९ जुलाई की सुबह टेलीविजन पर दिखाई पड़ा कि कानपुर के पास के बिकरू गाँव का विकास दुबे,जिसने ८ पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी थी और भागा-भागा फिर रहा था,को उज्जैन के महाकाल मंदिर से निकलते समय पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। और उसे थाने ले जाया गया। दुबे की गिरफ्तारी की बात सब जगह फैल गई थी,इसलिए उसके बारे में और जानकारी पाने की इच्छा सबको हो गई। रात में उत्तर प्रदेश की पुलिस दुबे को लेकर कानपुर को चली और सुबह टेलीविजन से ही खबर मिली कि पुलिस मुठभेड़ में दुबे मारा गया। यह घटना एक खब़र तो है ही,पर साहित्य में भी इसकी गूँज होनी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है,क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण है।
राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने ‘जयद्रथ बध’ काव्य में लिखा है
“अधिकार खोकर बैठ रहना,यह महा दुष्कर्म है;न्यायार्थ अपने बंधुओं को दंड देना धर्म है।”
आज इसी परिप्रेक्ष्य में विकास के अपराध की कहानी देखते हैं,तो उसके मारे जाने के बाद उसके घर के ही लोग मान बैठे हैं कि वह दण्ड पाने का ही पात्र था। उसके पिता ने तो पूछे जाने पर छूटते ही कह दिया कि उसका (विकास का) मारा जाना ठीक ही है! उसकी पत्नी से भी चर्चा की गई तो उन्होंने भी विकास के मारे जाने को सही ही ठहराया। उसके घर-गाँव-पड़ोस के गाँव के अन्य लोगों ने भी विकास के मारे जाने को सही कदम ही कहा। इतना ही नहीं,जब पुलिस विकास के मकान को तोड़ रही थी,तो उसकी माँ ने भी पुलिस के कार्य को सही कहा और इतना-भर चाहा कि उसके छोटे बेटे के मकान को नहीं तोड़ा जाय,क्योंकि वह विकास के कामों से जुड़ा हुआ नहीं था। यह उस माँ ने कहा जिसके बारे में कहा गया है-
‘माता न कुमाता हो सकती है,हो पुत्र कुपुत्र भले कठोर।
सब देव देवियां एक ओर,ऐ माँ मेरी तूँ एक ओर।’
विकास के बारे में एक-से-एक कहानी हवा में तैर रही है। वह ऋचा पांडेय को चाहने लगा और उससे शादी करना चाहा,तो लड़की के माता-पिता ने यह रिश्ता मंजूर नहीं किया। बाद में वह लड़की को भगाकर ले गया और शादी कर ली। उसको जो चीज भा जाती थी तो वह उसे लेकर रहता था और ना करने वालों को बड़ी बेरहमी से पीटता था और यहाँ तक कि अपने परिसर में लगे नीम के पेड़़ पर लटका के फांसी दे देता था। उसका इतना खौफ था कि थाने में एफ.आई.आर. भी उसकी मर्जी से ही दर्ज होती थी। जमीन खरीदने-हड़पने का जुनुन उसके सर पर सवार था।
विकास ने कुल ११ हत्याएँ की। उसके अपराध की कहानी अनेक हैं,लेकिन ऐसा उसे करने कैसे दिया गया। अगर बचपन से ही उसके हिंसक व्यवहार पर रोक लगती तो वह आज जो गोली का शिकार हुआ है,वह नहीं होता। अपराध पर अगर शुरू में ही रोक लगा दी जाए तो वह पनप नहीं सकता! तब अपराध है क्या,इसकी भी विवेचना करनी आवश्यक है।
अपराध या दंडाभियोग की परिभाषा भिन्न-भिन्न रूपों में की गई है। यथा-‘दंडाभियोग समाजविरोधी क्रिया है;समाज द्वारा निर्धारित आचरण का उल्लंघन या उसकी अवहेलना दंडाभियोग है। यह ऐसी क्रिया या क्रिया में त्रुटि है, जिसके लिये दोषी व्यक्ति को कानून द्वारा निर्धारित दंड दिया जाता है। अर्थात अपराध कानूनी नियमों कानूनों के उल्लंघन करने की नकारात्मक प्रक्रिया है जिससे समाज के तत्वों का विनाश होता है।’
‘अपराध विज्ञान का दंडदायित्व से इतना ही संबंध है कि यह अपराधी को समझने की चेष्टा करता है। उसे पहचानना इसकी परिधि से बाहर है। इसका सिद्धांत इस तथ्य पर आधारित है कि कोई परिस्थिति से पराभूत होकर ही अपराध की ओर अग्रसर होता है। यथा,अर्थ या नैतिक संकट किसी को दूसरे की संपत्ति का अपहरण करने को प्रोत्साहित कर सकता है। विक्षिप्तता या मानसिक असंतुलन भी अपराध को प्रश्रय देते हैं। अत: वैज्ञानिक उपचारों के प्रयोग से तथा परिस्थिति को अनुकूल कर अपराधी को अपराध से विरत करना चाहिए। अन्य शब्दों में यह विज्ञान ‘दंड’ के स्थान में ‘सुधार का समर्थन करता है। अमरीका में इस सिद्धांत की मान्यता बढ़ रही है। भारत या इंग्लैंड में इसका बहुत कम प्रभाव जनता या न्यायालय पर पड़ा है।’
न्याय-प्रक्रिया में एक कठिनाई यह भी देखी जाती है कि अदालत से न्याय पाने में बहुत समय लगता है और कई स्तर होने से उसमें भी समय लगता है। तब तक बात पुरानी पड़ जाती है। इसमें कैसे सुधार हो इस पर भी विचार होना चाहिए। अत:,पुलिस-विकास दुबे मुठभेड़ ऐसे लोगों की आँख खोलती है, जो इस तरह के कार्य करने पर आमादा रहते हैं या जो इस तरह के कार्य को प्रश्रय देने में नहीं हिचकते।
परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”