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अंधेरों के बीच उजालों की खोज हो

ललित गर्ग
दिल्ली

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एक वर्ष का विदा होना सिर्फ कैलेन्डर का बदल जाना भर नहीं है। छोटा ही सही,लेकिन यह हमारे जीवन का एक अहम पड़ाव तो होता ही है,जो हमें थोड़ा ठहरकर अपने बीते दिनों के आकलन और आने वाले दिनों की तैयारी का अवसर देता है। एक व्यक्ति की तरह एक समाज,एक राष्ट्र के जीवन में भी इसका महत्वपूर्ण स्थान है। नये वर्ष की दस्तक जहां आह्वान कर रही है,वहीं बीते वर्ष की अलविदा हमें समीक्षा के लिए तत्पर कर रही है। अलविदा और अगवानी के इस संगम के अवसर पर हम जहां अतीत को खंगालें,वहीं भविष्य के लिए नये संकल्प बुनें।
हमें यह देखना है कि,बीता हुआ वर्ष हमें क्या संदेश देकर जा रहा है और उस संदेश का क्या सबब है। जो अच्छी घटनाएं बीते वर्ष में हुई हैं,उनमें एक महत्वपूर्ण बात यह कही जा सकती है कि,`एनआरसी` और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के कारण भले ही तथाकथित अराष्ट्रवादी ताकतों ने हिंसा एवं अराजकता का माहौल बनाया हो,लेकिन राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से एक सार्थक पहल का सूत्रपात हुआ है। वर्षों से निर्णित राम मन्दिर के मसले पर छाये बादल छंटे। काश्मीर अनुच्छेद ३७० हो या तीन तलाक कानून का मामला-इन ऐतिहासिक कदमों से देश में निर्णायक स्थितियां बनी। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागृति का माहौल बना,लेकिन जाते हुए वर्ष ने अनेक घाव भी दिये हैं,नये वर्ष २०२० की शुरुआत ही रेलयात्रा एवं रसोई गैस के दामों बढ़ोतरी से हो रही है,जिससे पहले से महंगाई को झेल रही जनता के लिये महंगाई एक नई ऊंचाई पर पहुंचेगी,जहां आम आदमी का जीना दुश्वार से अधिक दुश्वार होगा। राजनीतिक स्तर पर महाराष्ट्र एवं झारखण्ड में कट्टर विरोधी दलों के गठबंधनों से नये राजनीतिक समीकरण उजागर हुए है। ऐसा भी प्रतीत हुआ कि,बीते साल में राजनीति और सत्ता गरीब विरोधी दिशा में अधिक गतिशील बनी। बीते साल की आर्थिक घटनाओं के संकेत हैं कि तेजी से आगे बढ़ रहे अर्थ-तंत्र पर न केवल ब्रेक लगा,बल्कि वह चिन्ताजनक स्थितियों में पहुंचा हैं। इस साल सेंसेक्स ने लगातार ज्वार-भाटा की स्थिति बनाए रखी।
बीते वर्ष में न केवल देश की अस्मिता एवं अस्तित्व पर ग्रहण लगा,बल्कि सूर्य पर भी जाते-जाते वर्ष में ग्रहण लगा,वह भी भरी दुपहरी में अंधकार की ओट में आ गया। यह सूर्य ग्रहण भी मनुष्य जीवन के घोर अंधेरों की ही निष्पत्ति कही जा सकती है। यहां मतलब है मनुष्य की विडम्बनापूर्ण और यातनापूर्ण स्थिति से। दुःख-दर्द भोगती और अभावों-चिन्ताओं में रीतती उसकी हताश-निराश जिन्दगी से। आज किसी भी स्तर पर उसे कुछ नहीं मिल रहा। उसकी उत्कट आस्था और अदम्य विश्वास को राजनीतिक विसंगतियों,सरकारी दुष्ट नीतियों,सामाजिक तनावों,आर्थिक दबावों,प्रशासनिक दोगलेपन और व्यावसायिक स्वार्थपरता ने लील लिया है। लोकतन्त्र भीड़तन्त्र में बदल गया है। दिशाहीनता और मूल्यहीनता बढ़ रही है,प्रशासन चरमरा रहा है। भ्रष्टाचार के जबड़े खुले हैं,साम्प्रदायिकता की जीभ लपलपा रही है और दलाली करती हुई कुर्सियां भ्रष्ट व्यवस्था की आरतीयां गा रही हैं। उजाले की एक किरण के लिए आदमी की आँख तरस रही है,और हर तरफ से केवल आश्वासन बरस रहे हैं। सच्चाई,ईमानदारी,भरोसा और भाईचारा जैसे शब्द शब्दकोषों में जाकर दुबक गये हैं। व्यावहारिक जीवन में उनका कोई अस्तित्व नहीं रह गया है।
आशा की ओर बढ़ना है तो पहले निराशा को रोकना होगा। इस छोटे-से दर्शन वाक्य में अभिव्यक्ति का आधार छुपा है। मोजार्ट और बीथोवेन का संगीत हो,अजंता के चित्र हों,वाल्ट व्हिटमैन की कविता हो,कालिदास की भव्य कल्पनाएं हों,प्रसाद का उदात्त भाव-जगत हो…सबमें एक आशावादिता घटित हो रही है। एक पल को कल्पना करिए कि ये सब न होते,रंगों-रेखाओं,शब्दों-ध्वनियों का समय और सभ्यता के विस्तार में फैला इतना विशाल चंदोवा न होता,तो हम किस तरह के लोग होते! कितने मशीनी,थके और ऊबे हुए लोग! अपने खोए हुए विश्वास को तलाशने की प्रक्रिया में मानव-जाति ने जो कुछ रचा है,उसी में उसका भविष्य है। यह विश्वास किसी एक देश और समाज का नहीं है। यह समूची मानव-नस्ल की सामूहिक विरासत है। एक व्यक्ति किसी सुंदर पथ पर एक स्वप्न देखता है और वह स्वप्न अपने डैने फैलाता,समय और देशों के पार असंख्य लोगों की जीवनी-शक्ति बन जाता है। मनुष्य में जो कुछ उदात्त है,सुंदर है,सार्थक और रचनामय है,वह सब जीवन दर्शन है और यही जीवन दर्शन नये वर्ष के संकल्प बुनने का आधार है।
इस बार लगा जैसे वक्त ने ज्यादा निशान छोड़े हैं। देश-विदेश में बहुत घटित हुआ है। अनेक राष्ट्र आर्थिक कर्ज में बिखर गये तो अनेक बिखरने की तैयारी में हैं। अच्छा कम,बुरा ज्यादा। यह अनुपात हर वर्ष बढ़ता जा रहा है। शांति और भलाई के भी बहुत प्रयास हुए हैं,पर लगता है अशांति,कष्ट, विपत्तियां,हिंसा,भ्रष्टाचार,आतंकवाद और अन्याय महामारी के रूप में बढ़ रहे हैं।
सबसे बड़ी बात उभरकर आई है कि झोपड़ी और फुटपाथ के आदमी से लेकर महाशक्ति का नेतृत्व भी आज भ्रष्ट है। भ्रष्टाचार के आतंक से पूरा विश्व त्रस्त है। शीर्ष नेतृत्व एवं प्रशासन में पारदर्शी व्यक्तित्व रहे ही नहीं। सबने राजनीति,कूटनीति के मुखौटे लगा रखे हैं। अपनी बात गिरगिट के रंग की तरह बदलते रहते हैं। कोई देश किसी देश का सच्चा मित्र होने का भरोसा केवल औपचारिक समारोह तक दर्शाता है।
खेल के मैदान से लेकर संसद तक सब जगह अनियमितता एवं भ्रष्टाचार है। गरीब आदमी की जेब से लेकर बैंक के खजानों तक लूट मची हुई है। छोटी से छोटी संस्था से लेकर यू.एन.ओ. तक सभी जगह लाॅबीवाद फैला हुआ है। साधारण कार्यकर्ता से लेकर बड़े से बड़े धार्मिक महंतों तक में राजनीति आ गई है। पंच-पुलिस से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक निर्दाेष की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। पवित्र संविधान की शपथ खाकर कुर्सी पर बैठने वाला करोड़ों देशवासियों के हित से पहले अपने परिवार का हित समझता है। नैतिक मूल्यों की गिरावट की सीमा लांघते ऐसे दृश्य रोज दिखाई देते हैं। इन सब स्थितियों के बावजूद हमें बदलती तारीखों के साथ अपना नजरिया बदलना होगा। जो खोया है उस पर आँसू बहाकर प्राप्त उपलब्धियों से विकास के नये रास्ते खोलने हैं। इस बात को अच्छी तरह समझ लेना है कि,अच्छाइयां किसी व्यक्ति विशेष की बपौती नहीं होतीं। उसे जीने का सबको समान अधिकार है। जरूरत उस संकल्प की है जो अच्छाई को जीने के लिये लिया जाये। भला सूरज के प्रकाश को कौन अपने घर में कैद कर पाया है ?
सदियों की गुलामी और स्वयं की विस्मृति का काला पानी हमारी नसों में लम्बे समय तक बहा है,उससे मुक्ति की दिशाएं उद्घाटित हो रही है। भारत ने पता नहीं कितनी सदियों से खुद को आगे बढ़ता नहीं देखा। यह लंबा इतिहास,जो हमारी परम्पराओं में पैठ चुका है,हमें भविष्य को लेकर ज्यादा आशावादी होने से बचना सिखाता है। यह जंगल का मंत्र है कि `डर कर रहो,हर आहट पर संदेह करो,हर चमकती चीज को दुश्मन समझो और नाराजगी कायम रखो।` जीवन की तेजस्विता के लिये हमारे पास तीन मानक हैं-अनुभूति के लिये हृदय,चिन्तन और कल्पना के लिये मस्तिष्क और कार्य के लिये मजबूत हाथ। यदि हमारे पास हृदय है,पर पवित्रता नहीं,मस्तिष्क है पर सही समय पर सही निर्णय लेने का विवेकबोध नहीं,मजबूत हाथ हैं पर क्रियाशीलता नहीं,तो जिन्दगी की सार्थक तलाश अधूरी है।
समय के इस विषम दौर में आज आवश्यकता है आदमी और आदमी के बीच सम्पूर्ण अन्तर्दृष्टि और संवेदना के सहारे सह-अनुभूति की भूमि पर पारस्परिक संवाद की,मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना की,धार्मिक,राजनीतिक,सामाजिक और चारित्रिक क्रांति की। आवश्यकता है कि राष्ट्रीय अस्मिता के चारों ओर लिपटे अंधकार के विषधर पर आदमी अपनी पूरी ऊर्जा और संकल्पशक्ति के साथ प्रहार करें तथा वर्तमान की हताशा में से नये विहान और आस्था के उजालों का आविष्कार करें।

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