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संघर्ष, समर्पण एवं शौर्य की गाथाओं का नाम ‘नेताजी’

ललित गर्ग

दिल्ली
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सुभाषचन्द्र बोस जन्म जयन्ती (२३ जनवरी) विशेष…

भारतीय इतिहास में सुभाष चंद्र बोस ऐसे महानायक हैं, जो किसी पहचान के मोहताज नहीं। नेताजी का नारा ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ आज भी भारवासियों के भीतर राष्ट्रभक्ति एवं राष्ट्रप्रेम का ज्वार पैदा करता है। अंग्रेजों की गुलामी से भारत को आजाद कराने के लिए नेताजी ने कई आंदोलन किए, उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग की ज्वाला को और तेज करने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना भी की। जलियांवाला बाग हत्याकांड के दिल दहला देने वाले दृश्य से वे काफी विचलित हुए। इसके बाद ही वे भारत की आजादी के संग्राम में जुड़ गए। बोस प्रकृति से आध्यात्मिक, ईश्वर भक्त तथा तन एवं मन से देशभक्त थे। बोस के अतिरिक्त हमारे देश के इतिहास में ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं हुआ, जो एकसाथ महान् स्वतंत्रता सेनानी, महान् सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति का अद्भुत खिलाड़ी, राष्ट्रनायक और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरुषों, नेताओं के समकक्ष साधिकार बैठकर भारत की आजादी के लिए कूटनीतिज्ञ तथा चर्चा करने वाला हो।
भारत को आजादी दिलाने के लिए सुभाषचन्द्र बोस के अवदानों की लम्बी श्रृंखला है, लेकिन आजादी के बाद बनी सरकारों से उनके योगदान को विस्मृत करने की तमाम कोशिशों का ही परिणाम है कि, यह महानायक इतिहास के पन्नों में गुम हो गया, पर लम्बे इंतजार के बाद अच्छी बात हुई है कि, कर्मयोद्धा नेताजी की जयंती को केंद्र सरकार ने ‘राष्ट्रीय पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा करके देश के असंख्य लोगों की भावनाओं का सम्मान किया है। वास्तव में हमारी आजादी हमारे ऐसे ही वीरों के पराक्रम, शौर्य, समर्पण और साहस सेे मिली थी। यह सही है कि, स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी का योगदान महत्वपूर्ण था, परंतु नेताजी के योगदान को कमतर आंकना या उनके योगदान को विस्मृत करना, किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। भारत के स्वाधीनता संग्राम में नेताजी का सर्वाधिक योगदान रहा है, उनके योगदान की अमर कहानी अभी लिखी जानी शेष है।
आजाद हिन्द फौज (सरकार) के माध्यम से सुभाषचन्द्र बोस ने एक ऐसा भारत बनाने का वादा किया था, जिसमें सभी के पास समान अधिकार हों, सभी के पास समान अवसर हों, जो अपनी प्राचीन परम्पराओं से प्रेरणा लेगा और गौरवपूर्ण बनाने वाले सुखी और समृद्ध सशक्त भारत का निर्माण करेगा। यह करोड़ों भारतीयों का सपना था, किंतु सुभाष बाबू से भय खाने वाले अंग्रेजों और बाद में उसी सिरे पर चलकर सत्ता और परिवारवाद को मजबूत करने वाले राजनीतिक दलों एवं सत्ताधारियों ने उस महानायक के योगदान एवं सपनों को कुचलने का षड़यंत्रपूर्वक प्रयत्न किया। जब वर्ष २०१८ में आजाद हिन्द सरकार की ७५वीं वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से तिरंगा फहराया, तो देश को मानो उसका बिसराया प्यार, स्वतंत्रता संग्राम की अनूठी स्मृतियों की जीवंतता से देश को वास्तविक रूप में आजादी का स्वाद चखने का अवसर मिल गया है।
बोस भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी तथा सबसे बड़े नेता थे। नेताजी ने आजीवन भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के लिए युद्ध तथा सैन्य संगठन में रत रहते हुए आजादी दिलाने के प्रभावी एवं सार्थक प्रयत्न किए। सुभाष बाबू के जीवन पर स्वामी विवेकानंद, उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा महर्षि अरविंद के गहन दर्शन और उच्च भावना का प्रभाव था। पिताजी की इच्छा का निर्वाहन करते हुए उन्होंने सर्वाधिक महत्वपूर्ण परीक्षा आईसीएस मात्र ८ माह में ही उत्तीर्ण कर ली, किंतु राष्ट्रीय भाव एवं भारत को आजाद कराने के संकल्प के चलते आईसीएस की नौकरी का परित्याग करके अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया। तब तक आइसीएस के इतिहास में किसी भारतीय ने ऐसा नहीं किया था। युवा सुभाष ने १६ जुलाई १९२१ को बम्बई में महात्मा गांधी से मिलने के बाद सम्पूर्ण देश में अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया। उस समय देश में गांधीजी के नेतृत्व में असहयोग की लहर थी।
सुभाषचन्द्र बोस ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उन्होंने ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूँगा’ का नारा देकर अंग्रेजों के खिलाफ हुंकार भरी। आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत या उदाहरण नहीं मिलता, जहाँ ३०-३५ हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो। उस समय देश में नेताजी हिंद फौज के प्रति सहानुभूति की व्यापक लहर दौड़ रही थी। दमनचक्र के बावजूद देशवासियों का जोश, उत्साह व उमंग देखते ही बन रहा था। फौज ने जिस प्रकार से देश का वातावरण बनाया, उससे अंग्रेजों को साफ पता चल गया था कि, अब यहाँ अधिक समय तक रहा नहीं जा सकता। आजाद हिंद फौज का देश की आजादी में अप्रतिम योगदान है जिसे भुलाया नहीं जा सकता।
बोस ने हिन्द फौज के सर्वाेच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार बनाई, जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड सहित ११ देश की सरकारों ने मान्यता दी थी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थाई सरकार को दे दिए। १९४४ में हिंद फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया।
अपने संघर्षपूर्ण एवं अत्यधिक व्यस्त जीवन के बावजूद नेताजी स्वाभाविक रूप से लेखन के प्रति भी उत्सुक रहे हैं। अपनी अपूर्ण आत्मकथा ‘एक भारतीय यात्री-ऐन इंडियन पिलग्रिम’ के अतिरिक्त उन्होंने २ खंडों में एक पूरी पुस्तक भी लिखी ‘भारत का संघर्ष-द इंडियन स्ट्रगल’ जिसका लंदन से ही प्रथम प्रकाशन हुआ।
नेताजी की मृत्यु को लेकर आज भी विवाद है। जहाँ जापान में प्रतिवर्ष १८ अगस्त को उनका शहीद दिवस धूमधाम से मनाया जाता है, वहीं भारत में रहने वाले उनके परिवार के लोगों का आज भी यह मानना है कि सुभाष की मौत १९४५ में नहीं हुई। वे उसके बाद रूस में नज़रबन्द थे।

बोस की १२७ वीं जन्म जयन्ती मनाते हुए भारत को भारतीयता की नजर से देखना और समझना जरूरी है। ये आज जब हम देश की स्थिति देखते हैं, तो और स्पष्ट रूप से समझ पाते हैं कि, स्वतंत्र भारत के बाद के दशकों में अगर देश को सुभाष बाबू, सरदार पटेल जैसे व्यक्तित्वों का मार्गदर्शन मिला होता, भारत को देखने के लिए विदेशी चश्मा नहीं होता तो स्थितियाँ बहुत भिन्न होतीं। नेताजी की विचारधारा के लोग इस देश में ही जीवित होने पर भी बिसराए जाते रहे हैं, लेकिन इन सब झंझावातों के बीच वह सपना साँस लेता रहा। उसे जीवित रहना ही था, क्योंकि उस सपने में नेताजी सरीखे अनगिनत राष्ट्रपुरुषों की जान बसी है। वह सपना है भारतीयता का सपना। यह सपना जीवित रहेगा, उसी सपने को आकार देकर ही सशक्त भारत का निर्माण होगा, जिसमें संघर्ष, समर्पण एवं शौर्य की बोस की गाथाएं आने वाली पीढ़ियों को उनके मूल्यों को अपनाने के लिए प्रेरित करती रहेगी।