गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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स्नेह के धागे…
वैदिक काल में जिसे हम ‘रक्षासूत्र’ कहते थे, उसे ही आजकल ‘राखी’ कहा जाता है। मुझे याद है बचपन में हमारी बुआजी ऋषि पञ्चमी वाले दिन पहले पहले रेशम की ५-७ पतली रंगीन डोरियों से बना रक्षासूत्र थोड़ा फैलाकर हम सभी के हाथ में बाँधती थी। बाद में हमारे आग्रह पर हमारी माताजी ने रेशमी फुंदों वाली राखी हमारी बहन से बँधवाना शुरू किया, तब बुआजी ने भी हम भतीजों के लिए रेशमी फुंदों वाली राखी बाँधना प्रारम्भ कर दिया। हालाँकि, पिताजी को तो वही रेशम की पतली रंगीन डोरियों वाला वैदिक ‘रक्षासूत्र’ बाँधती थी।
सभी जानते और मानते भी होंगे कि, रक्षासूत्र केवल ५ या ७ पतली रंगीन डोरियाँ नहीं, बल्कि यह बाँधने और बँधवाने वालों के बीच शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का पुलिंदा होता है। उस समय इस पर्व की शुरूआत के समय उपलब्धता के आधार पर एक छोटा-सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े के टुकड़े में दूर्वा, अक्षत (साबुत चावल), केसर या हल्दी, शुद्ध चंदन एवं कुछ सरसों के साबुत दाने-इन ५ सामानों को मिलाकर छोटे से कपड़े के टुकड़े में बाँध रक्षासूत्र वाले कलावे से जोड़ हाथ पर बाँध देते थे। कालान्तर में यही स्वरूप पहले रेशमी फुंदों वाली राखी में बदला और धीरे-धीरे आज जिस रूप में हम सभी देख रहे हैं, अर्थात केवल कच्चे सूत जैसे-कलावे, रेशमी धागे से आगे सोने-चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की राखियाँ उपलब्ध हैं। आजकल इस राखी वाले व्यवसाय में कई सौ लाखों का वारा-न्यारा हो रहा है।
यह पर्व २ अलग अलग तिथियों को मनाया जाता है।भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी (ऋषि पञ्चमी) वाले दिन माहेश्वरी जाति के अलावा गौड़, पारीक, दाधीच, सारस्वत आदि के अलावा खन्डेलवाल माहेश्वरी एवं पुष्करणा हर्ष जाति में बहन, भाई को रक्षासूत्र-राखी बांधती है, जबकि बाकी सभी जगह पूरे भारत में ही नहीं, बल्कि नेपाल में भी श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन (श्रावणी-पूर्णिमा) रक्षाबंधन वाले त्यौहार के रूप में मनाया जाता है।
माहेश्वरी समाज में पीढ़ी-दर-पीढ़ी से ऋषि पञ्चमी के दिन ही बहनें अपने भाईयों को रक्षासूत्र बांधकर यह त्यौहार मनाते आ रहे हैं। हालाँकि, आजकल देखने में आ रहा है कि एक ही परिवार में दोनों ही दिन यह पर्व मनाया जाने लगा है, जिसका मुख्य कारण अन्तर्जातिय विवाह सम्बन्ध है।
दोनों समय मनाया जाने वाला यह त्यौहार भाई और बहन का त्यौहार है, भाई-बहन के प्यार का प्रतीक है। इन दोनों दिनों में बहनों में एक अलग तरह की उमंग देखने में आती है, जिसका एकमात्र कारण सुख-दु:ख में साथ निभाने की प्रतिबद्धता है, लेकिन आजकल भाई सगी बहनों को उपहार चाहे नगद हो या अन्य किसी रूप में देकर इतिश्री कर लेते हैं जबकि पहले दोनों के बीच, भले ही मुहँबोली बहन हो या मुहँबोला भाई, एक निश्छल प्रेम देखने को मिलता था। इसका एक छोटा-सा उदाहरण-
हिन्दी साहित्य युग के महानायक और उसकी आत्मा पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और उनकी मुँहबोली बहन महादेवी वर्मा के बीच की घटना अनुसार ‘निराला’ रिक्शे में बैठ बहन महादेवी जी के यहाँ राखी बँधवाने के लिए पहुँच कर उनसे ही १२ रुपए माँगते हैं। महादेवी जी के यह पूछने पर कि, “१२ रुपए काहे चाहिए ?” तो भाई उत्तर देता है, “दुई रुपैया इस रिक्शे वाले को और १० तुमको राखी बंधाई का दूँगा।”
पूर्व अनुसार श्रावण पूर्णिमा के दिन राखी बांधकर बहन अपने भाई से स्वयं की रक्षा करते रहने की प्रार्थना करती है, जबकि ऋषि पञ्चमी के दिन बहन उपवास कर भाई को राखी बांधकर भगवान से हमेशा अपने भाई की कुशल-मंगल की कामना करती है, परंतु आज बदली हुई परिस्थति में दोनों ही पर्व पर बहन-भाई दोनों को एक-दूसरे की रक्षा के न केवल संकल्प की आवश्यकता है, बल्कि एक-दूसरे की कुशल-मंगल की कामना करने की भी आवश्यकता है। जैसा कि, रक्षाबंधन का शाब्दिक अर्थ ‘सुरक्षा का बंधन’ स्पष्ट तौर पर इस ओर इंगित करता है ।
यही सत्य प्रतीत होता है कि, दोनों ही पर्व बहन-भाई के रिश्तों की मधुरता को दर्शाते हैं। भारतीय परम्पराओं में इन पर्वों का विशेष महत्व है। ऐसे पर्वों से सामाजिक सम्बन्धों को मजबूती मिलती है। दोनों का अपना-अपना अस्तित्व ही नहीं, बल्कि पौराणिक एवं सामाजिक महत्व है। हमें दोनों के महत्व को समझकर उसका सम्मान करना चाहिए, न कि अपनी सुविधा अनुसार धर्म की रीति को बदलना उचित है।