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सच की ऑंखें

रश्मि लहर
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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“जानते हो मोनू के बाबू ?” अपनी धोती के कोने से अपना हाथ पोंछती हुई नेहा ने अख़बार पढ़ने में लीन अपने पति शिशिर से मुखातिब होते हुए कहा।
“क्या हुआ मोनू की अम्मा ? तुम्हारा चेहरा इतना थका-सा क्यों लग रहा है ? हार्ट वाली दवा तो खा रही हो न ?”
“अरे हाॅं! सब खा-पी रहे हैं। कल से जी उलझन में है। एक तो हमको आपसी झगड़े के कारण अपना पैतृक घर छोड़ना पड़ा, सरकारी घर में रहने के कारण तनख्वाह भी कटवानी पड़ी और उस पर दोनों देवर जी रिश्तेदारों से यह कहते फिर रहे हैं कि, बच्चों के बड़े होते ही दद्दा सारी जिम्मेदारी से मुॅंह मोड़कर बड़ी सफाई से निकल लिए…” कहते-कहते नेहा की ऑंखों से ऑंसू बह पड़े।
“अरे पागल! यूॅं जी न छोटा करो! हमारे घर से निकल आने पर तुम्हारे देवर खुशी से रह रहे हैं न ? अब अगर कोई उनसे पूछ बैठे कि उन्होंने अपने कैंसर रोगी भाई को घर से क्यों जाने दिया तो वे क्या जवाब देंगे ?”
कहते हुए शिशिर ने नेहा के ऑंसुओं को अपने हाथों से पोंछा और आगे बोला-
“समाज के प्रश्नों से बचने के लिए वे कुछ कह रहे हैं तो कहने दो न!”
“मगर…” कहकर नेहा रुक गई।

“अगर-मगर न करो! चलो खाना खाया जाए! वे लोग अपने परिवार में खुश रहें, यही तो हम चाहते थे न ? रही बात समाज की, तो यह जान लो, सच की ऑंखें झूठ की ऑंखों के भीतर का सारा भेद जान ही लेती हैं!”