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तप एवं संयम की अक्षय मुस्कान का पर्व

ललित गर्ग
दिल्ली

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अक्षय तृतीया(१४ मई)विशेष…..

अक्षय तृतीया महापर्व का न केवल सनातन परम्परा में,बल्कि जैन परम्परा में विशेष महत्व है। इसका लौकिक और लोकोत्तर-दोनों ही दृष्टियों में महत्व है। इस त्यौहार के साथ-साथ एक अबूझा मांगलिक एवं शुभ दिन भी है,जब बिना किसी मुहूर्त के विवाह एवं मांगलिक कार्य किए जा सकते हैं। रास्ते चाहे कितने ही भिन्न हों,पर इस पर्व त्यौहार के प्रति सभी जाति,वर्ग और धर्मों का आदर-भाव अभिन्नता में एकता का प्रिय संदेश दे रहा है। आज के कोरोना महासंकट एवं महामारी के समय में संयम एवं तप की अक्षय परम्परा को जन-जन की जीवनशैली बनाने की जरूरत है।
यह दिन किसानों एवं कुंभकारों सहित शिल्पकारों के लिए भी बहुत महत्व का दिन है। बैलों के लिए भी बड़े महत्व का दिन है। प्राचीन समय से यह परम्परा रही है कि आज के दिन राजा अपने देश के विशिष्ट किसानों को राज दरबार में आमंत्रित करता था और उन्हें अगले वर्ष बुवाई के लिए विशेष प्रकार के बीज उपहार में देता था। लोगों में यह धारणा प्रचलित थी कि उन बीजों की बुवाई करने वाले किसान के धान्य-कोष्ठक कभी खाली नहीं रहते। यह इसका लौकिक दृष्टिकोण है।
लोकोत्तर दृष्टि से अक्षय तृतीया पर्व का संबंध जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ के साथ जुड़ा हुआ है। तपस्या हमारी संस्कृति का मूल तत्व है, आधार तत्व है। कहा जाता है कि संसार की जितनी समस्याएं हैं,तपस्या से उनका समाधान संभव है। संभवतः इसीलिए लोग विशेष प्रकार की तपस्याएं करते हैं और तपस्या द्वारा संसार की आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों संपदाओं को हासिल करने का प्रयास करते हैं। जैन धर्म में वर्षीतप यानी एक वर्ष तक तपस्या करने वाले साधक इस दिन से तपस्या प्रारंभ करके इसी दिन सम्पन्न करते हैं। यह संसार से मोक्ष की मुस्कान,शरीर को तपाने और आत्मस्थ करने का अवसर है।
अक्षय तृतीया तप, त्याग और संयम का प्रतीक पर्व है।

इसका सम्बन्ध भगवान ऋषभदेव के युग और उनके कठोर तप से जुड़ा होने से वर्षीतप की परम्परा चली। यह ऋषभ की दीर्घ तपस्या के समापन का दिन है।
सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा का नाम है ऋषभ। वे सम्राट से संन्यासी बने,उनके प्रति जनता में गहरा आदर भाव था। यही कारण रहा कि उनके प्रजाजनों को इस बात का ज्ञान नहीं था कि भगवान ऋषभदेव को भिक्षा में भोजन की भी आवश्यकता होगी। भगवान प्रतिदिन शुद्ध आहार की गवेषणा एवं तलाश करते हुए घर-घर में घूमते, लेकिन अज्ञानता के सघन आवरण के कारण कोई भी उन्हें भोजन उपहृत नहीं करता। लोग उन्हें आदर के साथ हाथी,घोड़े,रथ,रत्नाभूषण,रत्न जड़ित पादुकाएं ग्रहण करने की प्रार्थना करते। उनका मत था कि वे अपने सृजनहार को अपने पास की सबसे बड़ी एवं कीमती वस्तु उपहृत करें। इस तरह बिना आहार के भगवान ऋषभ की तपस्या के बारह महीने पूरे हो गए। इस क्रम में आप पादविहार करते हुए हस्तिनापुर पधारते हैं। आपका प्रपौत्र श्रेयांस कुमार राजमहल के गवाक्ष में बैठा सड़क के दृश्य को देख रहा है। अचानक उसकी नजरें सड़क पर भिक्षा की गवेषणा में नंगे पैर घूमते अपने संसारपक्षीय परदादा भगवान ऋषभदेव पर पड़ती है। भगवान ने प्रपौत्र श्रेयांस के हाथों इक्षुरस का सुपात्र दान लेकर एक नई परम्परा की शुरूआत की। इन अप्रत्याशित क्षणों के साक्षी बनकर देवलोक से समागत देवतागण ने भी अहोदानं-अहोदानं की ध्वनि प्रकट करते हुए पांच प्रकार के द्रव्यों की वर्षा की। कहा जा सकता है कि इस महत्वपूर्ण प्रसंग से जुड़कर बैसाख शुक्ल तीज का दिन जिसे अक्षय तृतीया का सम्बोधन भी प्राप्त हुआ,एक दृष्टि से धर्म क्षेत्र में नई सोच के दर्शन कराने वाला दिन बन गया। यही सन्दर्भ तपस्या और साधना का शुभ मुहूर्त बन गया।
समग्र जैन समाज में अक्षय तृतीया के दिन को अत्यन्त आदर और सम्मान के साथ मनाये जाने की परम्परा वर्षों से चली आ रही है। प्रतीकात्मक रूप में इसे वर्ष भर तक एकांतर तप (एक दिन छोड़कर पुनः उपवास) की साधना के साथ मनाए जाने की परम्परा ने विगत कुछ वर्षों में काफी जोर पकड़ा है। कोरोना महासंकट में इस पर्व की प्रासंगिकता अधिक सामने आई है। जरूरत इस बात की है कि इसकी साधना से जीवन विकास की सीख हमारे चरित्र की साख बने। हममें अहं नहीं,निर्दोष शिशुभाव जागे। यह आत्मा के अभ्युदय की प्रेरणा बने।
अक्षय तृतीया का पावन पवित्र त्यौहार निश्चित रूप से धर्माराधना,त्याग,तपस्या आदि से पोषित ऐसे अक्षय बीजों को बोने का दिन है जिनसे समयान्तर पर प्राप्त होने वाली फसल न सिर्फ सामाजिक उत्साह को शतगुणित करने वाली होगी,वरन अध्यात्म की ऐसी अविरल धारा को गतिमान करने वाली भी होगी जिससे सम्पूर्ण मानवता सिर्फ कुछ वर्षों तक नहीं पीढ़ियों तक स्नात होती रहेगी। अक्षय तृतीया के पवित्र दिन पर हम सब संकल्पित बनें कि जो कुछ प्राप्त है उसे अक्षुण्ण रखते हुए इस अक्षय भंडार को शतगुणित करते रहें। यह त्यौहार हमारे लिए एक सीख बने,प्रेरणा बने और हम अपने आपको सर्वोतमुखी समृद्धि की दिशा में निरंतर गतिमान कर सकें। अच्छे संस्कारों का ग्रहण और गहरापन हमारे संस्कृति बने,तभी अक्षय तृतीया पर्व की सार्थकता होगी।

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