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समझा दे मुझे

सरफ़राज़ हुसैन ‘फ़राज़’
मुरादाबाद (उत्तरप्रदेश) 
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कुछ समझ आता नहीं तू लिख के समझा दे मुझे।
इश्क़ के दस्तूर क्या हैं यार ‘बतला दे मुझे।

राहे ह़क़ से कोई आख़िर ‘कैसे भटका दे मुझे।
मैं दीया तो हूँ नहीं जो फूँक भड़का दे मुझे।

तू तो मेरी जानेमन है तू तो कर ‘ऐह़सान कुछ,
दाग़ ‘दे या ज़ख़्म दे,पर सबसे आला दे मुझे।

ह़क़ बयानी से कभी मैं बाज़ आ सकता नहीं,
चाहे ज़ालिम कोई अब सूली ‘पे चढ़वा दे मुझे।

दोस्ती है एक शायर से तिरी तो सुन मिरी,
मैं भी बन जाऊँगा शायर,ग़ज़लें दिलवा दे मुझे।

कौन करता है यक़ीं मुझ जैसे आ़सी पर भला,
तू भी सबके जैसा ही है,’तू भी झुठला दे मुझे।

कोई भी पुरसाँ नहीं है आजकल अपना ‘फ़राज़’,
तू’ भी पागल ‘जान कर आगे को टरका दे मुझे॥

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