कुल पृष्ठ दर्शन : 174

You are currently viewing होली आई, खुशियाँ लाई

होली आई, खुशियाँ लाई

डोली शाह
हैलाकंदी (असम)
**************************************

चिड़ियों का कलरव शुरू ही हुआ था, निशा लुप्त होने की कगार पर खड़ी थी। कुछ देर बाद सूरज भी अपना पैर पसार ही लेता। जीवन संगीत शुरू करने से पहले सोनू अपनी छोटी बच्ची को स्पर्श कर अवाक! यह क्या, इतना ताप! कल तो पूरी ठीक ही सोई थी!
एक स्पर्श करते हुए पिता राजेश ने कहा-“अभी मौसम बदल रहा है, शायद इसलिए…!”
सोनी ने फौरन थर्मामीटर मुँह में घुसाया…। बोली,-“मैं भी आपके साथ डॉ. सिंह के यहाँ जाऊंगी।”
सोनी ने जल्दी-जल्दी घर का सफाई का काम निपटा लिया। एक तरफ अदरक- इलायची की चाय, तो दूसरी तरफ कच्ची-पक्की आलू मटर की सब्जी, तो चाँदी-सी चमकती लोहियां बिल्कुल पसरने के लिए तैयार थी।
राजेश भी अपनी दिनचर्या से निवृत्त होकर कार लेकर डॉक्टर के चैम्बर तक पहुंचा और फिर वो खुद आगे की ओर निकल गया। नेहा का ताप देख सोनी बहुत परेशान थी। वह बच्ची का सिर गोद में रख डॉक्टर का इंतजार करती रही। डॉक्टर के आते ही उसने फौरन जांच कराई। दवाइयों का पर्चा लेकर निकल ही रही थी कि, एक मटमैली कमीज, बदरंग पजामा और गले में एक गमछा देख यह कोई जाना-पहचाना सा लगा।
कुछ समय तो वह टकटकी लगाए देखती रही, फिर एक हाथ में बुखार से तपती बच्ची तो दूसरी तरफ दवाइयों का पर्चा लिए- “प्रणाम चाचा जी!” उसके मुँह से अचानक निकला।
“प्रणाम, लेकिन बेटा मैंने तुम्हें पहचाना नहीं!”
“क्या आप माधुरी के बाबूजी हैं ?”
“हाँ बेटा, वह हमारी बेटी थी, क्या तुम उसे जानती हो ?”
“हाँ चाचा जी, १२वीं तक हमने साथ ही पढ़ाई की थी।”
“क्या हुआ है आपको ?अकेले आए हैं!”
“हाँ बेटा, इस बुढ़ापे में अकेलापन ही मेरा साथी है और यही काटने को दौड़ता है।”
“लेकिन चाचा जी, जहां तक मुझे याद है माधुरी के २ भाई भी थे। वह अक्सर उनकी बातें किया करती थी।”
“हाँ बेटा, मेरे २ बेटे हैं, दोनों परदेस में अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हैं। किसी को मेरी खबर तक लेने की फुर्सत नहीं है।”
“हाँ चाचा जी, आजकल हर कोई इतना व्यस्त हो चुका है कि,….. चाचा जी, वैसे माधुरी कैसी है ? कहाँ शादी हुई उसकी ?”
“ठीक ही है। इंदौर के किसी नामी-गिरामी सीमेंट उद्योग के मैनेजर के साथ है। वह भी अपनी ही दुनिया में व्यस्त है।”
“आती नहीं वह…!”
थोड़े नम शब्दों में बोले-“हमने बुलाया ही नहीं कभी…।”
“कितने दिन हुए उसको आए ?”
“लगभग ५ साल हो गए, विवाह के बाद आई ही नहीं।”
“मगर चाचा जी…।”
“उसे परिवार की इज्जत से ज्यादा प्यारा एक उद्योगपति लगने लगा, और फिर उसने पढ़ाई के दौरान ही उसके साथ विवाह कर लिया। सूचना मिलने पर हमने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसके बढ़ते रवैए को देख हमने उसकी जिंदगी उसे सौंप दी। माँ की मृत्यु के वक्त उसने घर वापसी की कोशिश की, लेकिन अपनी प्रतिष्ठा देख उसे हमने न बुलाना ही सही समझा। उसके बाद उसने कई बार खबर भी ली, लेकिन हमने समाज में अपनी मर्यादा देख अपनी बेटी को त्याग दिया।”
“पर चाचा जी, क्या आपके पास उसका कोई फोन नंबर वगैरह है।”
वे मोबाइल आगे करते हुए बोले,,-“निकाल लो, मुझे तो दिखता नहीं।”
“चाचा जी, क्या आपको आँखों में भी दिक्कत है ?”
“हाँ बेटा, दर्द झेलते-झेलते यह आँखें भी बूढ़ी हो गई हैं। इतना ही नहीं, श्याम ने भी परदेस में अपने कलिग के साथ घर बसा लिया है, लेकिन वह बीच-बीच में घर आ जाता है।”
“लेकिन, आपका यहाँ अकेला आना सही नहीं है।”
“हाँ बेटा, कल पड़ोस के एक बच्चे को साथ लाया था, पर हर दिन किसको…!”
“आपकी बात तो सही है, आप अकेले हैं तो भैया लोगों के पास क्यों नहीं चले जाते ?”
“बेटा गया था, लेकिन उस ४ फुट के कमरे में मेरा दम घुटता है। मेरा मानना है ४ दिन की जिन्दगी, खाऊं न खाऊं, लेकिन चिक-चिक से दूर रहूँ।”
“बाबूजी…, लेकिन भैया ने दूसरी जाति में विवाह किया तो उन्हें घर आने की अनुमति है, किन्तु माधुरी को नहीं, आखिर क्यों ? क्या आपका मन नहीं करता, आप उसे देखें!”
“बेटा मन करता है लेकिन…!”
“क्या लेकिन चाचा जी, जब भैया आ सकते हैं, तो माधुरी क्यों नहीं…? इसलिए कि वो बेटी है…!!
“बेटा ऐसी बात नहीं है। जब यह काम माधुरी ने किया था तो उस वक्त हमारा समाज इन चीजों को बड़ी बुरी नजर से देखता था, लेकिन आज यह सब-कुछ आम हो चुका है।”
“लेकिन चाचा जी, समाज तो हम सबसे ही बनता है… और यह बात तो छोड़ ही दीजिए।एक पिता का मन कैसे मान गया ? कभी मन नहीं होता जानने का, कि वो कैसी है, किस हाल में है…??”
“मन करता है बेटा, लेकिन उस वक्त मैं मजबूर था और अब…!”
बातें करते-करते दोनों एकसाथ घर को निकल गए। बाबूजी घर तो जरूर आ गए, लेकिन मन-मस्तिष्क में सोनी की बातें कचोटती रही। पूरा जीवन बराबरी का पाठ पढ़ाने वाला और अपने ही घर में इतना दोहरा व्यवहार…। कुछ हद तक तो समय को दोषी ठहराते, लेकिन मैं! मैंने एक पिता बनकर क्या किया…??? समाज में वैसी इज्जत का क्या, जो अपनों की नजरों में ही गिरकर मिले।
सोनी ने घर पहुंच कर अपने कामों से निवृत हो कर माधुरी को फोन लगाया।
माधुरी (अवाक भरे शब्दों में) -“कौन?”
“अरे, मैं सोनी बोल रही हूँ।” “कैसे याद आई मेरी !”
“नहीं, उस दिन तेरे बाबूजी मिले थे, तो उनसे ही तेरी जानकारी मिली।”
“कैसे हैं वह ?”-माधुरी ने पूछा।
“ठीक नहीं है यार, तुझे मिलने का मन नहीं करता!”
“यार मन का क्या है!!, ब्याह के बाद आज तक मैं मायके कभी नहीं गई।”
“मुझे पता है, लेकिन अब आजा… एक बेटी होने का सही फर्ज निभा… और बाबूजी की हालत भी सही नहीं है। एक बार आकर मिल ले।”
“मगर, सोनी कैसे!”
“मुझे तो माँ के मरने पर भी घर आने की अनुमति नहीं मिली थी!”
“कोई बात नहीं, सब पर मिट्टी डालकर तू फौरन अपने भोले-भाले पिता के पास आ जा।”
बात गले तक पहुंची भी न थी कि, बाबूजी की घंटी देख दंग भरे शब्दों में बोली-“बाबू जी, आप…!”
“हाँ बेटा, तेरे जीवन का कलंक, गुनहगार तेरा बाबूजी…।”
“बाबूजी, ऐसे क्यों बोल रहे हैं ?”
“कुछ भी हो, हो तो मेरे पिता ही… इसमें तो कोई दो राय नहीं…।”
“बेटा! वह किस काम का पिता, जिसने चंद खुशियों के लिए अपनी औलाद को ही भुला दिया।” इसके बाद तो पिता के संग खुशियों के हिलोर लगाती सारे गमों को भुलाकर वात्सल्य प्रेम में डूबी माधुरी घंटों बातें करती रही। उद्योगपति के घर आते ही माधुरी ने अपनी सारी खुशियाँ व्यक्त की, उनसे फौरन मिलने की इच्छा दिखाई।
वर्षों के बाद माधुरी की खुशी देख उद्योगपति भी फौरन जाने को तैयार हो गए। अगले सप्ताह की टिकट भी बुक कर ली। बाबूजी ने दोनों बच्चों श्याम और राम को माधुरी के आने की सूचना दी।
माधुरी ने भी अपने साथ माँ के लिए १ साड़ी और पिता की हर जरूरत की चीज ले ली। दरवाजे पर दोनों को सामने देख बाबूजी किंकर्त्तव्यविमूढ़ की स्थिति, छलछलाई आँखें, गला रूद्ध देख, उसने बाबूजी को जा थामा। दोनों के खुशी भरे आँसू देख उद्योगपति दूर खड़े आनंद विभोर हो रहे थे।
कुछ क्षण पश्चात ही माधुरी मिठाई की पोटली, लाई हुई वस्तुएं तथा माँ की साड़ी समझाते हुए-“बाबूजी यह सब आपके लिए।”
स्पर्श के साथ मुस्कुराते हुए-“बेटा, यह सब किसके लिए ? और यह साड़ी!!”
“हाँ बाबूजी, मैंने अपनी पहली साड़ी के साथ माँ के लिए भी एक साड़ी खरीदी थी, जो आज तक मेरे पास उनकी अमानत बनकर रही। …अब यह आपकी जिम्मेदारी …।”
माधुरी की भावनाएं देख बाबूजी गुहार लगा रहे थे- “मुझे माफ कर देना बेटा, मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ, लेकिन हाँ पन्द्रह दिनों बाद ही होलिका दहन है। मैं चाहता हूँ कि, तुम दोनों तब तक यहीं रहो, जिससे मुझे इस दहन के साथ ही अपनी गलतियों को प्रायश्चित करने का अवसर मिले।”
“बस बाबूजी, बस… भूल जाइए सब कुछ…।”
इतने दिनों बाद दोनों भाई का आगमन देख पूरा घर संगीत की सरगम में डूब चुका था। एक तरफ श्याम कभी माधुरी को अपने पास बिठाता, तो कभी राम अपनी बगल, तो कभी पिता की गोद में जाकर बैठ जाती। बच्चों की किलकारियाँ देख बाबूजी खुश तो बहुत थे, लेकिन उनके चेहरे पर फिर भी एक शिकन तो जरूर थी। उद्योगपति भी पहली बार इस खुशी का अनुभव कर मानो गंगा में डुबकी लगा रहे थे।
देखते-देखते सप्ताह बीत गया। राम के जाने का दिन भी करीब आ गया। इतने में बाबूजी कहने लगे “बेटा!अगले सप्ताह ही आए थे और एक सप्ताह रुक जाते तो होली यादगार बन जाती।” राम भी सोच में पड़ गया।
एकसाथ सबको चाय की चुस्कियाँ लेते देख माधुरी कहने लगी-“इस खुशी के लिए हमें सोनी को एक बार जरूर शुक्रिया अदा करना चाहिए। उसके कारण ही आज हम सब यहाँ एकसाथ हैं।”
“हाँ बेटी, क्यों ना होली के दिन उसे भी सपरिवार निमंत्रित किया जाए!” बाबूजी ने इच्छा जाहिर की।
“अरे! वही सोनी ना!, जिसने तुझे दौड़ते हुए धक्का देकर गिरा दिया था।” श्याम के यह कहते ही सभी खिल-खिलाकर जोर से हंस पड़े।
अगले दिन ही बाबूजी बाजार से रंगों से भरा थैला उठा ला आए, साथ ही ५ पिचकारी भी।
श्याम अवाक शब्दों में बोला-” बाबूजी इतनी पिचकारियाँ…, मगर क्यों! अब हम बड़े हो गए हैं, पिचकारियों से कौन खेलेगा ?”
“बेटा! कितने भी बड़े हो जाओ, मेरे लिए तो बच्चे ही रहोगे। मैं शुरू से ही ५ पिचकारियाँ खरीदता था। हर एक के हाथों में रंगों से भरी पिचकारियाँ देख तुम्हारी माँ बहुत खुश होती थी। वही दिन मैं पुनः दोहराना चाहता हूँ, जाने यमराज कब मुझे अपने पास बुला ले।”
“बाबूजी ऐसा ना बोलिए…। अब आप यहाँ अकेले नहीं रहेंगे, हमारे साथ इंदौर चलिए, वहीं सब एकसाथ रहेंगे।”
उद्योगपति की यह बात सुन बाबूजी गदगद हो उठे। होलिका दहन की तैयारी के साथ ही माधुरी ने भांग भरे गिलास भी सजा दिए। बचपन की तरह ही सभी रंग विभोर होते गए। घर की लक्ष्मी के सारे कामों को किया देखकर बाबूजी छलछलाई आँखों से बोले-“बेटी तो बेटी ही होती है…,

आज से मेरी २ बेटी और ४ बेटे हैं।” पिता के चेहरे की खुशी देख सभी मुस्कुराकर जोर से बोले-“बुरा ना मानो होली है….।”