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साहित्य के शलाका पुरुष डॉ. प्रभाकर माचवे

डॉ. दयानंद तिवारी
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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परम्परागत कविता से आगे नए विषय,नई भाषा,नए भावबोध और अभिव्यक्तियों के साथ ही प्रयोगवाद के बाद हिंदी कविता में ‘नयी कविता’ की शुरुआत हुई। इसमें नए मूल्यों और नए शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया। प्रभाकर माचवे इसी ‘नयी कविता’ की धारा के ही कवि रहे हैं।
अपने प्रारंभिक वर्षों के दौरान डॉ. माचवे ने ऑल इंडिया रेडियो(इलाहाबाद और नागपुर) के लिए काम किया। उन्हें प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन द्वारा आमंत्रित किया गया था। आपने १९५४ में साहित्य अकादमी (पत्र द नेशनल एकेडमी ऑफ) स्थापित करने के लिए अपने विशाल ज्ञान,साहित्यिक कुशाग्र बुद्धि और विद्वानों के नेतृत्व में साहित्य अकादमी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व और गर्व की एक संस्था के विकास में अमूल्य योगदान दिया ।
डॉ. माचवे एक विपुल प्रतिभा के धनी लेखक थे । उन्होंने तीनों भाषाओं मराठी,हिंदी और अंग्रेजी में १०० से अधिक पुस्तकें लिखी है। उनके लेखन की दुनिया में अनुवाद, उपन्यास,कविता,लघु कथाएँ, जीवनी,बच्चों की किताबें,यात्रा वृत्तांत,व्यंग्य, आलोचना,सम्पादन,समीक्षा और अन्य विविध विषयों का संग्रह शामिल हैं।
डॉ प्रभाकर माचवे ने संयुक्त राज्य अमेरिका में कई विश्वविद्यालयों में भारतीय साहित्य, धर्म और संस्कृति,दर्शन,गांधीवाद की शिक्षा दी। उन्हें जर्मनी,रूस,श्रीलंका,मॉरीशस, जापान और थाईलैंड आदि जैसे देशों के लिए व्याख्यान पर्यटन के लिए आमंत्रित किया गया।
अकादमी से संन्यास लेने के बाद उन्होंने शिमला के अग्रिम अध्ययन संस्थान में २ साल बिताए। इसके बाद भारतीय भाषा परिषद के निदेशक के रूप में ज़िम्मेदारी संभाली और अंतिम वर्षों में एक प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक के मुख्य संपादक के रूप में इंदौर में कुछ साल बिताए।
उनके बारे में एक कम ज्ञात तथ्य है कि,वह एक कलाकार भी थे। उन्होंने इंदौर के एक विद्यालय में चित्रकारी सीखी थी। वह एम.एफ. हुसैन और बेंद्रे के समकालीन थे। इसके कुछ नमूने एक पुस्तक ‘शब्द’ में संकलित हैं।
उनकी कविताओं में उनके आत्मा के स्वर झलकते हैं। डॉ.माचवे उनमुक्तता के विश्वासी हैं। अतः साहित्य में हुए नवीन शिल्पगत प्रयोगों के प्रति भी वे जागरूक हैं। तार सप्तक के प्रकाशन के पूर्व ही सन १९३८ में विशाल भारत में उनकी २ इंप्रेशनिस्ट कविताएं प्रकाशित हो चुकी थी,जो उस समय की हिंदी कविता में सर्वथा नई थी। कविता के लिए वे जनभाषा के प्रयोग के हामी थे और व्यंजना शक्ति को स्वीकार करते हुए अलंकार आदि की रूढ़ि का तिरस्कार करते थे,पर उनकी भाषा जैसे तत्सम प्रधान और लालित्य मयी होने के साथ कई बार सपाट और अलंकृत है। वैसे ही उसमें उपमानों और बिंबों का गुंथन भी हैं। उनकी दृष्टि अदृष्ट की ओर नहीं,धरती की ओर रहती हैं। किसान,श्रमिक और दरिद्र नारायण के प्रति उतने ही उदार और समर्पित हैं,जितने प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति,उतने ही उदार उन्मुख और महापुरुषों के प्रति श्रद्धानत है। इन सभी से संबंधित विषयों पर उन्होंने कविता रचना की है। गीत,सानेट,शतपदी,रूबाई,लावनी,आल्हा, वर्णवृत्त,कवित्त,गजल आदि सभी शैलियों में उन्होंने कविताएं लिखी,साथ ही छंद और मुक्त छंद दोनों का अधिकार प्रयोग किया है। मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग भी उनकी कविता में बड़ा सटीक हुआ है।
तत्कालीन आलोचकों ने उनकी कविता पर सूचनात्मक और भाषा पर खिलवाड़ की सीमा तक चमत्कार होने का आरोप किया है, परंतु उसे इधर नई पीढ़ी की मनोदशा के निकट मान जाना है।
पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता। हमारे हुक्मरानों और राजनीतिक आकाओं का हृदय पूंजी से जुड़ा हुआ है। वह बदलने वाला नहीं है। पहले की ही तरह प्रकृति का अंधाधुंध दुरुपयोग होगा,अंतरिक्ष और ग्रहों पर काबिज हो जाने की होड़ होगी और ध्रुव पर झंडे गाड़ देने की कोशिश की जाएगी। वर्चस्वशाली पूंजी शाह पूरी दुनिया को अस्थिर बनाए रखेंगे,क्योंकि दुनिया की अर्स्थिरता में ही उसका लाभ है। इसी से वे मुनाफा कमाते हैं, लेकिन हमें उम्मीद करनी चाहिए कि मंगलू तुम्हारा मंगल हो।
दुनिया के बारे में हमारे पास प्रकृति और संदेश की इतनी सारी महान कविता मौजूद है। हो सकता है कि कोई प्रकृत का समय कोई सुनता रहा हो, लेकिन यह समय बहुत राजनीति समय है।
दरअसल,बिना राजनीतिक हुए आप जी ही नहीं सकते। अखबार अत्यंत राजनीतिक है, उनमें कोई गैर राजनीतिक चीज रहती ही नहीं,सारी खबरें व्यापार,वाणिज्य,खेल, मनोरंजन और संस्कृति भी राजनीतिक है। यह तब भी थी,जब माचवे जी थे।
डॉ.माचवे की कविता की कुछ पंक्तियों में तत्कालीन युग की कुछ तस्वीरें देखी जा सकती हैं-
‘निर्जन की जिज्ञासा है निर्झर की तुतली बोली में
विटपों के हैं प्रश्नचिन्ह विहगों की वन्य ठिठोली में
इंगित हैं ‘कुछ और पूछ लूँ’ इन्द्रचाप की रोली में
संशय के दो कण लाया हूँ आज ज्ञान की झोली में।’

‘हम बच्चों की जान है माँ
मेरी नींदों का सपना माँ
तुम बिन कौन है अपना माँ
तुमसे सीखा पढ़ना माँ
मुश्किल कामों से लड़ना माँ
बुरे कामों में डाँटती माँ
अच्छे कामों में सराहती माँ
कभी मित्र बन जाती माँ
कभी शिक्षक बन जाती माँ
मेरे खाने का स्वाद है माँ।’

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