात भेदभाव भूल कर, ईष्या-द्वेष न कर निर्बलों का अधिकार न छीन कर अपना कर्म करना चाहिए। हमें दूसरों को संतुष्ट करने के लिए अपने अधिकारों एवं सुखों का बलिदान कर देना ही राम राज्य है। पतित से पतित राष्ट्र भी राम जी के इन गुणों को पाकर स्वर्ग जैसा सुख धाम बन सकता है।
अतः, राम राज्य नहीं बल्कि हमें अपने आने वाली पीढ़ी को राम बनाना है।
त्रेता युग में राम जैसे राजा ही सार्वभौम राजा के रूप में प्रतिष्ठित थे, अतः उन्होंने अपने से ज्यादा जनता-जनार्दन का सुख देखा। यहाँ तक कि एक दिवाकर के कहने पर अपनी गर्भवती पत्नी सीता को भी त्यागने से हिचकिचाए नहीं, पर उस युग की बात अलग थी। यहाँ पर अब इस युग में न राम जैसा कोई एकछत्र राजा रहा, ना ही वैसा धर्म, जहाँ देश की सत्ता कई दलों के हाथ में आकर प्रजा तंत्र की गुहार लगाती है।आज सुख की परिभाषा ही बदल गई है। पहले आध्यात्मिक विचारों से ओत-प्रोत हो मनुष्य अपनी स्वार्थपरकता को कम आँकता था, परन्तु आज वैभव व विलासिता की पृष्ठभूमि में सुख की गणना की जाने लगी है। राम राज्य के बारे में कहा भी गया है-‘हो दरिद्र दुःखी न दीना, नहि कोई अबुघ सुलक्षण हीना।’
अब प्रश्न यह है कि, क्या सचमुच राम राज्य आ सकता है, या केवल वैभव से ही राम राज्य को आँका जाए ?
महात्मा गाँधी के विचारों में मंथन होने लगा। वह सोचने लगे कि, उन्होंने जो भी कार्य किया था, अपनी समझ से भले के लिए ही किया था, पर वास्तविक धरातल पर वह उल्टा हो गया। देश विभाजन का दंश केवल जनता को ही नहीं, उन्हें भी भोगना पड़ा और नाथूराम की गोलियों का शिकार होना पड़ा।
व्याकुल होकर जब गाँधी जी अपने दूसरे आदर्शवादी वानर की ओर देखते हैं, तो वह बोल उठता है-‘बापू हमारे कान बंद भले ही हों, पर हमारी आँख जो देख रही है, उसी के आधार पर यह कह रहा हूँ कि, आज का समाज अनेक वर्णों एवं वर्गों में विभाजित हो चुका है, जिसमें धर्म ने जहाँ एक तरफ सद्भावना को बढ़ाया है, एकता को बढ़ाया है, वहीं कट्टरपंथी होकर, धर्म को आधार मानकर देश को विभक्त भी किया है। आज मेरी आँखें जो देख रही है, वही मैं राम राज्य के संदर्भ में कहना चाहुँगा। राम राज्य की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि, ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहि काहुहि व्यापा। सब नर करै परस्पर प्रीति, चलहि स्वधर्म निरत श्रुति नीति।’ उस समय समाज में गाय व वैभव दोनों में कोई कमी नहीं थी।आजकल की तरह नहीं कि, रसायन से दूध बनाए जा रहे हैं। गुरुकुल की शिक्षा में बच्चों को गुरु के पास ही रहकर पढ़ना होता था, जिस कारण समाज की बुराइयों का असर नहीं पड़ता था। उस समय इतना प्रदूषण भी नहीं था, न ही लोग दीपावली का त्यौहार पटाखों से मनाते थे, जो प्रकृति के लिए हानिकारक होता है। उस समय का मनुष्य इतना स्वार्थी नहीं था, आज तो मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि, अपनी जरा-सी खुशी के लिए प्रकृति से छेड़छाड़ करता रहता है। ईर्ष्या, द्वेष-जलन आजकल लोगों में इतना कूट-कूट कर भरा हुआ है कि, वह दूसरों को नीचा दिखाने या हराने के लिए किसी भी परिस्थिति से गुजर जाता है। अब ऐसे में कैसे कहें कि, आपकी अवधारणा काम कर रही है, पर हाँ बापू जी, मनुष्य एक आशावादी प्राणी है। वह राम राज्य की स्थापना की आशा एवं सपना दोनों देखता रहता है। यही उसकी शक्ति भी है, और कर्म भी। कुछ प्रतिशत लोगों से पूरे समाज को आँकना ठीक नहीं। आज भी समाज में ऐसे साधु-महात्मा एवं समाजसेवी लोग रहते हैं, जो समाज को राम राज्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
राम राज्य की स्थापना कोई हँसी-खेल नहीं, उसके लिए हर एक व्यक्ति को राम बनना होगा। सरकार को अपनी कुर्सी की नहीं, जनता की भलाई के लिए सोचना होगा।

वक्ता वानर की बात सुनकर सभी वानर ने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया, और बापू जी की आत्मा (जो भटक रही थी) शान्त मन से अपने पूर्व परिचित गन्तव्य की ओर बढ़ने लगी।