कुल पृष्ठ दर्शन : 183

You are currently viewing सामाजिक व्यवस्था में मूलभूत संशोधन की आवश्यकता

सामाजिक व्यवस्था में मूलभूत संशोधन की आवश्यकता

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
************************************

स्वतंत्र देश और हमारी जिम्मेदारी…

प्रथम तो हमें स्वतंत्रता का अर्थ समझना होगा, तभी हम अपनी जिम्मेदारी समझ सकते हैं। दशकों पहले स्वतंत्रता का अर्थ ‘जिओ और जीने दो’ के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता था, फिर कालान्तर में स्वतंत्रता की परिभाषा थोड़ी विस्तृत हो गई और कहा जाने लगा कि, आप वहीं तक स्वतंत्र हैं जहाँ तक आपकी स्वतंत्रता से दूसरों की स्वतंत्रता हताहत नहीं होती। अर्थात हमारी स्वतंत्रता के साथ कुछ हद तक हमारे कर्तव्य भी जुड़े हुए थे। हमारी ऐसी स्वतंत्रता अनुशासित स्वतंत्रता कही जा सकती थी, परन्तु आज हम जिस स्वतंत्रता की ओर बढ़ रहे हैं, वह स्वतंत्र देश के उज्जवल भविष्य के लिए शुभ संकेत देती दिखाई नहीं पड़ रही है। स्वतंत्रता किसी व्यक्ति की हो, किसी समूह की हो या किसी देश की हो, सबके लिए नियम एक ही लागू होता है। आज हमारा देश स्वतंत्र है। देश की स्वतंत्रता की रक्षा हुक्मरानों के हाथ में होती है और हुक्मरानों के साथ क़दमताल करते हुए उनकी ताकत को बढ़ाने की ज़िम्मेदारियाँ देश की जनता की होती हैं, परन्तु हमें किसी एक की व्याख्या करने के लिए जनता और प्रशासक दोनों पर दृष्टि डालनी होगी। हमें दोनों की स्वतंत्रता, कार्य शैली, ज़िम्मेदारियाँ और दोनों के अधिकार एवं कर्तव्यों पर विचार करना होगा।

सर्वप्रथम किसी लोकतांत्रिक देश की कानून और न्याय व्यवस्था पर दृष्टि प्रक्षेप करें, तो प्रश्न उठता है कि, वहाँ की जनता के मौलिक अधिकार क्या हैं। उनके कानून कितने कठोर और कितने लचीले हैं, उन्हें अपनी सरकारों से क्या लाभ मिल रहे हैं और क्या हानियाँ हो रही हैं। जनता की सुख-शांति की व्यवस्था कैसी है। वहाँ की जनता अपनी सरकार से सन्तुष्ट है या नहीं। इन सभी सकारात्मक और नकारात्मक प्रश्नों के उत्तर ही तय करते हैं कि, स्वतंत्र देश में जनता की क्या ज़िम्मेदारियाँ होती हैं।
आज हमारे देश को स्वतंत्र हुए ७५ वर्ष से भी अधिक समय हो चुका है, अनेक सरकारें आईं और चली गईं, परन्तु अनगिनत प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं।
अपने अनुभवों के आधार पर पहले कानून की बात करती हूँ-
कानून समाज में व्यवस्था बनाए रखने और सुख-शांति , सौहार्द, समरसता, सहानुभूति, सत्य,शिव और सौन्दर्य की प्रतिष्ठापना के लिए बनाए जाना चाहिए, पर ऐसा नहीं है। आज कानून की विषमताएँ अन्याय को बढ़ावा दे रही हैं और अन्याय नई पीढ़ियों को आतंक की ओर ले जाता है। आँखों देखे २ उदाहरण-
प्रथम तो यह कि, जब दहेज कानून बना तो उससे होने वाले लाभ और हानि को नजरन्दाज कर दिया गया एवं उसके लाभ कम और नुकसान अधिक हुए। पुत्र वधुओं ने उसका फायदा उठाते हुए न जाने कितने परिवारों की प्रतिष्ठा खाक में मिलाई और अपनी चारित्रिक कमजोरियों को छिपा कर वृद्ध सास-ससुर पर कहर ढाए। न जाने कितने निर्दोषों को जेल भेजा और न जाने कितने लोग सामाजिक प्रतिष्ठा का ह्रास न सह पाने से काल कवलित हो गए।
आज लड़कियाँ प्रेम विवाह करके किसी की भी पुत्र वधू बन जाती हैं। उनके माता- पिता दहेज मुक्त विवाह तुरन्त स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु लड़के के माता-पिता पर अनेक प्रकार का बोझ बढ़ जाता है। बहू के लिए कक्ष की व्यवस्था, भोजन-पानी, मनोरंजन की व्यवस्था और उसके मन मुताबिक घूमने -घुमाने की व्यवस्था, दवा की व्यवस्था, सन्तानोत्पत्ति के अवसर पर खर्च आदि सब पति पक्ष ही करता है, परन्तु यदि विचार वैभिन्यता के कारण शादी टूटी तो पत्नी पति का वेतन बंटवाने के साथ बच्चे भी अपने हक में कर लेती है। चल और अचल सम्पत्ति भी बंटवा लेती है। पति के पास कुछ नहीं बचता और पुत्री पक्ष, जिससे कभी दहेज मांगा जाता था, वह पूर्णतया निर्बोझ हो जाता है। इतना ही नहीं, यदि दुर्योग से पति की मृत्यु हो जाती है तो पति के धन-संपत्ति के सारे अधिकार पत्नी के हो जाते हैं, जन्म देने और पाल-पोष कर जीवन यापन करने योग्य बनाने वाले माता-पिता का कोई अधिकार नहीं रहता। यहाँ तक कि, वे अपने नाती- पोतों से भी दूर कर दिए जाते हैं। उन्हें वृद्धावस्था में कोई पानी देने वाला नहीं रहता।
दूसरा अंधा कानून, जो एकतरफा लाभ दे रहा है, वह लड़कियों का सुरक्षा कानून है, जो घूम-फिर कर वृद्ध माता-पिता को ही प्रताड़ित करता है। देखा यह जाता है कि, इस कानून का फायदा उठा कर कुछ मनचली- शरारती लड़कियाँ लड़कों को स्वयं छेड़ती हैं और उन पर झूठे आरोप लगा कर जेल की हवा खाने को मजबूर कर देती हैं। उनका भविष्य बर्बाद हो जाता है और वे निराशा व कुंठा से सचमुच अपराधी बन जाते हैं। इतना ही नहीं, कुछ लड़कियाँ तो अपने चचेरे, फुफेरे और ममेरे भाइयों पर भी झूठे इलज़ाम लगा कर परिवार छिन्न-भिन्न कर देती हैं।
मेरा एकपक्षीय मत कभी नहीं है, परन्तु यह कहने में संकोच नहीं है कि, ऐसे कानून समाज पर विपरीत और नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
सत्य तो यह है कि, कभी इस देश में जाति-धर्मगत बंटवारा, कभी साम्प्रदायिक बंटवारा, कभी भाषाई बंटवारा और कभी दलगत राजनीति के कारण बंटवारा होता ही रहा है, एवं अब जो बंटवारा दिखाई पड़ रहा है, वह नर-नारी का बंटवारा है, जो हमारे अस्तित्व को ही चुनौती दे रहा है। यह बंटवारा घातक है। इस पर दोनों पक्षों को सावधान होने की आवश्यकता है।
स्वतंत्र देश में हमारी ज़िम्मेदारियाँ हमारी व्यवस्था ही निर्धारित करती है। जितनी हमारी प्रशासनिक व्यवस्था
न्यायप्रिय, साफ-सुथरी और सबको समान अवसर प्रदान करने वाली होगी, उतना ही जनता का विश्वास सुदृढ़ होगा, चरित्र उज्जवल होगा और देश भक्ति और राष्ट्र प्रेम जागेगा।

व्यवस्था और ज़िम्मेदारी का सम्बंध अन्योनाश्रय है। स्वतंत्र देश में ज़िम्मेदारियाँ जितनी जनता की हैं, उतनी ही हमारी सरकार की है, परन्तु आज सोशल मीडिया के दौर में मर्यादाएँ टूट रही हैं। लोग खुल कर दुश्मनी निकालते हैं, जिसे जो मर्जी होती है, चीख-चीख कर बोलता है। अब न तो बड़ों का सम्मान है, न छोटों का प्यार। यहाँ तक कि, छोटे-छोटे बच्चे बड़ी नेतागिरी करते दिखाई पड़ते हैं। बड़े लोग जो स्वयं नहीं कह पाते, वह बच्चों से कहलाते हुए वीडियो बनाते हैं और उसे नि:संकोच प्रसारित कर देते हैं। यह बच्चों के चारित्रिक पतन की शुरूआत होती है, जिसके लिए स्वयं माता-पिता और प्रशासन ज़िम्मेदार होते हैं। अत: आवश्यकता है कि, प्रशासन सामाजिक व्यवस्था में मूलभूत संशोधन करे और आज सनातन भारत में रामराज्य की कल्पना को साकार करे।

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।