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साइकिल लेकर छोड़ने चल दिए…

रोहित मिश्र
प्रयागराज(उत्तरप्रदेश)
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मेरे पिता जी की साईकल स्पर्धा विशेष…..

बचपन में सभी लोग अपने पिता जी की साइकिल पर अवश्य बैठे होंगे,उसी प्रकार मैं भी साइकिल पर बैठता था। आज के जमाने में बच्चे अपने पापा की मोटरसाइकिल और कार में ही बैठ कर पार्क जाते
हैं। उस समय पापा मुझे अपनी पतली टायर वाली साइकिल के डंडे पर तौलिए को लपेट कर उस पर बैठा कर,मेरे पैरों को साइकिल के आगे वाली मड गार्ड पर रखवाते थे,और मैं भी बड़े शान से एक पैर को दूसरे पर रखकर साइकिल की सवारी का आनंद लिया करता था।
समय के साथ धीरे-धीरे पिता जी ने हीरो एवन की साइकिल खरीद ली,फिर भी मेरी साइकिल पर बैठने की शैली वही थी। पिता जी भी साइकिल के डंडो पर तौलिए को बकायदा लपेट दिया करते थे। मैं भी बकायदा राजा-महाराजा की तरह बैठकर हर जगह जाता था। बचपन में पिता जी की साइकिल की सवारी में जो आनंद आता था,वो आज लाखों की कार में बैठकर भी नहीं आता है।
वो समय भी याद है जब पिता जी साइकिल पर ही मुझे बैठाकर नानी के घर ले जाया करते थे। साइकिल पर बैठकर मैं रास्ते भर के नजारों का आनंद लिया करता था। नानी के घर जाते समय बीच में कब्रिस्तान पड़ता था। उस समय चील और गिद्ध भारी तादाद में कब्रिस्तान के आस-पास मंडराते थे। उनको देखकर बड़ा डर लगता था। फिर अहसास होता था कि मैं पापा के साथ साइकिल पर हूँ।
समय के साथ धीरे-धीरे पापा ने दोपहिया खरीद लिया। बात १९९७ की है। मैं ७वीं में था। उस दिन
शाला में मेरी मासिक परीक्षा थी। पिता जी रोज अपनी हीरो पुक से विद्यालय छोड़ते थे। उस दिन उनकी हीरो पुक पंक्चर हो गई थी और उस समय शाला का समय भी हो रहा था। यानि गाड़ी के पंक्चर बनवाने का भी समय नहीं था।
उसी समय पापा बगल वाले की साइकिल लेकर, पीछे की कैरियर पर बैठाकर मुझे शाला छोड़ने चल दिए। अधिकतर लोग साइकिल छोड़ने के बाद गाड़ी के आदि हो जाते हैं,वो दुबारा साइकिल चलाने में समय लेते हैं,पर पिता जी को इतने दिन बाद भी बेहतरीन तरीके से साइकिल चलाना मेरे लिए सुखद अनुभव था।

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