सरफ़राज़ हुसैन ‘फ़राज़’
मुरादाबाद (उत्तरप्रदेश)
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प्यार के क़िस्से हमारे जिन ख़तों में क़ैद हैं।
ख़त वो सारे अब हमारी फ़ाइलों में क़ैद हैं।
बोलबाला जुर्म का है मुजरिमों की ‘भीड़ है,
कौन कहता है के हम अपनी ह़दों में क़ैद हैं।
भूख तारी,प्यास ग़ालिब,बेसरो सामां हैं हम।
कितनी दुश्वारी से हम अपने दरों में क़ैद हैं।
एक ख़ालिक़ ‘एक क़ुरआँ ‘एक ही अपना नबी।
फिर बताओ किसलिए हम मसलकों में क़ैद हैं।
रोक कब पाया कोई बन्धन मिरी परवाज़ को,
कितने धागे आज भी मेरे परों में क़ैद हैं।
कैसे हम दिल से भुला दें आपकी यादें सनम,
आपकी यादें ही जब इन धड़कनों में कैद हैं।
मत्तफ़िक़ हम थे तो रहते थे सुकूँ से ऐ ‘फ़राज़’,
मुन्तशिर जब से हुए ‘हम मुश्किलों में क़ैद हैं॥