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सुध खो देती हूँ

श्रीमती देवंती देवी
धनबाद (झारखंड)
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जब-जब बजाते कृष्ण बाँसुरी,गृहकार्य नहीं कर पाती हूँ,
जब सुनती हूँ बाँसुरी की मधुर धुन,मंत्रमुग्ध हो जाती हूँ।

ओ मनमोहना श्री कृष्णा काहे को बाँसुरीया बजाते हो,
घर में मन नहीं लगता है,पिया से तुम कलह करवाते हो।

क्यों बाँसुरी की धुन सुना के मुझे जमुना तट बुलाते हो,
मन बावरी हो जाता है,जब बाँसुरी बजा के बुलाते हो।

जब भी जाती हूँ मैं पनिया भरने सखी संग पनघट पे,
हर जगह दिखते हो,बाँसुरी की धुन आती है कानों में।

बहुत देर हो गई कृष्ण,अब मत रोकना नन्द लाल मुझे,
आऊँगी मैं कल फिर मिलने,सच कहती हूँ कृष्ण तुझे।

ना जाने क्या जादू है,हे श्रीकृष्णा तुम्हारी बाँसुरी में,
मैं प्रेम में ओत-प्रोत हो जाती,क्या गुण है बाँसुरी में।

जब सुनती बाँसुरी की धुन,सुध अपनी खो देती हूँ,
काँटों भरी राहों में चल के,कृष्ण मैं मिलने आती हूँ।

बड़े नटखट हो,हे श्रीकृष्ण,चैन से सोने भी नहीं देते,
कैसे मिलने आऊँ रात में,पिया पैर बाँध के हैं रखते।

श्रीकृष्ण की बाँसुरी धुन-सुन,तन-मन में प्रेम उमड़ता है,
वैसा कोई क्षण नहीं,तुझे देखने को मन मेरा तरसता है॥

परिचय-श्रीमती देवंती देवी का ताल्लुक वर्तमान में स्थाई रुप से झारखण्ड से है,पर जन्म बिहार राज्य में हुआ है। २ अक्टूबर को संसार में आई धनबाद वासी श्रीमती देवंती देवी को हिन्दी-भोजपुरी भाषा का ज्ञान है। मैट्रिक तक शिक्षित होकर सामाजिक कार्यों में सतत सक्रिय हैं। आपने अनेक गाँवों में जाकर महिलाओं को प्रशिक्षण दिया है। दहेज प्रथा रोकने के लिए उसके विरोध में जनसंपर्क करते हुए बहुत जगह प्रौढ़ शिक्षा दी। अनेक महिलाओं को शिक्षित कर चुकी देवंती देवी को कविता,दोहा लिखना अति प्रिय है,तो गीत गाना भी अति प्रिय है।

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