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शायरी के आसमान को मुनव्वर कर रहे हैं सुभाष पाठक ‘ज़िया’

सिद्धेश्वर
पटना (बिहार)
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लोग कहते हैं कि, ग़ज़लों की बाढ़-सी आ गई है। इस बात को मैं स्वीकार नहीं करता, क्योंकि हिंदी ग़ज़ल के नाम पर जो कुछ आज परोसा जा रहा है, वह ग़ज़ल में अपनी बात कहने का प्रयास भर है, ग़ज़ल नहीं। ग़ज़ल एक बहुत ही नाज़ुक विधा है। छंदमुक्त कविता की तरह यह आज़ाद नहीं है और न ही सपाटबयानी कविता की तरह कविता के सारे हिसाब किताब से दूर ही है। ग़ज़ल का अपना शास्त्रीय गणित होता है और उस गणित में बहुत कम लोग ही सही जोड़- घटाव कर पाते हैं। बावजूद इसके युवा शायरों की फ़ेहरिस्त में आज भी कई ऐसे ग़ज़लकार हैं, जो ग़ज़ल में उसके व्याकरण को साध अपने विचार और कहन को नए प्रयोगों के साथ बखूबी प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे ही युवा शायरों में बहुचर्चित नाम है सुभाष पाठक ‘ज़िया’ का, जिन्होंने ग़ज़ल में अपने अलहदा अंदाजे-बयां के कारण बहुत ही कम समय में अपनी अलग पहचान बनाई है। इस भेड़-चाल वाले समय में वही साहित्यकार खुद को स्थापित कर पाता है, जो अपनी विधा को गंभीरता से लेता है और अलग हटकर काम करता है। सुभाष पाठक जब अपनी शायरी में मोहब्बत के अतिरिक्त दुनिया भर के जज़्बातों को बहुत ही गंभीरता से पाठकों के सामने रखते हैं, तब वे ग़ज़लों की अपनी एक अलग दुनिया बसाते हुए नजर आते हैं। इसका पुख़्ता सबूत है अभिधा प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित उनका नवीन गजल संग्रह ‘तुम्हीं से जिया है’। पुस्तक की पहली ग़ज़ल ही दमदार उपस्थिति दर्ज करती नज़र आती है-

‘धूप ढल जाती है घटाओं में
ये असर होता है दुआओं में।

ऐ ‘जिया’ इतनी भी सज़ा मत दो,
लुत्फ़ आने लगे सज़ाओं में।’

सज़ा को लुत्फ़ में परिणित करने वाला यह अंदाज़-ए- बयां बिल्कुल अलग तरह का है।
ग़ज़ल में एक-दूसरे की ज़मीन पर ग़ज़लें कहने की परम्परा बहुत पुरानी है, किंतु इस संग्रह की तमाम ग़ज़लों को पढ़ते हुए पाठक को यह महसूस होता है कि, ‘ज़िया’ ने अपनी ही बनाई नई ज़मीन पर बहुत कुछ कहा है-
‘ज़रा-सा ही कंकर मचा दे समंदर में हलचल मेरे जुगनुओं तुम ये सोचो
अंधेरी हैं रातें मगर रौशनी का कोई तीर मारो तुम्हीं से ज़िया है।

सुनो वफ़ाओं के लम्हों को याद कर लेना
कि इम्तिहान जुदाई का पास करना है
यकीन नहीं है मुकद्दर पर मुझको रत्ती भर
मगर उम्मीद भी रखनी है आस करना है।’
काव्य विधा में ग़ज़ल कहना कठिन कार्य है। वैसे अन्य विधाओं में भी बहुत सारी गंभीर बातें कही जा रही हैं, जो श्रोताओं के हृदय में रच-बस रही है, किंतु ग़ज़ल की महफ़िल में ग़ज़लें अपनी नाज़ुकी और कहन के कारण श्रोताओं की वाह-वाही लूट लेती है। कहने का मकसद यह है कि, ग़ज़ल में शायर क्या कहना चाह रहा है , कितना कुछ नया कहना चाह रहा है, साथ ही साथ वह अपने भीतर के भाव को किस अंदाज में बयां कर रहा है, यह ख़ास मायने रखता है। शायद इसी कारण दुष्यंत कुमार और राहत इंदौरी जैसे शायर बहुत कम समय में सबसे अधिक लोकप्रिय हुए। हम इनकी तुलना सुभाष पाठक ‘जिया’ से तो नहीं कर रहे, किन्तु इतनी कम उम्र में वे अपने जज़्बात को जिस अंदाज में ग़ज़ल से अभिव्यक्त कर रहे हैं, उसे देखकर तो यही लगता है कि, आने वाले दिनों में वे शब्द चित्रों के हुनरमंद शायर के रूप में पहचाने जाएंगे। तभी तो प्रेम किरण जैसे लब्ध प्रतिष्ठित शायर भी उनकी ग़ज़लों के बारे में कहते हैं कि, “सुभाष पाठक ‘जिया’ की खासियत है उनकी कहन शैली, लफ्जों का रख-रखाव, शेरों की बनावट तथा रदीफों का टेटकापन!”-
‘शाम समेट रही है आँचल मेरे पास रहो,
फैल रहा है रात का काजल मेरे पास रहो।
तुम बिन जीना भी मुश्किल है मरना भी मुश्किल,
हर मुश्किल का है ये इक हल मेरे पास रहो।’
हालांकि, मैं ग़ज़लों का नहीं, नज्मों का कवि हूँ। फिर भी मेरे सबसे पसंदीदा शायर हैं दुष्यंत कुमार और नीरज जी। इसकी ख़ास वजह है इनकी ग़ज़लों में आमजन के समझ में आने वाली हिन्दी की सशक्त प्रस्तुति। हालांकि, ‘ज़िया’ की इस कृति की कई ग़ज़लों में उर्दू शब्द अपने पूरे दम-खम के साथ हैं, जो इस बात का सबूत देते हैं कि, उन्हें उर्दू का भी अच्छा ज्ञान है। बावजूद वह अपनी ग़ज़लों में उर्दू शब्दों का कम प्रयोग किए हैं। या यूँ कहें कि, उन्होंने ग़ज़लों में हिंदी-उर्दू शब्दों के बीच संतुलन बनाए रखा है। उनकी ग़ज़लों की भाषा-शैली में आम बोलचाल के शब्द घुले-मिले हुए हैं, जिसे आम पाठक भी आसानी से समझ लेते हैं-
‘किसी की शक्ल से सीरत पता नहीं चलती,
कि आब देख के लज्जत पता नहीं चलती।

खुदा का शुक्र है कमरे में आईना भी है,
नहीं तो अपनी ही हालत पता नहीं चलती।

छलकते अश्क़ सभी को दिखाई देते हैं,
किसी को ख़्वाब की हिजरत पता नहीं चलती।’
हल्की-फुल्की उर्दू के जानकार पाठक और श्रोता भी ‘ज़िया’ की ग़ज़लों को आसानी से अपने हृदय में बसा लेते हैं। इसलिए, मुख्यधारा के समकालीन शायरों के बीच यह शायर बहुत ही तेजी से अपनी अलग पहचान बना चुका है।
“है तमन्ना अगर उजालों की /तो हिफाज़त करो चरागों की!/भूल मत जाना तुम ज़मीं अपनी /बात करते हुए सितारों की।”
जहाँ एक तरफ छोटी बहर में लिखी गई यह ग़ज़ल अपना अलग प्रभाव डालती है, वहीं बड़ी बहर में लिखी गई ग़ज़लें भी कुछ कम असरदार नहीं है-
‘क्या ख़बर है ज़िन्दगी की राह में कब मोड़ आ जायेगा कैसा,
वक़्त जो भी मोड़ लाये तुम न मुँह को मोड़ना उसने कहा था।

जुबाँ तक बात भूखे पेट की आने नहीं देती
यह खुद्दारी तो हरगिज हाथ फैलाने नहीं देती।
मिलाना चाहते हैं हाथ, हिंदू और मुस्लिम पर,
सियासत है कि इनको पास भी आने नहीं देती।’
इस प्रकार हम देखते हैं कि, कृति में ‘ज़िया’ की एक से बढ़कर एक ग़ज़लें उनकी दमदार उपस्थिति को दर्ज करती है। तभी तो प्रसिद्ध आलोचक ज्ञानप्रकाश विवेक कहते हैं कि, ‘इस शायर की शायरी में कहीं दृश्यात्मकता का रचाव है तो कहीं पर जीवन-मृत्यु का पुरातन बोध।कहीं पर रदीफों का कलात्मक प्रयोग है तो कहीं पर रचनात्मक उत्सव जैसी अभिव्यक्ति। यानी सुभाष पाठक की तमाम ग़ज़लें पारम्परिक बिम्ब विधान और ग़ज़ल की खूबसूरती का अतिक्रमण किए बिना हमारे भीतर ताज़गी और ग़ज़ल की खूबसूरती का एहसास करा जाती है।
पुस्तक की साज सज्जा एवं मुद्रण बहुत ही बेहतरीन है। सौभाग्य से इस संग्रह की आमुख कलाकृति मेरे (सिद्धेश्वर) द्वारा बनाई गई है, जो भीतर प्रकाशित ग़ज़लों के भाव को अभिव्यक्त करने में पूर्ण सक्षम है। इस कालजयी पुस्तक में ज्ञानप्रकाश विवेक की महत्वपूर्ण भूमिका के साथ डॉ. अफरोज आलम, डॉ. दिनेश दधीचि, शारिक कैफ़ी, मोहम्मद आजम, नुसरत मेंहदी, डॉ. महेंद्र अग्रवाल, डॉ. अशोक मिज़ाज बद्र, डॉ. आरती कुमारी, डॉ. अश्वनी कुमार, चंदना दीक्षित, संजीव शर्मा, मोहम्मद वकील, अहमद रज़ा, भूपिंदर सिंह, अज़हर मेवान और प्रेम किरण जैसे शायरों-विद्वानों ने ‘ज़िया’ की ग़ज़लों के संबंध में थोड़े में बहुत-कुछ कह दिया है। वैसे तो सुभाष की ग़ज़लें अपने-आपमें संपूर्ण है, किंतु इन विद्वानों द्वारा व्यक्त विचार समकालीन ग़ज़लों के संदर्भ में भी अपना अलग आख्यान प्रस्तुत करते हैं। ‘मैं और ग़ज़ल’ के तहत इस शायर का आत्मकथ्य इस संग्रह की आत्मा है, जिसके भीतर झांक कर शायर की सृजनशीलता से रूबरू हुआ जा सकता है। ‘ज़िया’ की १०६ ग़ज़लों के साथ बेहद असरदार १६ अशआर भी प्रस्तुत किए गए हैं, जो अपने भीतर एक पूरी की पूरी ग़ज़ल को समाए हुए प्रतीत होते हैं-
‘किया है कत्ल उसने इस अदा से,
कि खूँ का दाग दामन पर नहीं है!
और
समंदर के किनारे पर खड़ा हूँ
मगर मैं एक नदी को सोचता हूँ।’

ग़ज़ल के समंदर के किनारे खड़ा यह शायर बेशकीमती गौहर निकाल कर लाएगा, इस बात में किंचित संदेह नहीं है। तभी तो अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शायर आलम ख़ुर्शीद ‘ज़िया’ के लिए यह कहते हैं- ‘मुझे पूरी उम्मीद है कि आने वाले दिनों में इसकी ग़ज़लें अपनी ज़िया से शायरी के आसमान को मुनव्वर करेंगी।’